वक्त-बेवक्त: जनतांत्रिक आकांक्षाओं के छीजने का आक्रामक दौर है यह

जनतांत्रिक कामना के चूसे जाने के तरीके इतने जाने पहचाने हैं और इसके इतने उदाहरण बीसवीं सदी में ही मौजूद हैं कि अपने पहले चरण में ही उसे पहचान लिया जा सकता है। लेकिन दिलचस्प यह है कि प्रायः इन लक्षणों को नज़रअंदाज किया जाता है।

फोटो सौजन्य : barandbench.com
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अपूर्वानंद

भारत के अलग-अलग हिस्सों में राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हुई छापेमारी और गिरफ्तारी के बाद दिल्ली , हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के फैसलों ने एक उम्मीद जताई है। यह भारत की संस्थाओं में अब तक बची रह गई जनतांत्रिक संवेदना के जाग्रत हो उठने और सक्रिय होकर देश को बचा लेने की उम्मीद है। इसके साथ ही देश भर में इन गिरफ्तारियों के खिलाफ जो प्रतिरोध उठ खड़ा हुआ है,उसने भी यह साबित किया है कि जनतांत्रिक शक्तियाँ पस्तहिम्मत नहीं हुई हैं।

प्रेमचंद ने हिटलर के सत्तासीन होने के बाद की जर्मनी को देखते हुए एक आशंका व्यक्त की थी। अगर वह सत्ता में अधिक दिन रह गया तो देश की जनतांत्रिक आकांक्षा को चूस लेगा, “ यदि एक बार नाजी शासन को जमकर काम करने का मौक़ा मिला तो वह जर्मनी के प्रजातंत्रीय जीवन को, उसकी प्रजातंत्रीय कामना को अपनी सेना और शक्ति के बल पर इस तरह चूस लेगा कि फिर पच्चीस वर्ष तक जर्मनी में नाजी दल का कोई विरोधी नहीं रह जाएगा।”

यह बात बड़े मार्के की है। जनतांत्रिक आकांक्षा का छीजना और धीरे धीरे ख़त्म हो जाना कोई अपने आप होने वाली चीज़ नहीं है। वह कामना आपके भीतर होती है और तानाशाह उसे चूस लेता है. फिर आप अपनी प्राणदायक शक्ति से ही वंचित हो जाते है और आपको इसका पता ही नहीं चलता।

तानाशाह को सत्ता में आने देने से हर कीमत पर रोकना इसीलिए ज़रूरी होता है। भारत में सत्तर साल के जनतांत्रिक अभ्यास ने एक तरह का इत्मीनान और लापरवाही भी हमारे भीतर भर दी है। वह यह है कि यह जनतंत्र अपना ख़याल खुद कर लेगा, यह अपने आप चलनेवाली गाड़ी है। लेकिन ऐसे अनुभव पहले भी हुए हैं जब जनतंत्र जनता को फिजूल और तंग करने वाली शै लगने लगा है। वह खुद ही उससे किनारा करने को तैयार हो जाती है। तानाशाह इसकी पूरी तैयारी करता है।

जनतांत्रिक कामना के चूसे जाने के तरीके इतने जाने पहचाने हैं और इसके इतने उदाहरण बीसवीं सदी में ही मौजूद हैं कि अपने पहले चरण में ही उसे पहचान लिया जा सकता है। लेकिन दिलचस्प यह है कि प्रायः इन लक्षणों को नज़रअंदाज किया जाता है। यह कहा जाता है कि यह जो आ रहा है, वह दूसरी जनतांत्रिक शक्तियों की तरह ही है और उसे जनता अगले चुनाव में बाहर कर देगी अगर उसने उसके खिलाफ काम किया।

दिक्कत सिर्फ यह है कि सत्ता मिलने के बाद वह जनता के एक हिस्से को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाता है कि उसका और जनता के उस हिस्से का हित मिलता है और जो भी उसकी आलोचना कर रहे हैं ,वे जनता के उस हिस्से के खिलाफ बोल रहे हैं। इस तरह वह जनतांत्रिक आलोचना के खिलाफ जनता के ही एक बड़े हिस्से को अपनी सेना के रूप में खड़ा कर देता है।

