उत्तराखंड में बढ़ती आपदा की घटनाएं प्रकृति का कोप या इंसान की नासमझी?
विभीषिका का सही-सही आकलन अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन प्रत्यक्षदर्शी और अधिकारी इसकी तुलना 2021 की चमोली आपदा से कर रहे हैं, जब हिमस्खलन के कारण आई बाढ़ ने ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना तबाह कर दी और तपोवन विष्णुगाड बिजली संयंत्र गंभीर क्षतिग्रस्त हुआ।

उत्तराखंड फिर आफत में है। लगातार भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं ने सामान्य जनजीवन ठप कर दिया है। बीते दो महीनों से राज्य एक के बाद एक आपदाओं से जूझ रहा है।
सबसे ताजा घटना 5 अगस्त को हुई। खीर गंगा नदी में अचानक आई बाढ़ गंगोत्री तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित धराली गांव को बहा ले गई। यह गांव अपनी सुरम्य पहचान के लिए चर्चित रहा है।
निकटवर्ती गांव हर्सिल भी तबाही से अछूता नहीं रहा। वहां सेना का बेस कैंप भूस्खलन की चपेट में आया और एक जेसीओ समेत कई सैन्यकर्मी लापता हैं। खबर लिखने तक धराली में चार मौतों की सूचना है और सौ से ज्यादा लोग लापता हैं।
विभीषिका का सही-सही आकलन अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन प्रत्यक्षदर्शी और अधिकारी इसकी तुलना 2021 की चमोली आपदा से कर रहे हैं, जब हिमस्खलन के कारण आई बाढ़ ने ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना तबाह कर दी और तपोवन विष्णुगाड बिजली संयंत्र गंभीर क्षतिग्रस्त हुआ। 200 से ज्यादा लोग मारे गए थे।
शुरुआती रिपोर्टों में धराली-हर्सिल फ्लैश बाढ़ का कारण बादल फटना माना गया, लेकिन उपग्रह डेटा विशेषज्ञों का मानना है कि किसी हिमनद का गिरना या हिमनद झील के फटने से ऊपर की ओर बाढ़ आई होगी। इस आकलन का कारण यह कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के आंकड़ों में धराली के आसपास के प्रभावित क्षेत्र में न्यूनतम और हर्सिल में मात्र 6.5 मिमी वर्षा दर्ज है। आईएमडी के वरिष्ठ वैज्ञानिक रोहित थपलियाल कहते हैं कि इतनी तीव्रता वाली बाढ़ के लिए यह मात्रा नाकाफी है। ज्यादा आशंका यही है कि ग्लेशियर झील का फटना बाढ़ (जीएलओएफ) का कारण बना हो, जैसा कि 2013 की केदारनाथ आपदा के वक्त हुआ था। उत्तराखंड में विभिन्न आकार वाली 1,268 ग्लेशियर झीलें हैं।
जो दिख रहा वह मानव निर्मित आपदा ही है
प्रमुख भूविज्ञानी डॉ. वाई.पी. सुंदरियाल का सवाल वाजिब है कि खीर गंगा नदी के किनारे इतने सारे होटल, होम-स्टे और व्यावसायिक प्रतिष्ठान (45 से ज्यादा) बनाने की अनुमति क्यों दी गई!
