स्वैच्छिक संस्थाओं के संचालन में बढ़ा सरकार का गैरजरूरी दखल, भविष्य में इन्हें अस्तित्व बनाए रखना होगा मुश्किल

स्वैच्छिक संस्थाओं के संचालन में सरकार के अनावश्यक दखल को इस हद तक बढ़ा दिया गया है कि अनेक स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए भविष्य में अपना अस्तित्व बनाए रखना भी कठिन हो सकता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

हाल ही में केन्द्रीय सरकार ने विदेशी देन नियंत्रण अधिनियम (एफसीआरए) में जो संशोधन किए हैं उनका व्यापक विरोध हुआ है। इन संशोधनों ने स्वैच्छिक संस्थाओं के संचालन में सरकार के अनावश्यक दखल को इस हद तक बढ़ा दिया गया है कि अनेक स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए भविष्य में अपना अस्तित्व बनाए रखना भी कठिन हो सकता है। विशेषकर अनेक छोटी स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए व पैरवी/जन-अभियान के कार्य में लगी स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए अधिक कठिनाईयां उपस्थित हुई हैं।

इसे सभी स्वीकार करते हैं कि विदेशी अनुदानों के मामले में पारदर्शिता होनी चाहिए पर यह एनजीओ के संदर्भ में पहले से मौजूद थी और विभिन्न एनजीओ को इस बारे में पूरी जानकारी सरकार को पहले ही नियमित उपलब्ध करवानी पड़ती थी कि कहां से कितने संसाधन प्राप्त हुए हैं। कोई भी अतिरिक्त जानकारी सरकार को प्राप्त करनी हो तो इसके लिए भी उसके पर्याप्त व्यवस्था मौजूदा थी। यदि सरकारी जांच में विदेशी धन का कोई दुरुपयोग नजर आए तो उसके विरुद्ध कार्यवाही करने की व्यवस्था भी सरकार के पास मौजूद थी। अतः इन संशोधनों का कोई औचित्य अभी स्पष्ट नजर नहीं आ रहा है।


किसी भी लोकतंत्र में एनजीओ क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण योगदान को मान्यता मिलती है और इस लोकतांत्रिक भूमिका को निभाने के लिए स्वैच्छिक संस्था को अपने कार्य स्वतंत्र रूप से करने के लिए पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए। पर जो संशोधन हाल में किए गए हैं वे स्वैच्छिक संस्थाओं के कार्य करने की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करते हैं और इसके लिए ऐसे तौर-तरीके अपनाते हैं जिनका मकसद कतई स्पष्ट नहीं है कि इससे किस तरह का राष्ट्रीय हित प्राप्त होगा।

उदाहरण के लिए, संशोधन द्वारा यह कहना कि विदेशी देन प्राप्त करने वाली संस्था को दिल्ली के किसी विशिष्ट बैंक की इकाई में अपना खाता खोल कर यह देन प्राप्त करनी होगी। आधुनिक बैंकिंग की आज की व्यवस्था में कोई धनराशि देश में कहीं भी स्थित बैंक में प्राप्त की गई हो इसका विवरण कहीं भी प्राप्त हो सकता है। तिस पर सारी जानकारी सरकार को उपलब्ध करवाने का प्रावधान तो पहले से मौजूद है। अतः यह स्पष्ट नहीं है कि इस तरह के संशोधन से सरकार किस तरह के ‘राष्ट्रीय हित’ को प्राप्त करना चाहती है।

इसी तरह स्वैच्छिक संस्थाओं को यह कहना कि प्रशासनिक खर्च में वह इतने प्रतिशत से अधिक व्यय नहीं कर सकती है या वह आगे अन्य संस्थाओं को संसाधन उपलब्ध नहीं करवा सकती है (रीग्रांट), यह सब स्वैच्छिक संस्था के कार्य में एक अनावश्यक दखल है। इससे यह तथ्य सामने आता है कि एक खुले लोकतांत्रिक माहौल में अपनी लोकतांत्रिक भूमिका को निभाने की जगह स्वैच्छिक संस्थाओं को नहीं दी जा रही है या उनसे छीनी जा रही है।


यह ध्यान में रखना चाहिए कि कुछ वर्ष पहले तक भारत की चर्चा यहां की अनेक स्वैच्छिक संस्थाओं के रचनात्मक योगदान के रूप में विश्व स्तर पर होती थी और इस दृष्टि से भारत को एक समृद्ध लोकतंत्र माना जाता था। भारत की यह प्रतिष्ठा बनी रहे, इसके लिए केन्द्रीय सरकार को हाल के संशोधन वापस ले लेने चाहिए।

यदि सरकार को किसी संशोधन की जरूरत अनुभव होती है, तो उसे स्वैच्छिक संस्थाओं से इस बारे में पहले व्यापक विमर्श करना चाहिए। ऐसे विमर्श से ही पता चल सकता है कि इस बारे में स्वैच्छिक संस्थाओं का क्या विचार है, उन्हें किस तरह की कठिनाईयां आ सकती हैं। हो सकता है कि जितनी कठिनाईयां आज स्वैच्छिक संस्थाओं को इन संशोधनों से आ रही हैं, उसका पूरा अंदाजा उन सरकारी अधिकारियों को भी न रहा हो जिन्होंने इन संशोधनों का मसौदा तैयार किया। अतः जरूरी है कि सरकार पहले स्वैच्छिक संस्थाओं से व्यापक और निष्ठापूर्वक विमर्श करे, तभी कानूनों को बदले।

ध्यान रहे कि इन नए संशोधनों के बिना भी यदि सरकार किसी भी संस्था को राष्ट्रीय हित के विरुद्ध कार्य करता हुआ पाती है तो वह सदा उसकी जांच कर सकती है और जांच में दोषी पाए जाने पर आगे कार्यवाही कर सकती है। पर यह सब कार्यवाही किसी बदले या उत्पीड़न या लोकतंत्र के दमन की तरह की नहीं होनी चाहिए।

एमनेस्टी संस्था से यदि सरकार की राय मेल नहीं रखती थी तो लोकतांत्रिक विमर्श में सरकार लोगों के सामने स्पष्ट कह सकती थी कि एमनेस्टी ने क्या गलत किया है और उसे आगे अति सावधान रहने चाहिए। पर सरकार ने इतनी कड़ी कार्यवाही की कि एमनेस्टी को भारत में अपना कार्य ही बंद करना पड़ा और इस स्थिति की दुनिया के अनेक देशों में निंदा हुई। अब तो आगे के लिए बस उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में स्वैच्छिक संस्थाओं की लोकतांत्रिक भूमिका के प्रति सरकार अधिक सम्मान दर्शाएगी। सरकार को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि देश के अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने इन संशोधनों को अनुचित बताया है और इस विरोध के स्पष्ट कारण भी बताए हैं।

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