विष्णु नागर का व्यंग्य: अंधभक्ति काल में परिभाषा बदली है तो हम भी बदलें!

जिसने समय के नहीं पहचाना, पहचानना नहीं चाहा, ऐसा 'बिगड़ैल' 'चोर' और 'बेईमान' घोषित हो गया। बहुत से ऐसे जिद्दी अभी बचे हैं, जो समय को पहचान कर भी पहचानना नहीं चाहते, 'बेदाग' होने के अवसर का लाभ उठाना नहीं चाहते।

प्रतीकात्मक तस्वीर
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विष्णु नागर

समय बदलता है तो परिभाषाएं भी उलट-पुलट जाती हैं। समय 180 डिग्री बदलता है तो परिभाषाएं भी 180 डिग्री बदल जाती हैं। जैसे एक समय किसी भी सरकार के मंत्रियों , मुख्यमंत्रियों और यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी भ्रष्ट कहना संभव था। खूब शोर मचाया जा सकता था-'गली- गली में शोर है,  फलांने जी चोर हैं'। पहले चोर को चोर कहना तो आसान था ही, ईमानदार को भी 'चोर' अधिक मुश्किल नहीं था। अब तो सरकार पोषित चोर को चोर कहना संभव नहीं है, 'ईमानदार' कहना ही एकमात्र विकल्प है। अगर चोर को 'ईमानदार' कहने की बेईमानी नहीं कर सकते तो फिर चुप रहने से बेहतर कुछ नहीं या फिर इसकी सजा भुगतने के लिए तैयार रहें! इसकी वजह है। कल के उस चोर के पास आज 'ईमानदारी' के सभी संभव- असंभव प्रमाणपत्र मौजूद हैं। सरकार उसकी, सीबीआई, बीडीआई, सीडीआई, डीडीआई, ईडीआई, झेडडीआई सब उसकी। अब उसकी ईमानदारी संदेह से परे है। उसकी बेईमानियों की फाइलें या खो चुकी हैं या जल चुकी हैं। उसकी बेईमानी-चोरी-ठगी की दास्तां अगर कहीं गलती से किसी फाइल में दर्ज है भी तो वह तब तक गुम रहने वाली है, जब तक सरकार द्वारा प्रमाणित ईमानदारों की सूची में उसका नाम रहेगा। वह जरा इधर से उधर हुआ, तो गुम फाइल को मिलने में देर नहीं लगेगी। फाइल खुद चीख-चीखकर कहेगी कि मुझको कहां ढूंढे है बंदे, मैं तो साहेब के यहां हूं! मैं पहले भी यहीं थी, अब भी यहीं हूं। पहले मैं गुम फाइलों की ट्रे में थी, अब मिल चुकी फाइलों की ट्रे में हूं। अभी वहीं रहूं या गुम फाइलों की ट्रे में वापस चली जाऊं!

इस ' ईमानदार' को अदालत भी मान लेती है कि वह पहले भी ईमानदार था, है और रहेगा ,जबकि उसी अदालत  ने उसे कभी जमाने भर का चोर बताया था। उसी ने अब कह दिया है कि उसकी ईमानदारी पर शक करने वाले ही दरअसल चोर हैं। इन्हें तुरंत गिरफ्तार करना पुलिस का नैतिक, आध्यात्मिक और राष्ट्रीय कर्तव्य है वरना ये बाहर रहकर अदालत की मानहानि करते रहेंगे। अब तो सरकार को भी अदालत पैसे की हेराफेरी का दोषी बता दे तो मंत्री हंसते- खिलखिलाते रहते हैं!

अब तो 'चोर' ही ईमानदार हैं और ईमानदार ही 'चोर' हैं। जो इस बीच 'ईमानदार' घोषित हो चुका है, उसके बारे में आप केवल मन ही मन में  यह मान ले सकते हैं कि यह चोर है लेकिन केवल मन ही मन में। यह हर महीने वाली 'मन की बात’ नहीं है। यह मन की वह असली बात है, जो अगर जुबां पर आ जाए तो फिर खैर नहीं!