भारत में अभी जो हम देख रहे हैं वह उसी प्रक्रिया का आक्रामक दौर है। जनता को यकीन दिलाने की कोशिश की जा रही है कि देश भर में एक गोपनीय जाल बिछाया जा रहा है और इस साजिश के सरपरस्त वे लोग हैं जो सम्मानित दिखलाई पड़ते हैं, जिनकी सम्माननीयता के कारण उनपर शक बिलकुल ही नहीं किया जा सकता। यह रहस्योद्घाटन भी एकबारगी नहीं किया जाता। इसे धीरे-धीरे किया जाता है जिससे साजिश की जड़ों के गहरे होने का एहसास जनता को दिलाया जा सके।

ढाई साल पहले जब हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के दलित छात्रों पर यह आरोप लगाया गया कि वे छद्म दलित और गुप्त माओवादी हैं तो हममें से अधिकतर का ध्यान उसपर नहीं गया। यह सोचने की जहमत न की गई कि आखिरकार क्यों केंद्र सरकार के मंत्री एक विश्वविद्यालय के छोटे मसले में इतनी दिलचस्पी ले रहे हैं। इस पर भी किसी ने न सोचा कि क्यों इन छात्रों पर यह कहकर हमला किया जा रहा है कि वे दलित हित का अगर ख्याल करते हैं तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आरक्षण की मांग क्यों नहीं करते! यह हमला आज तक जारी है। दलित नेताओं को बार बार चुनौती दी जाती है कि वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की मांग करके दिखाएं !

उसी तरह हमने यह न सोचा कि इन दलित छात्र कार्यकर्ताओं को राष्ट्रविरोधी और जातिवादी क्यों कहा जा रहा है।यह दोतरफा हमला था। एक, दलितों को आरक्षण की भाषा का इस्तेमाल करके समझाना कि ये मुखर दलित युवा वास्तव में उनके पक्षधर नहीं हैं, वे मुसलमानों के लिए काम कर रहे हैं। दूसरे, गैरदलित जनता को समझाना कि ये जातिवादी हैं क्योंकि ये दलित हितों की बात कर रहे हैं।

क्यों हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर केंद्रीय मंत्रियों ने इतना ध्यान दिया? क्यों भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह प्रचार किया जो आजतक जारी है कि विश्वविद्यालय माओवादियों के छिपने की जगह हैं? क्यों पिछले वर्ष यह अभियान चलाया गया कि परिसरों को लाल आतंक से आज़ाद किया जाना चाहिए?

इन प्रश्नों को आज फिर पूछा जाना इसलिए ज़रूरी है कि पिछले दो महीनों से जो छापे पड़ रहे हैं और माओवादी साजिश के पर्दाफाश के नाम पर गिरफ्तारियां हो रही हैं उसकी पृष्ठभूमि लंबे समय से तैयार की जा रही थी। किसी भी आलोचनात्मक दलित स्वर को माओवादी घोषित करके उसे “बदनाम” करने का काम भी लम्बे वक्त से किया जा रहा था।

किसी ने यह भी न पूछा कि माओवादी या नक्सलवादी होना अपने आप में कैसे गुनाह है? जिसपर भी यह आरोप लगा, वह यह कहने में जुट गया कि वह नक्सल या माओवादी नहीं है। तथ्यात्मक रूप से व्यक्ति विशेष के प्रसंग में यह बात सही हो सकती है लेकिन माओवादी होना ही अवैध और गैरकानूनी है, यह जनतंत्रविरोधी तर्क है। लेकिन इसका अभ्यास चूँकि पिछली सरकार ने भी किया है इसे एक कारगर हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना इस सरकार के लिए आसान था।

संतोष की बात यह है कि सभी विपक्षी दलों ने, उन्होंने भी जो वामपंथ विरोधी हैं, इस सरकारी हमले का विरोध किया है। यह भी तसल्ली की बात है कि न्यायपालिका ने सरकार को जवाबदेह बनाने की शुरुआत कर दी है, यानी माओवादी कहते ही कुछ पहले न्यायपालिका में भी जो ठिठकन देखी जा रही थी, उससे वह उबरती दीख रही है। क्या यह जारी रहेगा? यह सब कुछ इस पर निर्भर है कि हम सब कितने सचेत और जाग्रत बने रहते हैं। अब एक भी पल इत्मीनान का नहीं है।

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