आज सिर्फ सेंसरशिप नहीं है, मीडिया और लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है

हिटलर और गोएब्ल्स की जोड़ी के मीडिया संबंधी प्रयोगों का अनुभव करना हो तो आज की हमारी मीडिया को देख ले। जेएनयू का देशद्रोहियों का अड्डा होना, टुकड़े-टुकड़े गैंग, गांधी के प्रयोग, भगत सिंह को फांसी, गोडसे का देशभक्त होना, गाय का ऑक्सीजन छोड़ना, नए नोट में चिप होना वगैरह इसी का एक्सटेंशन हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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अरविंद मोहन

आजाद भारत में पहली बार लगे आपातकाल, सेंसरशिप और तब दिल्ली समेत बड़े शहरों में डर और पत्रकारिता की स्थिति के बारे में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, जो उसके बाद बनी जनता पार्टी सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री थे, का एक कथन बार-बार उद्धृत किया जाता रहा है कि जब पत्रकारों से झुकने को कहा गया तो वे लेट गए।

अब इस वाक्य को कम याद किया जाता है क्योंकि खुद आडवाणी किस पोजीशन में हैं, यह बताना मुश्किल है। और उनको अब क्या पाने, क्या खोने का डर है जो उन्हें बोलने से रोके हुए है, यह समझना भी मुश्किल है। वह अपनी पारी खेल चुके हैं। वैसे, वह कोई बयान दें, तब भी मीडिया और मुल्क की राजनीति की मौजूदा स्थिति पर ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। पर मुल्क और मीडिया में जो भय व्याप्त है, वह भारी नुकसान कर रहा है। और अब कोई यह उम्मीद करे कि अखबार का कोई हिस्सा काला करके सामने आए, कोई खाली छूटा दिखे, रात को हर खबर सेंसर अधिकारियों को दिखाने की मजबूरी हो, तभी सेंसरशिप है, तो वह दौर बीत गया है। आज सिर्फ सेंसरशिप नहीं है, मीडिया और लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है।

मीडिया का समाज, लोकतंत्र और पब्लिक ओपिनियन बनाने में एक रोल होता है। और हमारे यहां तो खबर का, अफवाह का, हवा बनाने-बिगाड़ने का महत्व जमाने से जाना जाता था। पश्चिम के लोगों को इसका महत्व दूसरे विश्व युद्ध के समय हिटलर और गोएब्ल्स की जोडी के कारनामों को देखने-भुगतने के बाद समझ आया। इसलिए आश्चर्य नहीं कि आज मीडिया स्टडीज का सबसे व्यवस्थित अध्ययन जर्मन विश्वविद्यालयों में ही हो रहा है। अगर इसी को हिटलर और गोएब्ल्स की जोड़ी के मीडिया संबंधी प्रयोगों का अनुभव करना हो तो आज की हमारी मीडिया को देख ले।

जेएनयू देश द्रोहियों का अड्डा है, खान मार्केट से कोई गैंग ओपिनियन बनाने का काम करता है, कोई टुकड़ा-टुकड़ा गिरोह है जो मुल्क को बांटना चाहता है। इस सूची में गांधी के सेक्स प्रयोग, भगत सिंह को फांसी दिलवाना, गोडसे का देशभक्त होना, नेहरू का मुसलमान मूल-जैसे पचासों और झूठों को शामिल कर लीजिए। गाय का ऑक्सीजन छोड़ना, नए नोट में चिप होना वगैरह इसी का एक्सटेंशन हैं। और देश का एक बड़ा वर्ग अगर इस पर भरोसा कर रहा है और इसके चलते बीजेपी को लाभ मिल रहा है तो यह सिर्फ मोदी-शाह की जोड़ी का कमाल नहीं है।


बीजेपी और जनसंघ सदा से मीडिया में घुसपैठ करने, उसके जरिये अपने राजनैतिक एजेंडे और शासन को आगे बढ़ाने की रणनीति से काम करते रहे हैं। जब आडवाणी जनता पार्टी शासन के समय जनसंघ कोटे से सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बाजाप्ता योजना बनाकर संघ के कई लोगों को प्रमुख अखबारों और रेडियो में भर्ती कराया गया। एकाध जगह तो इस तरह अखबार ज्वाइन करने वाला या वाली को अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख अपनी गाड़ी से अखबार के दफ्तर तक छोड़ने गए।

जब संघ परिवार का बाबरी मस्जिद विरोधी आंदोलन चला, तब ऐसे लोगों ने काफी सेवा की। संघ के बाकी मुद्दों को जिंदा रखने और आगे बढ़ाने में भी इनकी भूमिका रही। वीपी सिंह वाले दौर में तो रोज सुबह से एक ही कोरस चलाने का अभियान चला जिसमें गणेश प्रतिमाओं के दूध पीने-जैसी अफवाह के जरिये अपने राष्ट्रव्यापी नेटवर्क की जांच भी की गई। इन सबके ‘सहारे’ किस तरह बीजेपी सत्ता तक आई और इस क्रम में क्या-क्या हुआ, मोदी और उनकी मंडली ने किस तरह तकनीक, पूंजी और मीडिया (जिसके सहारे यूपीए के ‘भ्रष्टाचार’ का बाजा काफी बजा) के सहारे सत्ता हासिल की, वह कहानी काफी लंबी है और दोहराने की जरूरत नहीं है।

