भय और अन्याय के खिलाफ आज़ादी: आखिर नागरिकों का इंतज़ार कब खत्म होगा!

आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार वास्तव में क्रांतिकारी साबित होंगे, बशर्ते वे सरकार और पुलिस की जरूरतों से अधिक नागरिकों की जरूरतों पर केंद्रित होंगे।

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उत्तम सेनगुप्ता

Freedom from Fear and Injustice: What Indians Are Waiting For

Reforms in the criminal justice system will be truly revolutionary if they address the needs of the citizens more than the needs of the state and the police

Uttam Sengupta

जस्टिस पी एन भगवती की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच 1970 के दशक में इस बात को जानकर हैरान रह गई थी कि बिहार में एक लड़के को एक किसान से सिर्फ गोभी चुराने के आरोप में जेल भेज दिया गया और वह उस वक्त भी 15 साल से जेल में था। उसके पास ऐसे संसाधन नहीं थे कि वह जमानत के लिए अर्जी दे पाता या अदालत में अपने मुकदमे की पैरवी कर पाता। जहां तक स्मृति जाती है तो ऐसी चोरी के आरोप में अधिकतम 6 महीने की कैद हो सकती है।

मुझे इस केस की खासी जानकारी है क्योंकि जमशेदपुर की जिस  फ्री लीगल एड कमेटी से मैं कुछ समय तक जुड़ा रहा था, वही इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गई थी।

यह वह दौर था जब न्यायमूर्ति भगवती जनहित याचिकाओं को प्रोत्साहित करते थे। उस दौर में हर किसी के पास नाइंसाफी के खिलाफ अपील करने और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने का जरिया नहीं होता था। इसलिए, कोई भी 'समाज का मित्र' अदालत को लिख सकता था और बता सकता था कि इंसाफ देने में क्या गलती हुई है। यहां तक कि अदालत को भेजे गए एक पोस्टकार्ड तक पर सुनवाई हो जाती थी।

बिहार के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को आदेश दिया था कि वह ऐसे सभी विचाराधीन कैदियों की सूची मुहैया कराए जो उनके द्वारा किए गए अपराध के लिए अधिकतम सजा भुगत चुके थे। जब सूची पेश की गई तो कोर्ट ने तुंरत उस लड़के को रिहा करने का आदेश जारी किया।

लेकिन बाकी राज्यों में ऐसे कैदियों का क्या हुआ, कुछ जानकारी नहीं है। पर जो जानकारी है वह यह कि सालों बाद भी हजारों लोग हैं जो विभिन्न जेलों में विचाराधीन कैदियों की तरह बंद हैं। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि इन वर्षों में यह जानने का भी तरीका नहीं है कि ऐसे कैदियों की संख्या का पता लगाया जा सके। सरकारें अपे तौर पर ऐसी कोई सूची नहीं बनाती हैं, और अगर बनाती भी हैं तो उसकी चर्चा नहीं होती, शायद इसीलिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्ट में इसका जिक्र नहीं होता।

और अब,केंद्र सरकार आपराधिक न्याय प्रक्रिया या दंड संहिता को  बदलने की कोशिश कर रही है। ऐसे में यही सही समय है जब पूछा जाए कि भारतीय नागरिक जिस तरह 70 के दशक में इंसाफ के मोहताज थे, आज भी उतने ही मजबूर क्यों हैं। मेरे मन में तो इसे लेकर एक निगेटिव ही उत्तर है। अगर कुछ है तो वह यह कि सरकार और कानून लागू करने वाली एजेंसियों की नजर में सारे के सारे नागरिक ही संदिग्ध हैं।

जरा पश्चिम बंगाल के उस दंपति से पूछो जिसे बेंग्लुरु पुलिस ने बांग्लादेशी होने के शक में गिरफ्तार कर लिया था और उन्होंने तीन सप्ताह जेल में बिताए थे। उनकी किस्मत अच्छी थी, क्योंकि बहुत से ऐसे भारतीयों को पुलिस ने विभिन्न राज्यों में हिरासत में ले लिया था जो काम की तलाश में पश्चिम बंगाल से उन राज्यों में गए थे और फिर उन्हें मवेशियों की तरह अंतरराष्ट्रीय सीमा पर छोड़ दिया गया था। ये दंपति तो किसी तरह मदद हासिल कर साबित कर पाया कि वह भारतीय ही हैं।

