मृणाल पांडे का लेख: लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए आगे आना होगा बौद्धिक तबके को

अभी हाल में जिस तरह से सोशल मीडिया ने हम साधारण मतदाताओं को जितनी गोपनीय जानकारियां जोखिम उठाकर पलक झपकते उपलब्ध करवा दीं, उन्हें देखकर कई बार यह सवाल मन में उठा- क्या लोकतंत्र के जिस खुलेपन और मनुष्य केंद्रित रूप को हम अजर-अमर मानकर चल रहे थे, वह खत्म होता जा रहा है?

फोटो : सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

आने वाले समय की सबसे बड़ी और विश्वव्यापी लडाई तेजी से खुद को हुनरमंद और खुफियागिरी में निष्णात बना रही मशीनों और मानवीय बुद्धि-विवेक और नैतिक मूल्यों के बीच होगी। दुनिया की सबसे बड़ी बेरोजगार, किंतु अकुशल फौज वाले देश की इस जंग में आसानी से जीत होगी, यह चुनावी माहौल में राजनेता भले जो कहें, संभव नहीं है। इसलिए अगर लोकतंत्र औरअभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो बौद्धिक तबके को आगे आकर अपना आलस और मनमुटाव त्यागकर जोखिम उठाते हुए कमान थामनी होगी। समय शुरू होता है, अब!

लोकतांत्रिक हिंदुस्तान के आम मतदाता के मन में भी सामंतवाद और करिश्माती महानायकों को लेकर खिंचाव-अलगाव का एक अजीब-सा रिश्ता रहा है। और यह आज की ही बात नहीं, तीनेक हजार बरसों से भारत पर देश के गिने-चुने दो-तीन फीसदी लोगों का राज रहा। जातिवाद और कुलीनता की हमारी पारंपरिक परिभाषाओं ने उसको लगातार हवा दी। सामंती युग हो या उपनिवेशवादी या लोकतंत्र, अखिल भारतीय रोबदाब रखने वाला भारत का कुलीन वर्ग संस्कृत, फारसी या अंग्रेजी जो भी भाषा बोलता था, वही राजकाज की मुख्य भाषा के रूप में भी मान्य हुई, अधिसंख्य लोग उससे अनजान हों, तो हों। भारत में कम्प्यूटर और नेट की दुनिया में धड़ल्ले से विचरण करने वाले अंग्रेजी बोलने वालों और हिंदी भाषियों के बीच आज जैसी लाग-डाँट है, कभी वैसी ही फारसी और हिंदवी बोलने-लिखने वालों, और उससे भी पहले चले जाएं, तो अपभ्रंश और संस्कृत बोलने वालों के बीच भी थी।

गणतंत्र में इतने बरस तक अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भोगने के बाद यह ठंडे दिमाग से सोचने की बात है कि मजबूत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत वालों के अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ नाखुशी दर्ज कराने को किसी भी तकनीकी या भाषाई माध्यम की रचनात्मकता और क्षमता को नजरअंदाज करते रहने में क्या तुक है? खासकर तब जब सभी महत्वाकांक्षी नागरिक अपने बाल-बच्चों को अंग्रेजी और कम्प्यूटरों का बेहतर उपयोग-उपभोग सिखाने के लिए पेट काटकर पैसा बचा रहे हों? और उस भाषा और तकनीकी के किसी भारतीय मूल के लेखक या खोजकर्ता को नोबेल या बुकर सरीखा पुरस्कार मिलने पर हम सब गर्व महसूस करते हों?

अभी हाल में जिस तरह से सोशल मीडिया ने हम साधारण मतदाताओं को देश की राजनीति, अर्थनीति, खाद्यान्न, पेट्रोलियम पदार्थ या हथियारों की सरकारी खरीद-फरोख्त में मिलीभगत, डाटा चोरी और घोटालों की बाबत जितनी गोपनीय जानकारियां जोखिम उठाकर पलक झपकते उपलब्ध करवा दीं, उन्हें देखकर कई बार यह सवाल मन में उठा- क्या लोकतंत्र के जिस खुलेपन और मनुष्य केंद्रित रूप को हम अजर-अमर मानकर चल रहे थे, वह खत्म होता जा रहा है? क्या भारत का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग और उसके मीडिया का बड़ा भाग, जिसे किसी भी लोकतांत्रिक मुहिम में किसी तरह का घालमेल सहन नहीं होता था, आज दलबदल के उस पाले में जा बैठा है, जो तोताचश्म और दुनियादार है और अपने तथा अपने बच्चों के फौरी भविष्य से आगे की नहीं सोचना चाहता? लिहाजा वह माथे पर तिलक-विलक लगा कर दफ्तर जाने लगा है और उन जगरातों तथा धार्मिक कर्मकांडों में भी जबरन मौजूदगी दर्ज कराने लगा है जहां उसके राजनीतिक संप्रभु मौजूद हों?

