विष्णु नागर का व्यंग्य: बात उस युग की, जब ईश्वर भी राजा से डरकर इधर उधर भागते थे!

इस स्थिति में लोग ईश्वर के प्रकट होने की आशा कर रहे थे कि वह आकर पहले की तरह सब ठीक कर देगा, जबकि ईश्वर भी राजा से इतना डरा हुआ था कि सिर पर पैर रखकर इधर-उधर भागा फिर रहा था। पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य।

फोटो: प्रतीकात्मक तस्वीर
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विष्णु नागर

उस युग में झूठे को झूठा कहना तो बेहद खतरनाक था ही, सच्चे को सच्चा कहना उससे भी अधिक डेंजरस था। वह कहनेवाले पर मानहानि का मुकद्दमा ठोंक सकता था। जेल भिजवा सकता था। आदमी को आदमी कहना तक अपराध बन चुका था।

लोग काले को काला कहने से तो पहले भी डरते थे, अब हरे को हरा, पीले को पीला, लाल को लाल कहने से भी डरने लगे थे। इसका यह अर्थ नहीं कि नीले को नीला और सफेद को सफेद कहना सुरक्षित था। गुलाबी को गुलाबी कहना भी कब तक सुरक्षित है और किस दिन के किस क्षण से  यह असुरक्षित हो जाएगा, इसका किसी को पता नहीं था। कब, किस दिन, किस शब्द का अर्थ बदलकर क्या कर दिया जाएगा, यह ईश्वर भी नहीं जानता था,  जिस पर राजा की अटूट आस्था थी। इसी तरह किस दिन, कितने बजे तक राजा को राजा कहना देशभक्ति का पर्याय है, और कितने बजकर, कितने मिनट, कितने सेकंड से उसे सम्राट न कहना, देशद्रोह मान लिया जाएगा, इसकी आशंका से लोग ग्रस्त रहा करते थे।

मान लो, छह महीने पहले घोषित किया गया था कि आज से लहू को लहू नहीं ,फूल कहा जाएगा और इसके अटपटेपन के बावजूद, सबने अंततः इसे स्वीकार कर लिया था और लोगों की आदत लहू को फूल कहने की पड़ चुकी थी। इस बदलाव का छुपा हुआ विरोध भी खत्म हो चुका था, ठंडा कर दिया गया था, तो किसी दिन यह राजाज्ञा जारी हो सकती थी कि आज से लहू को फूल नहीं, भूल कहा जाएगा। ऐसा फूल के अर्थ को आसान करने के लिए किया गया है। जो अब भी लहू को फूल कहेगा, उसे वही सजा दी जाएगी,जो दुश्मन को दी जाती है, उसके धड़ से उसका सिर अलग कर दिया जाएगा।

गाय को पशु कहना तो इतना बड़ा जुर्म था कि इसके लिए कहनेवाले की हत्या करना पुण्य कार्यों की श्रेणी में आ चुका था। गाय चूंकि पहले से ही मां की श्रेणी में थी तो वह बाद में भी मां ही रही। राजा ने इसका अर्थ न बदलने के लिए प्रजा से धन्यवाद देने के लिए कहा और प्रजा की ओर से उसने सब जगह खुद ही लिखवा दिया कि प्रजा, राजा जी को इसके लिए धन्यवाद देती है।


उस युग में कुत्ते को कुत्ता कहने पर हत्या हो सकती थी। अगर उसका मालिक उसे शेरू कह कर पुकारता है तो अनजाने में भी उसे कुत्ता कहने का अधिकार किसी को नहीं था। उसे शेरू न कहने की सजा तय करने का अधिकार शेरू के मालिक को था। उसके द्वारा तय सजा को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। वास्तव में उस देश में उस समय कोई अदालत नहीं थी। जो किसी की किसी बात से आहत हो जाए और राजा ने आहत होने की उसकी हैसियत प्रदान की है तो वह आदमी, वहीं, उसी क्षण दूसरे को मनचाही सजा दे सकता था।

जो कभी अदालत हुआ करती थीं, वे अब गर्व से जेलखाना बना दी गई थीं। वहां कैदी और मुर्गे -मुर्गी साथ रखे जाते थे। वहां कैदियों को कुकड़ूं कूं बोलने का प्रशिक्षण दिया जाता था। इसमें पास होना अनिवार्य था और पास होना आसान नहीं था क्योंकि इसकी परीक्षा स्वयं राजा लेता था। वैसे राजा इतना 'विवेकशील' था कि उसने मुर्गे-मुर्गियों पर ऐसी कोई शर्त नहीं लादी थी।

 'विजनरी' होने के कारण वह जानता था कि मुर्गे-मुर्गियों से यह कभी सधेगा नहीं। और वे राजाज्ञा की पूर्ण अवहेलना करके प्रजा को ग़लत संदेश देंगे!


स्थिति इतनी गंभीर थी कि किसे क्या कहें, क्या न कहें, यह समझ में नहीं आ रहा था,जबकि लोगों को किसी न किसी को कुछ न कुछ कहने की आदत पड़ चुकी थी। शेर को शेर, बकरी को बकरी, आदमी को आदमी कहने की तो ऐसी बुरी आदत थी कि सिर पर लटकती तलवार के बावजूद बीस प्रतिशत तक ही यह सुधरी थी। 80 फीसदी मामलों में सुधार बाकी था।

इस स्थिति में लोग ईश्वर के प्रकट होने की आशा कर रहे थे कि वह आकर पहले की तरह सब ठीक कर देगा, जबकि ईश्वर भी राजा से इतना डरा हुआ था कि सिर पर पैर रखकर इधर-उधर भागा फिर रहा था। उसे यह भी पता नहीं था कि वह किस दिशा में भाग रहा है और कहां पहुंचेगा!

और हुआ यह कि ईश्वर भागते-भागते जहां पहुंचा, वह, वही जगह थी, जहां झूठे को झूठा और सच्चे को सच्चा कहना अपराध था। जहां गाय इतनी मां हो चुकी थी कि पशु नहीं रही थी। इसके बाद क्या हुआ, इसकी खोज अभी जारी है।

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