सबसे बड़ा सवाल, क्या हम लोकतंत्र के लिए लड़ने को तैयार हैं !

मोदी काल में लोकतंत्र को जिंदा रखने वाली संस्थाओं को योजनाबद्ध तरीके से शक्तिविहीन किया गया है। इसीलिए देश के भविष्य को लेकर गंभीर चिंताएं हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा ने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की बुनियाद ही खिसका दी है।

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अशोक स्वैन

नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारतीय लोकतंत्र का सत्यानाश हो चुका है और यह तमाम विकास सूचकांकों में लगातार दिख भी रहा है। एक दशक से ज्यादा समय के इस हिंदुत्व-संचालित शासन में सत्ता का केन्द्रीकरण और बढ़ता बहुसंख्यकवाद इसकी पहचान बन गए हैं और इसने भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों और मूल्यों को खत्म कर दिया है। 

मोदी के प्रशासन ने न्यायपालिका को कमजोर किया है, असहमति के स्वर को दबाया है, मीडिया की आजादी की नकेल कसी है और राष्ट्रवाद और हिन्दू हितों की रक्षा की आड़ में सामाजिक विभाजन को बढ़ाया है। इन प्रवृत्तियों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रों में से एक के स्वास्थ्य और भविष्य के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा कर दी हैं।

कभी संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक के रूप में देखी जाने वाली न्यायपालिका को मोदी सरकार ने व्यवस्थित रूप से कमजोर किया है। इसके उदाहरण हैं। अदालत में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, अडानी समूह के भ्रष्ट आचरण और राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद जैसे सरकार को असहज करने वाले मामलों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई कछुए की रफ्तार से चल रही है जबकि सरकार के एजेंडे वाले मामले सरपट भागे जा रहे हैं। न्यायिक नियुक्तियों पर कार्यपालिका के प्रभाव ने इस महत्वपूर्ण संस्था की आजादी को और कम कर दिया है जिससे सत्ता पर अंकुश लगाने की इसकी क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं।

मोदी के शासन में भारत में मीडिया को लगातार हमलों का सामना करना पड़ा है। स्वतंत्र पत्रकार और सरकार की आलोचना करने वाले आउटलेट आयकर छापों, कानूनी उत्पीड़न और सार्वजनिक बदनामी के शिकार हुए हैं। प्रेस की स्वतंत्रता पर इस सुनियोजित हमले ने भारत के अधिकतर मीडिया को सत्तारूढ़ दल के मुखपत्र में बदल दिया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बीजेपी आईटी सेल द्वारा संचालित दुष्प्रचार और गलत सूचना अभियानों से भर गए हैं जिससे असहमति जताने वालों के लिए जगह और घट गई है।

सिविल सोसाइटी खास तौर पर इनके निशाने पर रही है। सरकार की नीतियों को चुनौती देने वाले गैर सरकारी संगठनों और ऐक्टिविस्टों को विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) जैसे कानूनों के माध्यम से कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है। ऐक्टिविस्टों, शिक्षाविदों और छात्रों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार देकर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे कठोर कानूनों के तहत जेल में डाला गया। दिवंगत स्टेन स्वामी, सुधा भारद्वाज और उमर खालिद जैसे लोगों को जिस तरह लंबे समय तक जेल में रखा गया है, वह बताता है कि मोदी शासन असहमति की आवाज को दबाने और खौफ पैदा करने के लिए किस तरह कानून का इस्तेमाल औजार की तरह करता है। 


मोदी की आर्थिक नीतियां भी उतनी ही विनाशकारी रही हैं। 2016 की नोटबंदी ने लाखों भारतीयों के लिए बेइंतहां मुश्किलें पैदा कीं। आम लोगों ने जो भी थोड़ी-बहुत बचत कर रखी थी, वह खत्म हो गई और अनौपचारिक क्षेत्र को अपंग बना दिया गया। खराब तरीके से लागू किए गए जीएसटी ने आर्थिक असमानता को बढ़ा दिया और अनगिनत छोटे व्यवसायों को बंद कर दिया। कोविड-19 महामारी के दौरान सरकार की तैयारियों की कमी के कारण प्रवासी मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया और उनमें से कितने ही लोगों को सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल तय कर अपने गांव लौटना पड़ा। ये विफलताएं उस सरकार की पोल खोलकर रख देती हैं जो ठोस काम करने की जगह दिखावे पर ज्यादा ध्यान देती है।

मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्व की विचारधारा ने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की बुनियाद ही खिसका दी है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) जैसी नीतियों ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव को संस्थागत बना दिया है। बीजेपी नेताओं के भड़काऊ भाषणों और सांप्रदायिक हिंसा को सरकार की मौन मंजूरी का असर यह हुआ है कि समाज में खौफ और विभाजन का माहौल गहरा हो गया है। नफरती अपराधों और लिंचिंग की घटनाओं पर मोदी का मुंह सील लेना बहुलवाद के प्रति शत्रुतापूर्ण माहौल को बढ़ावा देने में उनके शासन की मिलीभगत को बताता है। 