यह नहीं कि मौकापरस्ती हमारे राजनीतिक, बौद्धिक तथा आर्थिक जगत के इलीट लोगों में पहले नहीं रही हो। पहले भी थी, लेकिन उस पर गांधी युग की आदर्शवादिता और जन साधारण की राय का अंकुश रहता था। एक तरह से इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की उस तकनीकी ने दुनियाभर में इस वृत्ति को उकसाया है। इसके कामकाज के तीन चरण हैं- वह पहले जीवंत सामाजिकता से लोगों को काटती है; फिर वह सूचना, जानकारी या मनोरंजन से हर गाहक-उपभोक्ता का ध्यान बांधकर निजी डाटा उगलवा लेती है; और अंत में जब गाहक-उपभोक्ता को ऐंद्रिक सुख और भोगवाद का लती बना लिया गया तो उसका सारा निजी डाटा मोटे दाम वसूलकर राजनीतिक या कॉरपोरेट क्षेत्र के व्यापारियों को बेच देती है, ताकि वे उसे अपनी जरूरत और हित के मुताबिक भुनाते रहें। इस तरह हमारे देखते-देखते एक नया मंजर उभरने लगा है, जिसके केंद्र में मनुष्य के उदात्त सामाजिक सरोकार और मानवीय रिश्ते नहीं, नैतिकता की एक नई परिभाषा है जो चार्वाक् की तरह सिखाती है कि मजे से ऋण लो और घी पियो! लोकतंत्र की बाबत सवाल पूछने या राजकाज चलवाने का भरम मत पालो। जब यह सुविधावादी दर्शन समाज को पचने लगे तो फिर एकाधिकारवादी निरंकुशता की बन आती है। यह एक संयोग भर नहीं कि हम दुनिया में ट्रंप, पुतिन, शी, बशर अल असद, मुहम्मद बिन सलमान और अर्डोगान सरीखे एकछत्र निरंकुश नेताओं का उदय होते देख रहे हैं।

इस माहौल में ए.आई. यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि) का उदय भी गौरतलब है। 1997 में शतरंज के रूसी चैंपियन कास्पारोव को मशीन के खिलाफ मात मिली तो बहुत हल्ला मचा था। कौशल और हुनरमंदी में तब से अब तक मशीनें इंसान से बहुत आगे निकलती चली गई हैं। अभी हाल में दो धाकड़ मशीनों ने शतरंज खेली। एक गूगल की एल्फा जीरो और दूसरी स्टॉकफिश-8। इसमें अल्फा जीरो ने कुल चार घंटे में बिना इंसानी मदद के चैंपियन स्तर का खेल सीख लिया था। जीत स्टॉक फिश की हुई, लेकिन अल्फा जीरो तब से खुद को अपनी अल्गोरिद्म में फेरबदल कर खुद को पुनर्प्रशिक्षित करने में जुट गई है। उम्मीद की जा रही है कि हार से सबक लेकर वह अपने को अजेय बना सकती है। क्या आप सोच सकते हैं कि उच्चतम स्तर के हुनर और बौद्धिक क्षमता से लैस और निरंतर खुद को बेहतर बना रही ऐसी धाकड़ मशीनें जब पुलिस, चिकित्सा या बैंकिंग-जैसे क्षेत्रों में मानव जाति से स्पर्धा करेंगी तो क्या हाल होगा?

अगर भारतीय जनता के बीच आज नौकरियों की कमी है, तो हम लोग क्यों नहीं मनुष्यों के ऐसा या इससे भी बेहतर प्रशिक्षण आयोजित करने का बीड़ा उठाते हैं? पर बुनियादी शिक्षा पर ही क्षुद्र विवादों और उठापटक में व्यस्त सरकारें और ठलुए अधिकारियों की विशाल फौज के बीच ऐसी योजनाओं को प्रायोजक नहीं मिलेंगे? साम्राज्यवादी पूंजीपति धड़े के लिए निजी क्षेत्र में छोटी और बेहद कुशल टीमों को सोचने वाली मशीनों के साथ जोड़कर कम खर्च बाला नशीं बनने का यह स्वर्णिम अवसर है। वे भला यूनियनबाजी करने वाले, तरह-तरह के लोन और छुट्टियां मांगनेवाले मानवीय कामगारों को क्यों अलग से लगातार कार्यशाला चलाकर शिक्षित करें?

