चुनाव परिणाम जैसे भी हों, अभी बाकी है वास्तविक लोकतंत्र के अधिष्ठान की लड़ाई

विकास के नाम पर विकसित हो रहे भारत के बाजार में अगर आप प्रलोभन से स्वयं को बचाकर अपने ‘अनुभूत सत्य’ को बे-खौफ व्यक्त करने पर उतारू रहते हैं तो आपका मुंह बंद करने के लिए पर्याप्त मात्रा में ‘गाली’ और ‘गोली’ का भंडार भरा रखा है !

फोटोः सोशल मीडिया
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रामचंद्र राही

मुझे लगता था कि भारतीय ‘लोकजीवन’ का अंतर-प्रवाह अब भी जारी है और 23 मई के दिन लोकतंत्र विजयी होगा, अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का अंत होगा। अंतर-प्रवाह में निहित भाव था -उच्चतर जीवन और लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर का प्रवाह। लेकिन मेरा यह अनुमान एक भ्रम साबित हुआ। मैं पिछले करीब चार दशक की देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक गति एवं दिशा को नजरअंदाज कर गया और अपनी कोरी भावुकता में भविष्य के सुनहरे सपने देखता रहा था।

चुनाव परिणाम जैसे भी रहे हों, मैं अब भी मानता हूं कि अंततः भारत के मतदाताओं की जय होगी। लेकिन इसके लिए अनिवार्य होगा कि हम ‘भारत में’ लोकतंत्र की बुनियाद सुदृढ़ करने के लिए ‘लोक’ के बीच ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ के साथ जीवन-साधक बन कर अगले कुछ साल एकाग्र साधना के लिए तैयार हो जाएं!

महात्मा गांधी के बलिदान के बाद आचार्य विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण और गांधी-युग के अनेक तपस्वियों ने ‘राज्य’ के शक्तिवर्धन के लिए नहीं, समाज के वैचारिक, नैतिक, आत्मिक बल को जागृत-संगठित करने के लिए लोगों के बीच रहकर विचार और मूल्य-निष्ठा का अभिवर्धन किया था। यह बात दूसरी है कि तथाकथित नई उदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद भारत ने गांधी के बताए विकास की कसौटी- अंतिम आदमी, को बिल्कुल भुला दिया है और विकास के नाम पर समाज को बाजार और मनुष्य को उपभोक्ता के संकीर्ण बाजारू दायरों में समेट दिया है।

दादा धर्माधिकारी के उस सूत्र को कभी नहीं भूलना चाहिए कि बाजार में मूल्य (वैल्यू) नहीं होते, कीमतें (कॉस्ट) होती हैं और हमारा समाज अब बाजार के संकुचित दायरे में सिमट गया है। बाजार में ‘प्रचार’, ‘प्रचारक’ और ‘विज्ञापनबाजों’ की चलती है, विचारवानों की नहीं! विकास के नाम पर विकसित हो रहे भारत के बाजार में अगर आप प्रलोभन से स्वयं को बचाकर अपने ‘अनुभूत सत्य’ को बे-खौफ व्यक्त करने पर उतारू रहते हैं तो आपका मुंह बंद करने के लिए पर्याप्त मात्रा में ‘गाली’ और ‘गोली’ का भंडार भरा रखा है!


आज हो क्या रहा है? भारतीय संविधान द्वारा प्राप्त नागरिक अधिकारों को खरीदा-बेचा जा रहा है, बाहुबल से छीना-हड़पा जा रहा है, आपस में लड़ा-भिड़ा कर, नफरत, असहिष्णुता उभार कर, जातीय-सांप्रदायिक संकीर्ण घरौंदों में बांट कर, असुरक्षा का आतंक फैला कर, अंध राष्ट्रवाद का उन्माद उभार कर उनका मनमाना उपयोग किया जा रहा है। मैं और मेरे जैसे अनेक लोग अपनी वैचारिक, नैतिक निष्ठा और सामाजिक आस्था के अनुसार समाज को उच्चतर मूल्यों की ओर आगे बढ़ाने के सपने संजोते रहे और बाजार अपने आकर्षित, विस्मित और चकित करते माल सजा कर, अपनी माया का फैलाव करता रहा! परिणाम सामने है।

लेकिन हमें याद रखना होगा कि भारत सामंतवादी, राजशाही और साम्राज्यशाही की व्यवस्थाओं की सैकड़ों वर्षों की गुलामी से निकल कर सीधे संवैधानिक लोकतंत्र की व्यवस्था में दाखिल हुआ था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 से 1942 तक की आजादी की लड़ाई में आम आदमी की सक्रिय और बलिदानी भागीदारी के कारण ऐसा हुआ।

आजादी के आंदोलन के समय ‘लोकतंत्र’ की लड़ाई भी लड़ी गई। इसके कारण ही स्वतंत्र भारत में बालिग मताधिकार के आधार पर लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था को सहजता से स्वीकार किया गया था, लेकिन महात्मा गांधी के शब्दों में, ‘राजनीतिक आजादी के बाद आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक लड़ाई’ अभी लड़ी जानी बाकी है।


हमें इस लड़ाई की तैयारी करनी होगी- गांधी के बताए सत्याग्रही तरीके से, सत्य-अहिंसा की बुनियाद पर, गांव-गांव में लोकसेवकों की टोली तैयार कर, लोकतंत्र की बुनियाद- मतदाता को जागृत, संगठित, संकल्पबद्ध करके! बाजार के व्यामोह, वैश्विक पूंजी और बाहुबल, जिसे गांधी ने पशुबल कहा था, की जकड़ से समाज को मुक्त करने वाली वास्तविक लोकतंत्र के अधिष्ठान की होगी यह लड़ाई!

(लेखक गांधीवादी विचारक और गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष हैं)


Published: 17 Jun 2019, 9:59 PM