भारत का चुनावी लोकतंत्र व्यवस्थित क्षरण से अछूता नहीं रहा है। भारत का चुनाव आयोग जो कभी दुनिया की ईर्ष्या का विषय था, अब काफी हद तक मोदी शासन का रबर स्टैंप बनकर रह गया है। चुनावी बॉन्ड ने अपारदर्शी राजनीतिक फंडिंग को बढ़ावा दिया और इसका बेतहाशा फायदा बीजेपी को मिला और इसके कारण नीति निर्माण पर कॉरपोरेट प्रभाव को लेकर चिंताएं बढ़ गई। ईडी और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों को विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे चुनावी मुकाबला असमान हो गया है। इन सबके कारण लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और अखंडता बुनियादी रूप से कमजोर हो गई है। 

वैश्विक स्तर पर, बहुलवादी और लोकतांत्रिक समाज के रूप में भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। मानवाधिकारों के उल्लंघन, प्रेस की आजादी को कुचलने और अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेलने की रिपोर्टों को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी आलोचना हुई है। फिर भी, इन खतरनाक प्रवृत्तियों के बावजूद, भारतीय लोकतंत्र को वापस पटरी पर लाने की उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं।


राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी फिर से खड़ी हुई है और खास तौर पर विपक्ष के नेता के रूप में राहुल के नेतृत्व में संसदीय प्रणाली मजबूत हुई है और विपक्ष के प्रयासों को एक नई ऊर्जा मिली है। राहुल गांधी ने सरकार के सत्तावादी व्यवहार का खुलकर मुकाबला किया है और महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए सरकार को मजबूर करते हुए वह मोदी के केन्द्रीकृत शासन में कुछ जवाबदेही लाने में सफल रहे हैं। 

विपक्षी दलों के गठबंधन ने यह भी साबित कर दिया है कि बीजेपी का प्रभुत्व चुनौती से परे नहीं है। यह सहयोग, किसानों के विरोध जैसे जमीनी स्तर के आंदोलनों की सामूहिक शक्ति के साथ मिलकर, सत्तावाद का विरोध करने की क्षमता को उजागर करता है। हालांकि इस उम्मीद को साकार करने के लिए मतदाताओं, सिविल सोसाइटी और राजनीतिक दलों को बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति के खतरों के प्रति सतर्क रहना होगा। बीजेपी की रणनीति सामाजिक विभाजन का फायदा उठाने की होती है और ध्रुवीकरण को गहरा करती है, जिससे न केवल भारतीय लोकतंत्र के विनाश का जोखिम है, बल्कि राष्ट्र की एकता के मूल ढांचे को भी खतरा है।

भारत के लोकतंत्र के पुनर्निर्माण के लिए कई तरफ से कोशिशों की जरूरत है। नागरिकों को विभाजनकारी बयानबाजी को खारिज करने और मतदान से लेकर नेताओं को जवाबदेह ठहराने तक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने की जरूरत है। सिविल सोसाइटी संगठन अपने महत्वपूर्ण काम को जारी रख सकें, इसके लिए उन्हें ठोस समर्थन की जरूरत है जबकि मीडिया को सरकार के मुखपत्र के बजाय एक प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका को पुनः हासिल करना चाहिए। स्वतंत्रता और जवाबदेही सुनिश्चित करने वाले न्यायिक सुधार कानून के राज में विश्वास बहाल करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

लोकतंत्र को वापस पाने की कोशिशों में आर्थिक न्याय भी केंद्र में होना चाहिए। असमानता को कम करने, रोजगार सृजन करने और सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियां असंतोष के मूल कारणों को संबोधित करने के लिए जरूरी हैं। इसके अलावा ऐसे लोकतंत्र को गढ़ने में जो समावेशिता, समानता और न्याय को प्राथमिकता देता हो, भावी भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले युवाओं की सक्रिय भागीदारी जरूरी है। 

आगे की राह चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन ऐसी नहीं कि उस पर चला नहीं जा सके। अपने मूलभूत सिद्धांतों के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता और सत्तावादी प्रथाओं को अस्वीकार करने के साहस के साथ, भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से मजबूत हो सकता है। सवाल यह नहीं है कि क्या लोकतंत्र को संरक्षित किया जा सकता है, बल्कि यह है कि क्या हम, एक राष्ट्र के रूप में, इसके लिए लड़ने का संकल्प रखते हैं? 

(अशोक स्वैन स्वीडन की उप्सला यूनिवर्सिटी में पीस एंड कॉनफ्लिक्ट रिसर्च के प्रोफेसर हैं।)

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