दरअसल स्थिति में आए इस बदलाव के लिए ये चोर यानी आज के ये 'ईमानदार' दोषी नहीं हैं। यह समय दोषी है। समय को न पहचाननेवाले दोषी हैं। इन पौने  दस  वर्षों को न जानने- समझनेवाले दोषी हैं। जिसने समय रहते, समय को पहचान लिया, वह  फायदे में रहा। वह बेईमान था,

'ईमानदार' हो गया। वह 'देशभक्त' और 'सच्चा हिंदू' हो गया, सनातनी हो गया, रामभक्त हो गया। और भी जो चाहे, जब चाहे वह हो सकता है। मंत्री नहीं तो एम एल ए, एम पी हो सकता है। यह भी नहीं तो जिला पंचायत का अध्यक्ष हो सकता है। एम एल ए का प्रतिनिधि हो सकता है। इस और उस समिति का अध्यक्ष, आयोग का सदस्य हो सकता है। गोभक्त होकर वह कुछ भी कर और करवा सकता है।

 जिसने समय के नहीं पहचाना, पहचानना नहीं चाहा, ऐसा 'बिगड़ैल' 'चोर' और 'बेईमान' घोषित हो गया। बहुत से ऐसे जिद्दी अभी बचे हैं, जो समय को पहचान कर भी पहचानना नहीं चाहते, 'बेदाग' होने के अवसर का लाभ उठाना नहीं चाहते।

'देशभक्तों' की पंक्ति में शामिल होना नहीं चाहते।

उधर आजकल  पार्टी- विशेष की सरकारें, उसके नेता, उसके सांसद, उसके विधायक ,उसके मंत्री, उसके एंकर, उसके पूंजीपति, उसके अफसर आदि प्रयत्न करके भी भ्रष्ट नहीं हो पाते। कितनी ही कोशिश करके उन्होंने देख ली, कितने ही पापड़ बेले मगर नहीं हो पाए भ्रष्ट, तो नहीं ही हो पाए! सिर पटक के रह गए मगर भ्रष्ट होने में सफलता हासिल नहीं कर पाए! बेरहम सरकार ने इन बेचारों से भ्रष्ट होने की सुविधा तक छीन ली है मगर इतना अन्याय सहकर भी ये वीर ' हिंदू हित ' में चुप हैं!

भ्रष्टाचार की परिभाषा बदलती है तो बाकी सारी परिभाषाएं भी बदल जाती हैं। परिभाषाओं को भी आदमियों की तरह अकेलापन अच्छा नहीं लगता। उदाहरण के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लें। सरकारी मान्यता प्राप्त अभिव्यक्ति ही अब लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति है और वह परम स्वतंत्र है। वह संविधान, कानून, सभ्यता और मनुष्यता से परे है,  निर्बाध है, निरंकुश है। वह टीवी, अखबार और सोशल मीडिया तक सीमित नहीं है, वह धमकाने, मारने-पीटने, सिर पर मूतने, गोली मारने तक विस्तारित है। बलात्कार उसी की एक शाखा है। मस्जिद और चर्च तोड़ने के लिए वह स्वतंत्र है। अल्पसंख्यक- बहुल इलाकों में रामनवमी का जुलूस निकालने के लिए वह आजाद है। नरसंहार का आह्वान करने के लिए वह स्वतंत्र है। मुसलमानों से जयश्री राम बुलवाने  के वास्ते वह स्वतंत्र है। जो इन ' स्वतंत्रताओं' को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं मानते, इसके निंदक होते हैं, वे आटोमेटिकली ' 'सांप्रदायिक सद्भाव के दुश्मन ' हो जाते हैं, 'राष्ट्रविरोधी ' हो जाते हैं। उन्हें जेल होती है तो चार साल बाद भी जमानत नहीं मिलती। तारीख पर तारीख आगे बढ़ती जाती है। जमानत मिलती है, तो दूसरा गैरजमानती केस शुरू हो जाता है। वे कुछ भी करें, कुछ भी देखें, सब राष्ट्रविरोधी हो जाता है। उनका सबूत एक काले धब्बे में बदल जाता है।

तो फिर आइए, झंझटों से बचें। परिभाषा बदली है, हम भी बदलें।  

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