विष्णु नागर का व्यंग्य: शर्म का आना राजनीतिक रूप से घातक, सफल होने के लिए बेशर्म होना जरूरी!

सवाल यह भी है कि शर्म आना आवश्यक क्यों है? आज तक फर्जी राष्ट्रवादियों को कभी किसी बात पर शर्म आई? आजादी की लड़ाई का विरोध करने पर आई थी! नाथूराम गोडसे को गांधी जी की हत्या से पहले या बाद आई थी।

फोटो: सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

हम कह तो देते हैं कि इन्हें शर्म बिलकुल नहीं आती मगर इन्हें शर्म आए तो आए, कहां से? क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा में इतनी ताकत नहीं कि इन्हें शर्मसार कर सके! इनका ईश्वर इन पर दयालु है मगर इतना नहीं कि ये मांगे नफरत और वह इन्हें शर्म दे! टोने- टोटकों, काले जादू से भी यह हासिल होती नहीं। ज्ञान-विज्ञान से भी इसमें मदद नहीं मिलती। बाबा रामदेव की फैक्ट्री में इसका उत्पादन होता नहीं। पाकिस्तान से यह आ नहीं सकती, वहां  भी इसका अकाल है। चीन हमारी हजारों  किलोमीटर जमीन दबा कर बैठा है और हमारी ओर से कहा जाता है कि न कोई घुसा है, न कोई घुसा बैठा है! वे चुनौती देते हैं कि होगी तुम्हारी जमीन, तुम हमें निकालकर तो दिखाओ! हमारी सरकार चूंकि कट्टर राष्ट्रवादी है, इसलिए वह ऐसी फालतू बातों से शर्मसार नहीं होती! बचा अमेरिका। वह हमें गाहेबगाहे शर्म दिलाने से बाज नहीं आता मगर वह खुद इतना बेशर्म है कि इसका हम पर असर नहीं होता! उसका ऐसा कोई  इरादा भी नहीं। जस्ट फार रिकार्ड सेक! शर्म का व्यापार वह बहुत बेशर्मी से करता है।

शर्म को कहीं से खींच कर, बहला- फुसलाकर, लालच देकर, पद देकर लाया नहीं जा सकता। इसकी चोरी भी संभव नहीं। बाजार का बहुत विकास हो चुका है मगर उसका इतना विकास भी नहीं हुआ है कि यह माल में मिल सके। अमेज़न इसका आर्डर लेता नहीं। और सच यह भी है कि आजकल इसकी किसी को खास जरूरत भी नहीं। बेशर्मी से सफलतापूर्वक काम चल रहा है। बेशर्मी कुछ को पारिवारिक दाय के रूप में मुफ्त मिल जाती है। कुछ में इसकी जन्मजात प्रतिभा होती है। कुछ इसे बहुत जल्दी अर्जित कर लेते हैं और सुख से जीते हैं!


सवाल यह भी है कि शर्म आना आवश्यक क्यों है? आज तक फर्जी राष्ट्रवादियों को कभी किसी बात पर शर्म आई? आजादी की लड़ाई का विरोध करने पर आई थी! नाथूराम गोडसे को गांधी जी की हत्या से पहले या बाद आई थी। इस हत्या को वध कहकर मिठाई बांटनेवालों को आई थी? फिर 1992 आया। जिन्हें बाबरी मस्जिद गिराने पर शर्म आना चाहिए थी, उन्हें हिंदू गौरव की अनुभूति हुई थी। फिर 2002 आया। गुजरात हत्याकांड में करीब 1100 लोग मार दिए गए पर तब के मुख्यमंत्री समेत किसी को शर्म नहीं आई थी, अलबत्ता गौरव की अनुभूति की मात्रा बहुत बढ़ गई थी! वैसे जिन्हें अदालत शर्म दिला नहीं पाई, उन्हें शर्म आए भी क्यों? जिन्हें शर्म नहीं आई, वे बहुत ज्यादा राजनीतिक फायदे में रहे! जिन्होंने शर्म दिलाई, वे जेलों मे हैं। इन चंद उदाहरणों से सिद्ध है कि शर्म का आना जरूरी नहीं है बल्कि आना राजनीतिक रूप से घातक है। फायदा इसमें है कि किसी भी बात पर, कभी भी, कहीं भी शर्म नहीं आए! शर्म का आना अब शर्मनाक हो चला है। ऐसे लोगों पर अब दूसरे थूकते हैं!

वैसे शर्म न आना दुर्भाग्य से हमारी अपनी गौरवशाली राष्ट्रीय सांस्कृतिक -राजनीतिक परंपरा नहीं है! यह ग्लोबल  है। नीरो को नहीं आई थी, हिटलर और मुसोलिनी को नहीं आई थी और उनका नाम इसी कारण आज जिंदा है। जलियांवाला बाग के लिए जनरल डायर को नहीं आई थी, वह भी हमारी स्मृतियों में जिंदा है। महानता के रास्ते पर चलना आसान नहीं है। जब गैसचैंबरों और हत्याकांडों के जरिए दुनिया में नाम कमाना आसान, सस्ता और टिकाऊ हो चुका है तो कोई महान बनकर क्या करे, क्यों हत्यारों की गोली खाए? अब गांधी हैं नहीं मगर नाथूराम गोडसे गली-गली में हैं।

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