1990 के दशक के आखिरी दिनों में लखनऊ की सेंट्रल जेल बहुत सारे ऐसे कैदियों को रिहा कर रही थी जिन्होंने 15 साल या अधिक समय जेल में गुजार लिया था। इन सब पर हत्या जैसे संगीन अपराधों के आरोप थे, और उन्हें लेकर किसी के मन में कोई सहानुभूति नहीं थी। और चूंकि वे अपनी सजा काट चुके थे या जेल में ‘अच्छे व्यवहार’ के कारण उन्हें जेल से छोड़ा जा रहा था। इनके लिए जेल अधीक्षक ने भजन संध्या का आयोदन किया था और भजन गायक अनूप जलोटा को इसके लिए बुलाया गया था। स्थानीय अखबारों से इस आयोजन की कवरेज का भी आग्रह किया गया था।

टाइम्स ऑफ इंडिया का एक रिपोर्टर मोहित दुबे इस आयोजन को कवर करने गया था। उसने वहां रिहा होने वाले 8-9 कैदियों से बातचीत की थी। पूछा था, क्या उन्हें अपने किए अपराध का पछतावा है। लेकिन दुबे जब वापस आया तो वह व्यथित था क्योंकि सिवाए एक के सभी ने कहा था कि उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया था और उनके जीवन के बेहतरीन साल जेल की सलाखों के पीछे गुजर गए थे।

बहुत से लोग इस सबको याद करके रो रहे थे। कुछ ने कहा था कि उन्हें फंसाया गया था। कुछ को उनके परिवार वालों ने ही जायदाद के चक्कर में जेल भिजवा दिया था। कुछ को गांव की रंजिश के चलते भुगतना पड़ा था। कुछेकने अदालती कार्यवाहियों का ध्यान ही नहीं दिया था और वे अदालत में पूछे गए सवालों के जवाब देते हुए या तो घबरा रहे थे या डरे हुए थे। न्यूज रिपोर्टर इतना परेशान था कि उसने पूछा कि इसकी खबर बनाई जाए या नहीं।

क्या अब हालात बदले हैं?  जो लोग खबरों पर नजर रखते हैं इसका जवाब जानते हैं। बीती शताब्दी में ऐसा कम ही होता था कि एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य के लोगों को गिरफ्तार करके ले जाए। अगर उन्हें किसी की तलाश होती थी तो वे संबंधित राज्य की पुलिस के साथ जानकारी साझा करते थे और संदिग्ध को पकड़ने में मदद मांगते थे।

लेकिन यह सवाल गुजरात के कांग्रेस विधायक जिग्नेश मेवानी से पूछिए, जिन्हें असम की पुलिस गुजरात आकर एक बेतुके केस में गिरफ्तार करके ले गई थी। इतना ही नहीं सम पुलिस की एक महिला कांस्टेबिल की तरफ से यह रिपोर्ट तक लिखवा दी गई कि हिरासत मे लिए जाने के बाद मेवानी ने  पुलिस वैन में उससे अभद्रता की, जबकि वैन में उस महिला के साथ अन्य पुलिस कर्मी भी मौजूद थे। यही सवाल केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन से भी पूछकर देखिए जिन्हें यूपी पुलिस ने आतंकी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया था।

ऐसे मामलों की कमी नहीं है जब आतंकी आरोपों से लोगों को सबूत न होने के आधार पर अदालतों ने रिहा किया है, लेकिन इससे पहले उन्हें कई दशकों तक हिरासत के कड़वे अनुभव से दोचार होना पड़ा है। उत्तर प्रदेश की जेलों में सैकड़ो कश्मीरी बंद हैं और अनुभव यही बताता है कि उन पर लगाए आरोप अदालत में कभी भी साबित नहीं हो सकेंगे।

जब गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया कि सरकार ने आपराधिक न्याय प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव करते हुए अंग्रेजों के दौर को कानूनों को खत्म किया है, तो उन्हें इन सभी सवालों के जवाव देने चाहिए कि क्या भारतीय नागरिकों को सशक्त किया गया है? क्या कानूनों में सुधार से यह सुनिश्चित हो जाएगा कि पुणे पुलिस झारखंड के रांची नहीं जाएगी और बिना किसी कागजी कार्रवाई के फादर स्टैन स्वामी जैसे लोगों को गिरफ्तार नहीं करेगी?

