बजट पर किसकी उम्मीद टिकी है, मोदी सरकार ने तो किसानों को किस्मत पर छोड़ दिया है

न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार द्वारा जारी एक संख्या मात्र बनकर रह गया है क्योंकि सरकार की एमएसपी की घोषणा की तुलना में बाजार की कीमतें 10 से 37 प्रतिशत तक कम थी। कृषि को नुकसान क्यों हो रहा है, इसके बुनियादी कारणों में से एक कृषि निर्यातों में भारी गिरावट है।

फोटोः सोशल मीडिया
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राहुल पांडे

आप जैसे ही कृषि की बात करते हैं वैसे ही भारतीय मध्यवर्ग इससे खुद को अलग कर लेता है। वे सोचते हैं कि यह उनके चिंता का विषय नहीं है, जबकि तथ्य यह है कि वर्तमान आर्थिक संकट मुख्यतः इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि बीजेपी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान कृषि पर ध्यान नहीं दिया। अगर आप सोचते हैं कि भारत के गांवों में जो कुछ हो रहा है, उसका भारत के मध्यवर्ग से कोई लेना-देना नहीं है, तो इस पर फिर से सोचिए। वर्तमान मंदी हो सकता है कि ग्रामीण भारत से शुरू हुई हो लेकिन उपभोक्ता व्यय में कमी अब अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों में भी अपने पैर पसार चुकी है। चालीस वर्षों में पहली बार उपभोग में कमी आने की एक मुख्य वजह कृषि में गिरावट है।

जीडीपी में कृषि का योगदान 15 प्रतिशत के करीब हो सकता है और कृषि विकास में गिरावट का शायद संपूर्ण विकास में बहुत कम महत्व हो, लेकिन यह क्षेत्र आधी से अधिक आबादी को रोजगार उपलब्ध कराता है। कृषि में एक स्थायी गिरावट का मतलब भारत के विकास की कहानी से आधे से अधिक उपभोक्ताओं को बाहर करना है। बीजेपी सरकार कृषि से जुड़े सभी प्रश्नों को यह दावा करके किनारे कर देती है कि वह 2022 तक कृषि आय को दोगुना करने को लेकर प्रतिबद्ध है, लेकिन यह मात्र एक नारा बन गया है जिसका वास्तव में जमीनी स्तर पर कोई असर नहीं है। कृषि और व्यापक ग्रामीण क्षेत्र से प्राप्त आंकड़े लगातार ग्रामीण आय में आई गिरावट को ओर इशारा कर रहे हैं।

‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ अखबार में पिछले साल अक्टूबर को प्रकाशित एक रिपोर्ट ने इस क्षेत्र में गहरे संकट की ओर इशारा किया था। इसने संकेत दिया कि कृषि कार्य से जुड़े पुरुष श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में जुलाई, 2019 में 3.4 प्रतिशत की कमी आई है। यह क्षेत्र छह प्रतिशत से भी अधिक खुदरा मुद्रास्फीति का सामना कर रहा है। यह एक बहुत ही परेशान करने वाली प्रवृत्ति को ओर इशारा करता है। यह डेटा मौटे तौर पर एनएसएसओ की लीक हुई रिपोर्ट के ही अनुरूप था जिसमें इंगित किया गया था कि औसत मासिक व्यय जो 2011-12 में 1501 रुपये था, वह 2017-18 में गिरकर 1446 रुपये हो गया, यह गिरावट लगभग चार प्रतिशत थी।

यह जमीनी स्तर पर एक व्यापक समस्या की ओर इशारा करती है जिसकी कई वर्षों से जांच-पड़ताल नहीं की गई और अब सरकार का मानना है कि वह मौद्रिक नीति और करों में कटौती जैसे हस्तक्षेपों के माध्यम से अर्थव्यवस्था को दुरुस्त कर सकती है। वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली दो तिमाहियां कृषि क्षेत्र के लिए पूरी तरह से संकटपूर्ण रही हैं, पहली तिमाही में वृद्धि दर दो प्रतिशत थी और दूसरी तिमाही में यह 2.1 फीसदी रही। इसकी वजह को समझना सरल है- किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार द्वारा जारी एक संख्या मात्र बनकर रह गया है क्योंकि सरकार की एमएसपी की घोषणा की तुलना में बाजार की कीमतें 10 से 37 प्रतिशत तक कम थी।


कृषि को नुकसान क्यों हो रहा है, इसके बुनियादों कारणों में से एक कृषि संबंधी निर्यातों में गिरावट है। कृषि संबंधी निर्यात 2003-04 में 7.5 अरब डॉलर से बढ़कर 2013-14 में 43.25 अरब डॉलर पर पहुंच गया था, लेकिन 2018-19 में घटकर 39.2 अरब डॉलर पर आ गया। भारतीय कृषि संबंधी निर्यातों के लिए वैश्विक बाजार एक चिंता का कारण रहा है और इसके लिए एक स्पष्ट तथा दीर्घकालीन नीति पर फोकस करने की जरूरत है।

