आकार पटेल का लेख: 'अमृतकाल' के इतर क्या है न्यू इंडिया का भविष्य!

हिंदू राष्ट्र के विचार से घिरे सभी भारतीयों को खुद से पूछना चाहिए कि क्या उन्हें इस सरकार की जरूरत है या यही चाहिए।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

विचारधाराओं का आमतौर पर एक अंत होता है या फिर एक अंतिम लक्ष्य होता है जहां वे पहुंचना चाहती हैं। मार्क्सवादियों को लगता है कि सरकारें खत्म हो जाएंगी और समुदायों का राज होगा।

दक्षिण एशिया में लोगों को आध्यात्मिक रूप से सरकार द्वारा आधुनिकता से जोड़ने की कोशिश की गई। ऐसा ही पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने किया जब उन्होंने वहां के संविधान में धर्म को शामिल किया और कहा कि संसद के बजाए अल्लाह ही सर्वोपरि है। यह प्रयोग नाकाम हो गया क्योंकि इस रास्ते पर चलने का कोई अंतिम लक्ष्य या मंजिल नहीं थी जबकि पाकिस्तान आध्यात्मिक रूप से काफी बेहतर था और वैज्ञानिक रूप से आधुनिक।

यूरोप में सरकारों का केंद्र बिंदु एक कल्याणकारी सरकार बनाने का रहता है जिसमें लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और पेंशन के साथ ही गरीबों और बेरोजगारी का भी ध्यान रखा जाता है। वहां के लिए सरकारों की मंजिल या अंतिम लक्ष्य ही यही है। कई देशों ने तो सेनाओं को महान बनाने का विचार ही त्याग दिया है और वे प्रभावी रूप से किसी धर्म के पीछे नहीं पड़े रहते। इन देशों के ज्यादातर वोटरों का रुझान विविधता की तरफ होता है, और हमारे ही समय में यूरोप में ये सब होते हुए हम देख भी रहे हैं।

अगर यूनाइटेड किंगडम की बात करें तो इसमें ब्रिटेन में (भारतीय मूल का एक हिंदू), स्कॉटलैंड (पाकिस्तानी मूल का एक मुस्लिम), आयरलैंड (भारतीय मूल का एक ईसाईः और पुर्तगाल (भारतीय मूल का एक ईसाई)  इन देशो के निर्वाचित प्रमुख हैं। हमें इस पर गर्व होता है, लेकिन अगर हम इसे यूरोपीय वोटरों के नजरिए से देखें तो हम थोड़ा असमंडस में होंगे। 2023 के भारत की बात करें तो यह कल्पना करना ही मुश्किल है कि भारत के बहुसंख्यक अपने ही देश के किसी भारतीय अल्पसंख्यक को अपना नेता चुनेंगे।

लेकिन बाकी दुनिया का अधिकांश हिस्सा वास्तविक अर्थों में आधुनिक है और केवल स्वीकारोक्ति के आधार पर मतदान नहीं करता है। एक बार फिर दोहरा देते हैं कि यूरोप में भारतीय और पाकिस्तान मूल के देसी नेता मतदाताओं के बीच कुछ हद तक इसलिए भी लोकप्रिय हैं क्योंकि वे दूसरे समुदाय या, दूसरी जाति से हैं। शायद यह धार्मिक / जातीय अंतर है जो महत्वपूर्ण है क्योंकि इन देशों में कई मतदाताओं के लिए विविधता न केवल महत्वपूर्ण बल्कि आकर्षक है, यह कुछ ऐसा है जिसकी आकांक्षा की जानी चाहिए।


आइए अब 'मदर ऑफ डेमोक्रेसी यानी लोकतंत्र की जननी' की ओर मुड़ते हैं। बाहरी लोगों के लिए, भारत की राजनीति जीवंत लेकिन आदिवासी प्रकृति की है। यहां मजबूत समूह निष्ठा के साथ ही संदेह भी है और अक्सर दूसरे समुदाय के लिए बेशुमार नफरत दिखती है। यह एक खत्म न होने वाला आंतरिक और आदिम चक्र है और सभी संस्कृतियों और राष्ट्रों में मौजूद है, लेकिन आधुनिक राष्ट्र इससे बाहर निकलने में सक्षम हैं। आदिम समाजों में, यह रहा है। कुछ अधिक पिछड़े लोगों में, यह वृत्ति प्राय: तेज हो जाती है।