संसद में आईपीसी, सीआरपीसी और भारती एविडेंस एक्ट को खत्म कर नए कानूनों को जगह देने वाले बिल को पेश किया गया है उनमें सबूत पेश करने के लिए फोरेंसिक साइंस के वृहत्तर इस्तेमाल की बात तो कही गई है, लेकिन विडंबना है कि सरकार इस बात पर एकदम खामोश है कि जब अमेरिकी और कनाडा की फोरेंसिक लैब ने स्पष्ट बताया कि भीमा कोरेगांव केस के आरोपियों के कम्प्यूटर में सबूत प्लांट कैसे कर दिए गए?

डिजिटल युग में सबूतों से छेड़छाड़ से बचने के लिए आखिर नागरिकों के पास क्या विकल्प हैं। पुलिस तो हैकरों औ कम्प्यूटर के खेल में माहिर लोगों के जरिए  किसी के भी डिजिटल डिवाइस में कुछ भी प्लांट करा सकती है, तो ऐसे में नागरिकों के पास अपनी सुरक्षा के क्या उपाय है? निस्संदेह जमाने से चली आ रही पुलिस की पूछताछ और आरोपी के इकबालिया बयानों को सबूत के तौर पर पेश करना कोई अलग बात नहीं है।

एक वक्त था जब पुलिस थानों पर भी छापे पड़ते थे और वहां से भारी तादाद में गैरकानूनी हथियार आदि  बरामद होते थे, जिन्हें संदिग्धों से बरामदगी के तौर पर दिखा दिया जाता था। न ही पुलिस के पास हमेशा मौजूद पेशेवर गवाह होना कोई सीक्रेट था। क्या गृहमंत्री एक संकल्प के साथ कह सकते हैं कि सरकार ने इस सबकी साफ-सफाई कर दी है और अंग्रेजी दौर से जारी इन सारी करतूतों पर विराम लगा दियाहै।

और आखिरी बात, बिना कारण हिरासत, हिरासत में मौते और प्रताड़ना या फिर फर्जी आरोपों से आज भी नागरिकों को कोई राहत नहीं है। उमर खालिद तीन साल से जेल में है और उस पर आरोप हैं कि उसने एक सार्वजनिक भाषण के  जरिए लोगों को भड़काया जिससे दिल्ली में दंगे हुए। क्या किसी और देश, यहां तक कि पाकिस्तान या इजरायल का क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम सरकार को ऐसा करने की छूट देगा? क्या सरकार पर लोगों को बिना तर्क के हिरासत में रखने की जवाबदेही होगी और उन्हें मुआवजा दिया जाएगा?

अभियोजन पक्ष और सरकार के स्तर पर आपराधिक न्याय प्रणाली को सरल बनाना उन नागरिकों के लिए थोड़ी सांत्वना है जो पुलिस की क्रूरता और सरकार से जूझ रहे हैं। 'बुलडोजर न्याय' के विरुद्ध सिस्टम में कोई जगह नहीं है, जिसमें बिना किसी उचित प्रक्रिया के घरों, दुकानों, झोपड़ियों, जीवन और आजीविका को ध्वस्त किया जा रहा है।

जरूरत इस बात की है कि नागरिकों, वकीलों और कार्यकर्ताओं को इस बात पर चर्चा करनी चाहिए कि आपराधिक न्याय प्रणाली को वास्तव में कैसे अधिक प्रभावी और मानवीय बनाया जा सकता है; अन्याय को कैसे कम किया जा सकता है और सरकार और पुलिस की शक्तियों का प्रयोग संयम, जवाबदेही और पारदर्शिता के साथ कैसे किया जाता है।

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