सुंदरियाल कहते हैं, “नदियों के बाढ़ वाले मैदानों और जलग्रहण क्षेत्रों में निर्माण कानूनन प्रतिबंधित है, फिर भी पूरे उत्तराखंड में ऐसे अवैध निर्माण जारी हैं। केदारनाथ हो, जोशीमठ या अन्य पहाड़ी शहर हर तरफ दिखता है कि व्यावसायिक हित हावी हैं और पर्यावरणीय मानदंडों पर न्यूनतम ध्यान है।”
परंपरागत रूप से, गांव और शहर नदी तटों से एक निश्चित ऊंचाई और दूरी पर बसाए जाते थे। अब ऐसा नहीं है। लोग भूल गए हैं कि एक नदी देर-सबेर अपने जलग्रहण क्षेत्र में लौटती ही है, जैसा कि 2013 में मंदाकिनी और सरस्वती नदियों के साथ हुआ। सुंदरियाल कहते हैं कि इन पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा भले कम हुई, लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन अप्रत्याशित बढ़ा है, जो जलवायु परिवर्तन जनित आपदाओं का कारण है।
उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के डॉ. जितेंद्र बुनियादी नियमों और विनियमों के क्रियान्वयन में विफलता से क्षुब्ध हैं। किसी त्रासदी के बाद डैमेज कंट्रोल, जिले के अफसरों द्वारा सख्ती से लागू किए जाने और निगरानी किए जाने वाले बुनियादी निवारक कदमों का विकल्प नहीं हो सकता।
विशेषज्ञों ने हिमालय के ऊंचे इलाकों- गौमुख से उत्तरकाशी तक को पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने की मांग की है। लेकिन स्थानीय राजनेता इन युवा पहाड़ों की संवेदनशीलता समझे बिना ‘विकास’ का राग अलापते रहते हैं। यह संकट रातोंरात नहीं बढ़ा, यह इन संवेदनशील इलाकों में अनियंत्रित निर्माण का सीधा नतीजा है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और आर. महादेवन ने हाल ही में (5 अगस्त) हिमाचल सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा- “पर्यावरण और पारिस्थितिकी की कीमत पर राजस्व अर्जन नहीं हो सकता। हालात ऐसे ही रहे, तो दिन दूर नहीं जब पूरा हिमाचल देश के नक्शे से गायब हो जाएगा।” वह सभी हिमालयी राज्यों के लिए ऐसा क्यों नहीं करता- विशेषकर उत्तराखंड के लिए, जो पिछले दो दशकों से ‘विकास’ के बोझ का मारा हुआ है?
पंचायत चुनावों में महिलाओं का दबदबा
उत्तराखंड में पंचायत चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट देने का इतिहास रहा है। हाल ही में हुए त्रिस्तरीय चुनावों के नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं, जिनमें निर्दलीय उम्मीदवारों ने 145, बीजेपी समर्थित को 121 और कांग्रेस समर्थितों को 92 सीटों पर जीत मिली। बीजेपी को भारी जीत की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरअसल, निर्दलीय और कांग्रेस समर्थित निर्दलियों को जोड़ दें, तो यह एक जबरदस्त बीजेपी-विरोधी मतदान है।
इन चुनावों में, खासकर पहाड़ी इलाकों में, एक बड़ा मुद्दा भूमि कानून का शीघ्र क्रियान्वयन था, जो बाहरी लोगों को कृषि भूमि की बिक्री पर रोक लगाता है। ग्रामीण मानते हैं कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार द्वारा बनाए गए इस कानून का ठीक से पालन नहीं हो रहा। देहरादून में महिला कार्यकर्ता चित्रा गुप्ता कहती हैं, “जनता, विशेष रूप से ग्रामीण उत्तराखंड में, उनके अति-केन्द्रीकृत, कॉरपोरेट समर्थक शासन मॉडल से पूरी तरह निराश है।” चित्रा, युवा महिलाओं के बड़ी संख्या में बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ते देखकर बहुत उत्साहित हैं।
एक जबरदस्त उदाहरण राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण के पास, चमोली के सरकोट गांव की प्रधान चुनी गईं 21 वर्षीय प्रियंका नेगी हैं, जिन्होंने तमाम मुश्किलों के बावजूद स्नातक किया और एक अन्य महिला प्रियंका देवी को हराया। 22 वर्षीय साक्षी देहरादून के एक कॉलेज से बीटेक करने के बाद पौड़ी जिले के पाबौ ब्लॉक स्थित पैतृक गांव कुई लौट आईं। 24 वर्षीय रवीना उत्तरकाशी के कोटगांव जखोल वार्ड से जिला पंचायत उम्मीदवार के रूप में जीतीं। अपने प्रचार के दौरान उनका जोर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर करने के दृढ़ संकल्प पर रहा।
नतीजों से उत्साहित कांग्रेस कहती है कि हवा बीजेपी के खिलाफ जा रही है और नतीजे राज्य में व्याप्त खनन और बिल्डर लॉबी के प्रतीक ‘माफिया राज’ के खिलाफ उनकी लड़ाई को मान्यता के तौर पर देखे जा रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस की मुख्य प्रवक्ता गरिमा महारा दसौनी कहती हैं, “राज्य के प्राकृतिक संसाधन सरकार ने निजी पार्टियों को सौंप दिए, जिनकी सत्ता से साठगांठ है। हम इसे तोड़ने को दृढ़संकल्प हैं और आश्वस्त भी कि 2027 के विधानसभा चुनाव के नतीजे हमें सही साबित करेंगे।”
रोपवे बचाएंगे या और बर्बाद कर देंगे?
