आकार पटेल का लेख: आखिर कौन से रोड़े हैं भारत के सभ्य और स्वतंत्र समाज बनने की राह में, और कितनी लंबी है राह!

नौकरशाही का तंत्र चुने हुए लोगों की सनक के आगे झुक गया है। यही कारण है कि आधुनिक, सभ्य, समृद्ध और मुक्त समाज बनने की हमारी राह न सिर्फ लंबी है बल्कि तमाम किस्म की बाधाओंस भी भरी हुई है।

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आकार पटेल

लोकतांत्रिक सरकार क्या है? अक्सर इसे चुनावी प्रक्रिया से चुनकर आई हुई सरकार के एक आवश्यक तत्व तक सीमित कर दिया जाता है। इसका अर्थ सरकार के प्रमुख होने से है जो निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों के माध्यम से चुने जाते हैं। और यह भी कि समाज के सभी वर्गों को इस प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार है या नहीं। भारत आमतौर पर इस मामले में अच्छी स्थिति में रहता है। यहां तक कि फ्रीडम हाउस की रैंकिंग में भी, जो कहता है कि भारत केवल 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' है। चुनावी लोकतंत्र के मोर्चे पर भारत का स्कोर 40 में से 33 है जिसे भी अच्छा माना जाता है। दरअसल यह अमेरिका से भी अच्छा है जिसे सिर्फ 32 अंक ही मिले हैं।

लेकिन नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता के मामले में हम फिसड्डी हैं क्योंकि हमारा स्कोर 60 में से 33 है जबकि अमेरिका का 60 में से 51 है। इसीलिए अमेरिका को एक स्वतंत्र और हमें आंशिक रूप से स्वतंत्र कहा गया, वैसे कश्मीर को स्वतंत्र नहीं की श्रेणी में रखा गया है। पाठकों को यह जानकार हैरानी हो सकती है कि चुनावी लोकतंत्र में सिर्फ 40 अंक और नागरिक स्वतंत्रता में 60 अंक क्यों। लेकिन दुनिया लोकतंत्र के पैमाने इसी तरह तय करती है। लोकतंत्र का अर्थ नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता से तय होता है न कि सिर्फ किसी एक ऐसे काम से जो पांच साल में एक बार होता है। यही कारण कि लोकतंत्र के तौर पर हमारी रैंकिंग नीचे आ रही है।

वैसे लोकतंत्र को लेकर एक और पहलू है जिसकी यहां चर्चा नहीं हो रही है और वह है राज्यों की कार्यप्रणाली या उनके काम करने के तौरतरीके। राज्यों में नागरिकों का सामना नेताओं से नहीं होता, बल्कि अफसरों से होता है। वहां सारे काम जज, जिलाधिकारी और पुलिस अफसर आदि करते हैं। हमारे लिए तो ये अफसर ही सरकार हैं और यही लोग असल में लोकतंत्र के प्रतिनिधि भी हैं। तो सवाल है कि इनकी रैंकिंग की कैसे की जाए?

दुर्भाग्य से यह खराब स्थिति है। एक तरफ भ्रष्टाचार है तो दूसरी तरफ प्रशासनिक अक्षमता, जिससे हमें जूझना पड़ता है। लेकिन कुछ और भी है जिससे हमें सरोकार होना चाहिए, वह है राजनीतिक प्रतिष्ठान का ब्यूरोक्रेसी को अपनी इच्छानुसार तोड़ना-मरोड़ना। पुलिस और अन्य एजेंसियों को राजनीतिक विरोधियों के पीछे लगा दिया जाता है, और इस तौरतरीके का कोई विरोध राजनीति में और अफसरशाही में अंदरखाने नहीं होता।


ऐसा लगता है कि जो भी अफसर इन एजेंसियों को संभालते हैं उनमें कोई नैतिकता बची ही नहीं है, और वे इन्हें इसी तरह इस्तेमाल करने के अभ्यस्त हैं। विपक्षी नेताओं और पार्टियों पर ईडी (जिसका नियंत्रण केंद्र सरकार के हाथ में है) के छापे अब आम बात हो चुकी है। और जिनसे सरकार को चुनौती मिलती है उन्हें निशाना बनाना भी आम बात है। इसी तरह नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी (इसका नियंत्रण भी केंद्र के पास है) का इस्तेमाल भी एक्टिविस्ट्स के खिलाफ किया जा रहा है। भीमा कोरेगांव केस शुरुआत में मराठा और दलितों के बीच हिंसा का था, लेकिन जैसे ही बीजेपी के हाथों से महाराष्ट्र की सत्ता निकली, इस केस को महाराष्ट्र पुलिस से ले लिया गया। जिन लोगों को स मामले में जेल भेजा गया उनमें वही लोग हैं जिनका काम बीजेपी को पसंद नहीं है। इनमें से एक फादर स्टेन स्वामी की तो देल में ही मौत भी हो चुकी है, जबकि बीजेपी सरकार लगातार उनकी जमानत र्जी का विरोध करती रही।

राजनीतिक दलों की मंशा उससे एकदम अलग होती है जो असलियत में होता है। कुछ अफसर कोई केस दर्ज करते हैं, जो या तो फर्जी होता है या फिर इसे किसी तरह तोड़ा-मरोड़ा गया होता है। दूसरा अफसर इसे मंजूरी देता है, यह जानते हुए भी कि जो कुछ किया जा रहा है वह गैरकानूनी है। लेकिन इसे नजरंदाज कर दिया जाता है। दूसरे लोकतंत्रिक देशों में ऐसा नहीं होता है। हमें इसे स्वीकार करना पड़ेगा। और जब दूसरे देशों में ऐसा किया भी जाता है तो वे पकड़े जाते हैं और उसका अंजाम भुगतना पड़ता है। हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं होता। और यही कारण है कि हमारे यहां अफसर लोगों का उत्पीड़न जारी रखते हैं।

सरकार में उन व्यक्तियों के बारे में क्या कहा जा सकता है जिन्होंने अधिकारियों और वकीलों के रूप में स्टेन स्वामी को सम्मान से मरने के अधिकार से वंचित कर दिया? पुलिस बल में उन लोगों के बारे में क्या कहा जा सकता है, जो दिल्ली की अदालतों ने देखा है, अपराधियों के बजाय जानबूझकर दिल्ली नरसंहार के पीड़ितों के पीछे पड़ गए? इस तरह के काम करने के लिए आपको विशेष रूप से भ्रष्ट किस्म का व्यक्ति होना चाहिए। और फिर भी ऐसा लगता है कि सिस्टम में विरोध करने वाले लोगों की तुलना में अधिक ऐसे लोग हैं। मांस प्रतिबंध और हिजाब प्रतिबंध जैसी चीजों पर, हम देख रहे हैं कि व्यवस्था में शामिल तत्व लोगों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए उत्साहित हैं। यह एक समाज के रूप में हमारे बारे में कुछ भयानक कहता है।


यह काफी बुरी स्थिति है कि सरकार हमें संरचनात्मक रूप से अपने अधिकारों और स्वतंत्रता का प्रयोग करने की अनुमति नहीं देती है, जैसा कि वैश्विक सूचकांक स्कोर दिखाते हैं। लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि इतने सीमित दायरे में नौकरशाही का तंत्र चुने हुए लोगों की सनक के आगे झुक गया है। यही कारण है कि आधुनिक, सभ्य, समृद्ध और मुक्त समाज बनने की हमारी राह न सिर्फ लंबी है बल्कि तमाम किस्म की बाधाओं से भी भरी हुई है।

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