हालांकि, सरकार जिस तरीके से घरेलू कृषि संबंधी नीति को संचालित कर रही है उसके साथ यह समस्या बनी हुई है। मोदी सरकार ने कृषि क्षेत्र में दो जोरदार हस्तक्षेप किए- पीएम फसल बीमा योजना तथा पीएम किसान सम्मान निधि और इन दोनों ही योजनाओं का सीमित प्रभाव पड़ा। लगता है कि पीएम फसल बीमा योजना अपनी गति खो चुकी है क्योंकि कंपनियां इसके बिजनेस सेंस को लेकर आश्चर्यचकित हैं। चार कंपनियां, आईसीआईसी लोमबार्ड, टाटा एआईजी, चोलामंडलम एमएस और श्रीराम जनरल इश्योरेंस, इस योजना से बाहर निकल गई हैं और महाराष्ट्र के बहुत ही संवेदनशील दस जिलों में बोली लगाने वाला कोई भी नहीं मिला।

कंपनियों के साथ समस्या यह हुई कि उन्हें जितना हासिल हुआ उससे ज्यादा उन्हें भुगतान करना पड़ा, मुख्यतः चुनावी मौसम की वजह से। चुनावों के बाद, योजना की चाल सुस्त पड़ गई और फसलों को हुए नुकसान के बावजूद बड़ी संख्या में दावों को नकार दिया गया। योजना का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है और किसानों को उनकी किस्मत के हवाले छोड़ दिया गया है। मोदी सरकार जानती थी कि ग्रामीण संकट की वजह से वह एक गंभीर समस्या का सामना कर रही है और यह एक मुख्य कारण था कि उसने चुनावों से ठीक पहले पीएम किसान योजना शुरू की। प्रति वर्ष छह हजार रुपये के वादे ने सरकार को चुनाव जीतने में मदद जरूर की हो, लेकिन समस्याओं और सीमाओं के मद्देनजर यह बहुत ही नगण्य साबित हो रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं था कि यह एक राजनीतिक योजना थी और अब जब चुनाव खत्म हो गए हैं, तो सरकार इसके लाभार्थियों की संख्या और लागत को कम करने का प्रयास कर रही है। योजना की पहली किस्त 8.33 करोड़ परिवारों तक पहुंची, लेकिन दूसरी किस्त में यह संख्या 7.50 करोड़ हो गई और तीसरी किस्त का फायदा 6.11 करोड़ को ही मिला जबकि अभी तक तीन करोड़ परिवारों को ही चौथी किस्त मिली है।


सरकार ने इस योजना के लिए 2019-20 के वास्ते 75 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए थे लेकिन 31 दिसंबर, 2019 तक सरकार ने इसमें 43,245.23 करोड़ रुपये दिए यानी 57.66 प्रतिशत। ऐसा नहीं लगता है कि सरकार चालू वित्त वर्ष में पैसा खर्च करेगी। हालांकि, हस्तक्षेप से तब तक कुछ नहीं होगा जब तक कीमतें ऊपर नहीं चढ़ने लगेंगी और इसका असर महंगाई पर भी होगा।

हालांकि, इस योजना के साथ सबसे बड़ी समस्या इसके डिजाइन में है और तमिलनाडु से प्राप्त डेटा इसकी गहरी कमियों और समस्या के समाधान में इसकी संभावित असमर्थता की ओर इशारा करते हैं। कृषि जनगणना 2015-16 बताती है कि राज्य में किसानों की कुल संख्या 79.38 लाख है, लेकिन तकरीबन 35.54 लाख यानी 45 प्रतिशत किसानों को ही इस योजना के तहत कवर किया गया है। जिन परिवारों के पास अलग-अलग जोत भूमि है, उन्हें एक ही परिवार में समाहित कर दिया गया (और जाहिर है उन्हें एक भुगतान हुआ) और इससे भी बदतर यह है कि बंटाईदारों को इसमें छोड़ दिया गया।

हो सकता है कि पीएम किसान योजना पर खर्च करने के लिए सरकार पैसा बढ़ाना चाहती हो और शायद व्यय को मुद्रास्फीति के साथ जोड़ सकती है, लेकिन उसके पास कुछ भी अर्थपूर्ण करने के लिए राजकोष नहीं है। वह पीएम किसान योजना की पाइपलाइन के माध्यम से सब्सिडियों का रास्ता तैयार करने के बारे में सोच सकती है, लेकिन यह अंततः एक विपदा ही साबित होगी क्योंकि यह बंटाईदारों को छोड़ देगी, जैसा कि तेलंगाना और ओडिशा के तथ्यों से पता चलता है।

जैसे-जैसे भारत नए वित्तीय वर्ष की ओर बढ़ रहा है, यह प्रत्यक्ष होता जा रहा है कि सरकार 2022 तक कृषि आय को दोगुना करने के अपने वादे में बहुत छोटी पड़ जाएगी और यह भी स्पष्ट है कि उसके पास ग्रामीण विकास एजेंडा को बढ़ाने के लिए अगला कोई नया उपाय नहीं है। सर्दी की बारिश रबी की फसलों में रिकॉर्ड वृद्धि कर सकती है, लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है, अगर किसानों को उचित दाम न मिलें।

अंत में, यह सब एक साधारण से प्रश्न पर आकर रुक जाता है कि क्या सरकार किसानों को उचित दाम सुनिश्चित कर पाएगी? कृषि बढ़ी तो वह आर्थिक बहाली को रोकने में मददगार होगी लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है, तो हमें और समस्याओं का सामना करना होगा। खाद्य पदार्थों की कीमतें थोड़े समय में और बढ़ेंगी किंतु मुद्रास्फीति को लक्ष्य़ बनाने से भारत को अधिक मदद प्राप्त नहीं हुई है। सरकार के पास कोई आसान विकल्प नहीं है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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