राज्य सरकार रोपवे के जरिये यातायात की भीड़ कम करना चाहती है। ऐसी ही एक परियोजना अभी देहरादून के पुरकुल गांव से मसूरी के बस अड्डे तक निर्माणाधीन है। यह परियोजना फ्रांसीसी कंपनी पोमा एसएएस और एफआईएल इंडस्ट्रीज लिमिटेड को पीपीपी मॉडल के तहत 350 करोड़ रुपये से अधिक की अनुमानित लागत से सौंपी गई है। इसमें लगभग साढ़े पांच किलोमीटर लंबी हवाई यात्री रोपवे प्रणाली बनाना शामिल है।
इसमें दो टर्मिनल होंगे- एक देहरादून और दूसरा मसूरी में। पुरकुल में 2,000 वाहन क्षमता वाली विशाल दस मंजिला पार्किंग भी होगी। सितंबर 2026 तक चालू होने की उम्मीद है, लेकिन पुरकुल वाले इसके खिलाफ हैं। लेखिका मधु गुरुंग बताती हैं कि पुरकुल देहरादून के बचे-खुचे प्राचीन-शांत इलाकों में से एक है। उनकी चिंता है- “अब बड़े पैमाने पर निर्माण के बीच यह सब खत्म है...। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब यहां रोजाना हजारों कारें पार्क होंगी, तो प्रदूषण और शोर किस स्तर पर होगा?”
यह तो महज एक है… सरकार ने पूरे राज्य में ऐसे 65 रोपवे की घोषणा की है, जिनमें सोनप्रयाग-केदारनाथ और गोविंदघाट-हेमकुंड साहिब को जोड़ने वाली प्रमुख परियोजनाएं शामिल हैं। खरसाली-यमुनोत्री रोपवे को पहले ही मंजूरी मिल चुकी है और काम सौंपा जा चुका है। 1,200 करोड़ वाली इस परियोजना की आधारशिला 2011 में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने रखी थी।
शुक्र है कि इसमें कई साल का विलंब हुआ क्योंकि 3.8 हेक्टेयर घने जंगल की जमीन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) से राज्य पर्यटन विभाग को हस्तांतरित होनी थी।
2020 में, एक बड़ा नीतिगत बदलाव हुआ। एमओईएफ ने रोपवे परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन या वन मंजूरी की बाध्यता खत्म कर दीं। यह फैसला क्षेत्र की पारिस्थितिक नजाकत और भूकंपीय संवेदनशीलता के प्रति सरकार की उदासीनता को पूरी तरह उजागर कर गया।
जोशीमठ-औली रोपवे को ही लें- 4.15 किलोमीटर लंबे और 450 करोड़ रुपये की लागत से निर्मित इस रोपवे का इस्तेमाल जोशीमठ में इसके लॉन्चिंग पैड के आसपास गहरी दरारों के बाद 7 जनवरी 2023 से बंद है। दरारें लगातार गहरी होती जा रही हैं, जो बुनियादी ढांचे से जुड़े जोखिमों को रेखांकित करता है।
मसूरी, नैनीताल समेत ज्यादातर हिल स्टेशन जमीन धंसने की इसी समस्या से जूझ रहे हैं। ऐसे में राज्य कैसे आश्वस्त हो सकता है कि हजारों करोड़ के निवेश वाले ये रोपवे बेकार नहीं हो जाएंगे?
भूकंपविज्ञानी डॉ. राजन के अनुसार, हर घंटे 2,000 से ज्यादा पर्यटकों के आने-जाने की संभावना वाले रोपवे- “मध्य हिमालय की कमजोर चट्टानों वाली इन पहाड़ियों के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त हैं।” वह कहते हैं कि, “अब हिमालय में 100 से ज्यादा रोपवे की बात हो रही है, लेकिन बिना उनके संचयी प्रभाव का अध्ययन किए। रोपवे पर्यटकों को इन पहाड़ी स्टेशनों पर आने को उत्साहित करने के लिए हैं। लेकिन हमारे राजनेताओं को यह समझना होगा कि हम उस मोड़ पर आ गए हैं जहां पर्यटकों की आमद इन पहाड़ियों की क्षमता से कहीं ज्यादा है।”
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