ठानना होगा कि वोट भीख का पात्र नहीं, बदलाव का अस्त्र है
अब चुनौती है कि एसआईआर के सामने हताश हुए बगैर, हथियार डाले बगैर सड़क में तूफान उठाया जाए। हर गांव में शिविर लगाकर सबसे हाशिये पर खड़े समूह के कागज सुलभ कराए और उनको वोट से महरूम न होने दे।

दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र में हुक्मरान गुलामी को प्रोत्साहित करने पर तुले हुए हैं। "हम और वे" में अवाम को बांटकर गुलामी को मजबूत किया जाता है। भारत में पूरी चुनावी प्रक्रिया हक के बदले मेहरबानी बनती जा रही है। हर नागरिक को साबित करना है कि वह मतदाता है। उसे कागज दिखाने हैं। जबकि यह जिम्मेदारी शासन की है कि वह घर-घर जाकर मतदाता सूची को दुरुस्त करे।
लिंगदोह की अगुवाई में पिछली बार हुए एसआईआर में चुनाव आयोग ने मौजूदा मतदाता सूची को अपना आधार बनाया। तब भी राजस्थान में जब कुछ लाख मतदाता छूट गए, तो जनवादी संगठनों ने खुली जनसभा, जन सुनवाई और सामाजिक अंकेक्षण कराकर आपत्तियां दर्ज कराईं। सूची संशोधित की गई।
मगर इस बार मतदाता सूची को ही दरकिनार करने का फैसला लिया गया है। सरकार पहले चाहती थी कि नागरिक अपने होने का सुबूत पेश करें। उसका विरोध हुआ, तो वह स्थगित किया। हालांकि असम में तकरीबन राज्य के बड़े हिस्से को डिटेंशन सेंटर बना दिया गया। बहरहाल, अब नागरिकता पर प्रहार के लिए ही मताधिकार को आधार बनाया जा रहा है। यह नागरिकता की पहली बुनियादी सीढ़ी है। आज मताधिकार छीना गया, तो कल नागरिकता छीनी जाएगी।
लोकतंत्र में मतदाता सूची में हेराफेरी कोई नई बात नहीं है। गांव-गांव की सहकारी समिति में मनमाने ढंग से मतदाता तय किए जाते हैं और ऐन चुनाव के दिन सूची चस्पा की जाती है। इस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं की गई। धांधली कभी-कभी वर्चस्ववादी ताकतों को बहुत भाती है। सब सुविधाजनक चुप्पी साध लेते हैं। नहर और सिंचाई समिति के चुनाव पर लगाम लगाया गया। कृषि उपज मंडी के चुनाव बंद हो गए। स्थानीय निकाय के चुनाव अब राज्य की मर्जी पर होते हैं।उसमें अनेक भेदभावकारी जनप्रतिनिधित्व कानून की भावना के विपरीत नियम थोपे गए हैं जिससे यह लगता है कि इरादा लोगो को चुनावी प्रक्रिया से दूर करना है, न कि उनको राष्ट्र निर्माण में सहभागी बनाना।
आज जब "एक देश एक चुनाव" की बात होती है, वह अभिजात्य वर्ग को बहुत प्रभावित करती है। यह भूलना नहीं चाहिए कि शुरुआत में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। जब कोई सरकार अल्पमत में आ जाए, जनप्रतिनिधियों का विश्वास समाप्त हो जाए, तब भी क्या एक साथ चुनाव होने की बाट जोहते रहें। या फिर मात्र खरीद-फरोख्त से कोई भी गठजोड़ कायम होकर शासन चलाए रखें कि चुनाव साथ हो। यह तो लोकतंत्र के साथ सरासर धोखा होगा। सरकार अभी इन सब प्रणालियों की पैरवी कर ही रही थी कि नया एसआईआर का वज्र हाथ लग गया। पहली बार मतदाता का चुनाव होने जा रहा है।
यह हाशिये पर खड़े समूह से एकमात्र बराबरी का हक भी छीनने की प्रक्रिया है। घुमंतू समुदाय, प्रवासी मजदूर, ठेके पर काम करने वाले, बाढ़ ग्रस्त इलाके के लोग ,बार-बार विकास के नाम पर विस्थापित होते सबसे गरीब कहां से कागज लाएं। आजादी के पहले भी भारत में चुनाव होते थे। चुनिंदा अभिजात्य कुलीन प्रतिनिधि चुनते थे। भूमिहीन, गरीब को कोई हक नहीं था। ब्रिटेन में लोकतंत्र कायम होने के दो सौ साल तक भी महिलाओं, मजदूरों को वोट का हक नही था।
हमारे मुल्क के संविधान निर्माताओं ने वोट को विशिष्टता का जनेऊ नहीं होने दिया। आखिर देश की आजादी के लिए सबसे ज्यादा बलिदान लाखों मजदूरों, किसानों, दलित-आदिवासी और महिलाओं ने दिया था। उनको वोट से महरूम रखना स्वीकार्य नहीं था। लेकिन विगत दिनों ऐसा माहौल बनाया गया है कि जैसे हाशिये पर खड़ा समाज जाहिल हो और मात्र बोझ। उनको तो क्योंकर भला बराबरी का अवसर मिले। वे क्यों वोट करें। उनके साथ दोयम दर्जे का सलूक हो। यह आर्थिक एकाधिकार को बहुत सुविधाजनक लगता है। जब धारावी को वोट का भी हक नही होगा, तो उनको खदेड़ना कितना आसान हो जाएगा।