धनकुबेरों से भर झोली विज्ञापन पाने की एवज में समाज के मूक वर्गों की आवाज की सटीक अभिव्यक्ति अथवा कामगारों के हितों का परचम उठाना मीडिया वैसे भी लगभग बंद कर ही चुका है। यदि उत्पादन की सरकारी कसौटी पर वह माल बेहतरीन और सकल आय में वृद्धिकारक है, तो फिर शासन के शीर्ष पर काबिज तानाशाहों को भी इससे क्या तकलीफ हो सकती है?

लेकिन त्रेतायुग में हमारे यहां वायुयान थे और हमारे लिच्छवि गणतंत्र में यह होता था, वह होता था जैसी लचर मानसिकता छोड़कर हमको अब यह मानना होगाः एक-कि प्रजातंत्र अपनी वर्तमान शक्ल में हमारे यहां ब्रिटेन से, बरास्ते अंग्रेजी आया है। लिहाजा हम चाहें या नहीं, पाश्चात्य लोकतंत्रों में नई तकनीकी से क्या कुछ हो रहा है, इसकी खोज-खबर रखना हमारे लिए भी जीने-मरने का सवाल होना चाहिए, क्योंकि जल्द ही यह सब स्मार्ट फोन की तरह हमारे यहां भी आ पहुंचेगा। 1947 में हमारी 32 करोड़ की आबादी का नब्बे फीसदी भाग निरक्षर था। स्कूलों में पढ़ रहे अधिकांश बच्चों के अभिभावकों की सबसे बड़ी मांग अंग्रेजी पढ़ाई की है। क्या अब भी हम ज्ञान को प्रादेशिक और रोजगारविमुख बनाए रखने की जिद पाल सकते हैं? ज्ञान के अंतरराष्ट्रीयकरण के युग में अंग्रेजी सायास बाहर रखने से हमारे साक्षर युवा ही नए रोजगारों से महरूम न होंगे, रोजी-रोटी कमाने के लिए परदेस या दूरदराज के अहिंदीभाषी क्षेत्रों में जा रहे भारतीय भी जरूरी बातचीत और कामकाजी रिश्ते कायम करने से रह जाएंगे।

विगत में मुट्ठीभर सवर्णों की भाषा कहलाने वाली संस्कृत ने पूरे देश को सांस्कृतिक रूप से बांधे रखा था, पर आज अंग्रेजी को हम भले ही म्लेच्छ भाषा मानें, क्या उसके बिना शेष दुनिया और अहिंदीभाषी भारतीयों से हमारा सार्थक संवाद संभव है? आज की तारीख में कितने नए वर्गों को आरक्षण मिले और सरकारी नौकरियां कैसे गांव-देहात के लड़के-लड़कियों को मिलें, इसका ईमानदार जवाब होगा कि नौकरियों का स्वरूप और उत्पादन का तरीका ही बुनियादी तरह से अब इतना बदल रहा है कि कुछ ही सालों में ब्रह्मा भी पुरानी उम्मीदों के अनुसार नई सरकारी या गैरसरकारी नौकरियां सृजित नहीं कर सकेंगे। इसलिए आज राम का मंदिर या मूर्ति कब या किस आकार में बने, इस पर रक्तपात या आत्मदाह से बेहतर होगा कि हम देश के अनमोल डाटा की कीमत सही समय पर सही तरह से समझें और अपने देश का कीमती नागरिक डाटा महाजनी हाथों में बिकने के लिए न जाने दें। आने वाले समय की सबसे बड़ी और विश्वव्यापी लडाई तेजी से खुद को हुनरमंद और खुफियागिरी में निष्णात बना रही मशीनों और मानवीय बुद्धि-विवेक और नैतिक मूल्यों के बीच होगी। दुनिया की सबसे बड़ी बेरोजगार, किंतु अकुशल फौजवाले देश की इस जंग में आसानी से जीत होगी, यह चुनावी माहौल में राजनेता भले जो कहें, संभव नहीं है। इसलिए अगर लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो बौद्धिक तबके को आगे आकर अपना आलस और मनमुटाव त्याग कर जोखिम उठाते हुए कमान थामनी होगी।

समय शुरू होता है, अब!

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