पर चालाक मोदी ने चुनाव हारे और अपना आभा मंडल गंवा चुके अरुण जेटली को एक साथ वित्त और सूचना-प्रसारण मंत्री बनाकर जो दांव चला, वह कितना असरदार था, इसका अंदाजा तक किसी को न था। जेटली ने मोदी के इस उपकार के बदले जबरदस्त सेवा की। सारे पत्रकारों और मीडिया हाउसों के ‘मूल्यांकन’, उनकी ग्रेडिंग, उनमें अपने लोग बैठाने, जरा भी शक वाले को बाहर करने या अप्रभावी करने से लेकर तीनों सरकारी चैनलों में पूरी तरह संघ की जमात खड़ी कर दी। वित्त मंत्रालय हाथ में होने से मीडिया हाउस के लालाओं को लाइन पर लाना सुगम हो गया।


किसी एक एनडीटीवी, एक आउटलुक, किसी एक नेशनल हेराल्ड के खिलाफ ‘मुहिम’ शुरू हुई और सारे लाला लाइन पर आ गए। जो साथ देने लगा, वह मालामाल हुआ। और जो थोड़े से मीडिया हाउस या पत्रकार अड़े, उनको उलझाना, फंसाना और दरकिनार करना कौन-सा मुश्किल काम है। और इसके लिए किस अरुण जेटली की जरूरत रह जाती है?

गौर करेंगे तो पाएंगे कि जो कमेंटेटर या लेखक सरकार के पक्ष में नहीं आ पाए, वे अब दिखते भी नहीं हैं। एक ढंग की बात पर चर्चा नहीं; सरकार ही नहीं, मोदी-अमित शाह का बाल बांका करने वाली या उसके अंदेशे वाली खबर नहीं। प्रिंट अपने फॉर्मेट से काफी खबरें लेता है, सो इतना गुणगान नहीं हो पाता, वरना टीवी चैनल तो कारगिल विजय दिवस और महबूबा के एक बयान या तीन तलाक बिल या आजम खान के एक बयान पर कई-कई दिन की पूरी चर्चा चलवा देते हैं।

एक मोदी भक्त चैनल के वरिष्ठ पद पर पहुंचे कैरियरिस्ट पत्रकार का कहना था कि सुबह उठने से लेकर रात तक इसी चिंता में लगे रहना होता है कि किस खबर से मोदी-शाह को लाभ हो सकता है। बच्चों की महंगी पढ़ाई, बडा फ्लैट और महंगी कार की किस्त भरने वाले इस पत्रकार को खुद ही समझ नहीं आता कि वे किस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं। पर इस पत्रकारिता से वे समाज, लोकतंत्र, मीडिया का क्या नुकसान कर रहे हैं, यह हल्का आभास ही उनसे यह बयान दिलवा रहा है। पर ज्यादातर लोगों को यह आभास भी नहीं है। और काफी सारे लोग तो बिना संघी हुए सिर्फ कैरियर आगे बढ़ाने की होड़ में इस अभियान में लगे हैं।

इस बीच काफी सारे लोगों को लगा कि तकनीक ने उनके लिए गुंजाइश बना दी है। सो वेबसाइट बनाना, ब्लॉग चलाना, यू-ट्यूब के माध्यम से वीडियो अपलोड करके अपनी पत्रकारिता चलाने की मुहिम काफी सारे पत्रकारों ने शुरू की। यूपीए राज में नेट और सेटेलाइट लिंक सुलभ होने से कई ‘उद्यमशील’ पत्रकार चैनल मालिक बन गए थे। सो वेबसाइट और ब्लॉग के सहारे मीडिया मालिक बनने का सपना भी इसमें शामिल था और है। पर मोदी ने जिस आसानी से यू-ट्यूब समेत ऐसे सबकी कान उमेठकर सीधा किया और जिस अनुपात में ये नेट कंपनियां राजस्व का हिस्सा वसूल रही हैं, वह जल्दी ही सारी उम्मीदों पर पानी फेर देता है।


इस बीच प्रोफेशनल चैनलों की मोदी भक्ति को पर्याप्त न मानने वाले मोदी ने खुद चुनाव भर नमो चैनल चलवाकर अपना काम निकाल लिया। बहुत साफ है कि सरकारी विज्ञापन देने और रोकने का खेल जारी है, पर बाजार से शीर्षासन कराना उससे भी आसान है।

पत्रकारिता पर शासन का दबाव बढ़ता गया है। केंद्र सरकार या केंद्र में शासन करने वाले जमात का ही नहीं, राज्यों की सरकारों और प्रभावी दलों का दवाब भी कम नहीं है।

यही हाल पूंजी का है। अब राजा-महाराजा या साहित्य प्रेमी या प्रेस जैसे दूसरे कारोबार वाले शौकिया या समाज-राष्ट्र की चिंता से मीडिया के धंधे में नहीं आए हैं। अब तो रोज पूंजी चाहिए और रोज नए मालिक आते हैं, उनकी नई-नई आकांक्षाएं सामने आती हैं। बल्कि हर पल विज्ञापन और स्पान्सरशिप का दबाव है। ऐसा ही दबाव तकनीक भी पैदा करती है ।और ये बदलती मीडिया को और अपनी तरफ ले जा रही हैं ।

खैर यही है कि अभी तक न तो किसी सरकार का मीडिया वेंचर सफल रहा है न सिर्फ पूंजी वाले ही सफल हुए है। तकनीक इस मामले में और कमजोर है। सो, अगर इन तीनों, और इस-जैसी अनेक दूसरी सहयोगी चीजों से काम करने वाले भी सचेत और दमदार हों, तो काम काफी हद तक पटरी पर रह सकता है। और सच किसी भी तरह सामने आ जाए तो उसे झूठ की चादर ढंक नहीं सकती। पर अगर मीडिया के गुमनाम खिलाड़ी कमजोर पड़ते जाएं तो हालत बदतर होती जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस लेख में दिए विचार उनके हैं)

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