आदिम या आदिवासीवाद ने भारतीय लोकतंत्र को जातियों के जरिए ही परिभाषित किया है क्योंकि जिस तरह से टिकटों का बंटवारा होता रहा है और अभी भी वैसे ही होता है, उसी से पता चलता है। भाषाओं के आधार पर राज्यों का निर्माण, जो एक बुद्धिमान कदम था, और जिसका मतलब था कि भाषाई समूह की वफादारी एक राजनीतिक उपकरण के रूप में निष्प्रभावी हो गई, सिवाय इसके कि जब उन पर कुछ अप्रिय थोपकर संघर्ष को जानबूझकर बनाया गया।

हिंदुत्व के उदय और प्रभुत्व ने भारतीय लोकतंत्र में धार्मिक आदिवासीवाद को फिर से प्रस्तुत किया है। और इसका कारण है क्योंकि यह विभाजन से पहले से ही अस्तित्व में था और विभाजन की जड़ में था। गांधी के खिलाफ जिन्ना की शिकायत यह थी कि गांधी के प्रत्येक तीन वोट के बरअक्स उनके पास केवल एक वोट था और एक धारणा थी, जोकि सही थी, कि सभी वोट धर्म के लिए डाले जाएंगे, न कि नीति के लिए।

भारत में विभाजन के बाद की राजनीति साम्प्रदायिक बनी रही और अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेलने और उनका बहिष्कार उतना ही वास्तविक था जितना आज है, लेकिन फिर भी सरकारी की भाषा यानी नेहरू और इंदिरा के दौर की कांग्रेस सरकारें समावेशी थीं। इस वजह से, सामाजिक विभाजन अस्तित्व में होने के बावजूद अधिक तीव्र नहीं हुए।

हिंदुत्व ने इस सबको बदल दिया और अब भारतीय सरकारों और उनकी नीतियों, उनकी भाषा और उनके रवैये के चलते धार्मिक आधार पर बांट दिए गए। हमें यह देखना होगा कि इसका भारत के लिए क्या अर्थ है। हमारा राज्य लक्ष्य आधुनिक समय के एकमात्र हिंदू देश नेपाल से अलग है। नेपाल पर मनुस्मृति के मुताबिक क्षत्रिय राजाओं का शासन रहा। लेकन कुछ मायनों में यह कुछ खास अलग नहीं था। हिंदू नेपाल का फोकस अल्पसंख्यकों और उनके उत्पीड़न पर उस तरह नहीं था जिस तरह की न्यू इंडिया में है।


हिंदुत्व का राज्य लक्ष्य इस बात की चिंता नहीं करता कि कोई राष्ट्र हिंदू है या नहीं, उसका लक्ष्य इस बात पर होता है कि वह अल्पसंख्यकों के साथ क्या कर सकता है। हिंदुत्व सरकारों ने भेदभावपूर्ण और बहिष्करण वाली नीतियां और कानून नागरिकों पर थोपे हैं, जो उनके खानपान, तलाक-विवाह, अलगाव, इबादत और उनके कपड़ों तक के लिए हैं। मौजूदा कानून ऐसे हैं जिनसे अल्पसंख्यकों पर निशाना और कसता है। भारत में भारतीय बिल्कुल उसके विपरीत कर रहे हैं जोकि यूरोपीय देश भारतीय मूल के नेताओं के साथ कर रहे हैं।

अन्य भारतीयों के इस उत्पीड़न की कुछ तो उपयोगिता होगी, अन्यथा यह लोकप्रिय नहीं होगा और दूसरों को कष्ट में डालकर हासिल किए गए संभावित लाभों के रूप में संतुष्टि और संतोष हैं ही उपलब्ध कराता होगा। हालाँकि यह समझना कठिन है कि इससे राष्ट्र को कैसे लाभ होता है और विशेष रूप से यह भारत के भविष्य को कैसे बेहतर बनाता है। यह एक ऐसा सवाल है जो उनके समर्थकों को प्रधानमंत्री से पूछना चाहिए। अन्य भारतीयों के पीछे पड़ने के इस दौर से गुजरना उनके लिए सुखद हो सकता है। लेकिन एक बार उनकी इस संतुष्टि के लिए हासिल कर लिया गया, तो क्या?

इसका उत्तर वे लोग जानते हैं जो अत्याचार का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें यह स्पष्ट है कि इसके बाद भी ऐसा ही होगा। लेकिन यह उन लोगों से सुनना अच्छा होगा जो न्यू इंडिया को इस 'अमृत काल' में गहराई तक ले जा रहे हैं।

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