यह उलटबांसी चल पड़ी है। मतदाता का चुनाव होगा। हुक्मरान तय करेंगे कि किससे वे चुने जाना चाहेंगे। यदि मतदाता ने उनके मुताबिक वोट नहीं किया, तो उसकी सजा भुगतेंगे। दक्षिण के कई राज्यों को केन्द्र का सहयोग नहीं मिलता जो कि एक संघीय व्यवस्था में मिलना चाहिए। इसके निशान ईवीएम प्रणाली के बाद से ही साफ दिखाई पड़ने लगे। जब हर पोलिंग बूथ के नतीजे सामने आते हैं, तब चुने हुए प्रतिनिधि हारे हुए बूथ को अपनी विकास निधि से महरूम करते हैं। यह अपने आप में लोकतांत्रिक मर्जी को दबाने और दंडित करने जैसा है। कम-से-कम मतपत्र के जमाने में विभिन्न बूथ के वोट मिलाकर गिनती होती थी। अब यह बदल गई, तो बदला लिया जाने लगा।
दूसरी तरफ अमेरिका में जहां लोकतंत्र हमसे बहुत पहले लागू हुआ, वहां आज भी कई संस्थाएं ज्यादा स्वायत्त हैं और गुलाम नहीं हैं। पर अब खुलेआम राष्ट्रपति धमकी देते हैं कि उनके मनपसंद को नहीं चुना, तो वे उस शहर को देख लेंगे। तमाम सीमाएं लांघ दी गईं। ऐसे में उम्मीद की किरण ज़ोहरान ममदानी के रूप में दिखाई दी। इसलिए नहीं कि वे चुनाव जीते, बल्कि वह अपने सुझाए वैकल्पिक मार्ग के साथ खड़े रहे। बिना किसी संकोच के निर्भीकता के साथ उसका ऐलान किया। ठीक वैसे जैसे 2024 में संविधान लेकर हमारे देश का एक नेता सड़क पर निकला। सड़क को खामोश नहीं रहने दिया। जैसे लोहिया कहते थे कि "सड़क खामोश हो जाए, तो संसद आवारा हो जाती है"।
यह भी सनद रहे कि विचार और मूल्य की लड़ाई में पूंजी का इस्तेमाल कोई विकल्प नहीं। वह मतदाता और प्रतिनिधि के बीच संबंध नहीं, सौदा है। वह प्रतिनिधि को अराजनीतिक करता है और मात्र सर्विस प्रोवाइडर मानता है। यह तो लोकतंत्र पर और भी बड़ा प्रहार होगा। इसलिए बिहार में एक नए कॉरपोरेट दल का आगमन कोई शुभ संकेत नहीं। वह अनुबंधीय सिपाही की तरह है, जो खरीद-फरोख्त में किसी ओर भी पाला बदल लें। ऐसे कॉरपोरेटी नव सामंत से सावधान रहना चाहिए जो राजनीतिक चेतना शून्यता की पराकाष्ठा होगी।
अब चुनौती है कि एसआईआर के सामने हताश हुए बगैर, हथियार डाले बगैर सड़क में तूफान उठाया जाए। हर गांव में शिविर लगाकर सबसे हाशिये पर खड़े समूह के कागज सुलभ कराए और उनको वोट से महरूम न होने दे। ज़ोहरान ने सिखाया की अपनी पहचान को छुपाए बिना उद्घोष किया जाए। मगर उसको ओढ़े बिना अपनी प्रतिबद्धता बताए, ताकि विश्वास हो कि प्रतिनिधि पहचान से ऊपर उठकर सबकी आवाज बनेगा। उसने दिखाया कि बिना किसी कुंठा के एक गैर अमेरिकी मूल, अल्पसंख्यक को भी मत मिल सकता है। चाहे कोई भी धमकी दे, वह डटे रहे।
भारत में अनेक छोटे-बड़े विप्लव हो रहे हैं। किसान आंदोलन ने, शाहीन बाग की महिलाओं ने कुछ करके दिखाया। खुली चौपाल लगाकर यह ठानने से कि किसी को मतदान से दूर नहीं होने देंगे। प्रमुख विपक्षी गठबंधन और संविधान पर विश्वास रखते संगठनों को यह करके दिखाना होगा। वही हमारे देश का ममदानी पल होगा। लोकतंत्र का हक कायम रखने के लिए यह करवट तो लेनी होगी। ममदानी होने के मायने यह है कि अपनी राह को पूरे जोर से कहकर मनाएं और लोकतंत्र के लिए संघर्ष करें। उसे विरासत न मान लें। वह विरासत भी हो, तो उसके लिए हर पल सतर्क और सचेत रहें। तभी वह टिक सकेगा।
ममदानी होने का मतलब है कि वोट भीख का पात्र नहीं, बदलाव का अस्त्र है। विपक्ष के सामने एक नए चंपारण सत्याग्रह का मौका है। जब गांव-गांव में कागज दिखाने का विरोध और सहूलियत दोनों को अंजाम दिया जाए।
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