भारत में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने में अहम योगदान देने वाली सिविल सोसाइटी डरने क्यों लगी है?

भारत जैसी विषम सामाजिक परिस्थितियों वाले देश में हमेशा वंचितों, दबों-कुचलों को सहारा देने वाली संस्थाओं की जरूरत होगी। शक्ति का लोकतांत्रीकरण सिविल सोसाइटी के वजूद की एक माकूल वजह है।

फोटो: सोशल मीडिया
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अमिताभ बेहार

सुप्रीम कोर्ट ने मार्च, 2020 में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अदालत ने स्वयंसेवी संस्था- इंडियन सोशल एक्शन फोरम (इंसाफ) के पक्ष में फैसला सुनाते हुए विदेशी अंशदान विनियमन कानून, 2011 (एफसीआरए) के मौजूदा प्रावधानों के ठीक विपरीत सिविल सोसाइटी के राजनीतिक उद्देश्य से हस्तक्षेप करने के अधिकार को वैध ठहराया है। इस फैसले को भारत में जनतंत्र की जड़ों को मजबूत करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।

इस फैसले के केंद्र में राजनीतिक उद्देश्य या कहें, सत्ता पाने के उद्देश्य से किए गए राजनीतिक हस्तक्षेप और सामाजिक या मानवाधिकारों की दृष्टि से किए गए राजनीतिक हस्तक्षेप के बीच का फर्क है जो सिविल सोसाइटी को हक देता है कि वह इस देश के करोड़ों मजलूमों के लिए आवाज उठाए। जनतंत्र और अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए राजनीतिक कार्यों को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वैध ठहराया है।

इसमें कोई शक नहीं कि इन कार्यों के लिए देश में ही जुटाई गई राशि बेहतर रहेगी, पर फैसले ने विदेशी धनराशि के उपयोग को भी वैध ठहराया है। कोर्ट ने कहा है कि विरोध प्रकट करने के वैध तरीकों को प्रयोग करने के कारण किसी सिविल सोसाइटी या संस्था को राजनीतिक संस्था नहीं माना जा सकता और इसके लिए उस संस्था को दंडित करना अनुचित है। इस फैसले के दूरगामी प्रभावों के बावजूद सिविल सोसाइटी ने इसपर कोई खास उत्साह नहीं दिखलाया है। जाहिर है, इस शिथिल प्रतिक्रिया से कुछ सवाल उठते हैं।

इस फैसले के दौरान देशभर में सामाजिक समरसता को होने वाले खतरों के विरुद्ध एक आंदोलन चल रहा था और दिल्ली उसके केंद्र में थी। फिर भी, अधिकांश संस्थाओं ने न तो इस आंदोलन के प्रति अपनी दिलचस्पी दिखाई, न ही उसका मैदानी समर्थन किया। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? आज की परिस्थितियों में, जब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकतें संवैधानिक मूल्यों और जनतंत्र का गला घोंटने में लगी हैं, सिविल सोसाइटी को खुद के अ-राजनीतिकरण के प्रश्न से जूझना ही चाहिए।


भारत जैसी विषम सामाजिक परिस्थितियों वाले देश में हमेशा वंचितों, दबों-कुचलों को सहारा देने वाली संस्थाओं की जरूरत होगी। शक्ति का लोकतांत्रीकरण सिविल सोसाइटी के वजूद की एक माकूल वजह है। इसके बावजूद आज सिविल सोसाइटी बात तो गंभीर राजनीतिक चिंतन की करती है, पर उसे क्रियान्वित करने में अराजनीतिक होती हैं या होना चाहती हैं।

दरअसल, जन-संगठनों और आंदोलनों के रूप में जानी जाने वाली सिविल सोसाइटी अब वित्त-पोषित संस्थाओं के रूप में जानी जाती है। इनमें से कुछ संस्थाओं के पास काफी संपत्ति इकट्ठी हो गई है, जैसे कि इमारतें, प्रशिक्षण केंद्र, बड़ी संख्या में तनख्वाह-याफ्ता कर्मचारी आदि। समयके साथ यही संस्थाएं छोटी संस्थाओं के लिए रोल मॉडल बन गई हैं। इससे सवाल उठाने की उनकी क्षमता कम होती जा रही है। सरकारी दमनकारी नीतियों ने संगठनों की सवाल उठाने की क्षमता पर दोहरा आघात किया है।

जाहिर है, संस्थाओं की आदत पड़ गई है कि वे कभी-कभार सवाल पूछें, पर उन पर टिकी न रहें, ताकि उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकतों का कोपभाजन न बनना पड़े। इस बात पर ध्यान देना सिविल सोसाइटी ने कम कर दिया कि वंचितों के हित में बदलाव लाने की कीमत चुकानी पड़ती है।

सिस्टम एप्रोच का सतही प्रयोग

व्यावसायिक प्रबंधन (बिजनेस मैनेजमेंट) के तौर-तरीकों से सिविल सोसाइटी में कुशलता और प्रभाव-जैसे कई शब्दों ने जड़ें जमा लीं। इसके साथ फैलाव का दबाव भी बहुत बढ़ गया जिससे कुल मिलाकर सिविल सोसाइटी का अराजनीतिकरण और बढ़ गया। हम अब संगठनों के मिशन और विजन से आगे आ गए हैं और पूरा काम डोनर संस्था द्वारा दिए गए प्रोजेक्ट के अनुसार होने लगा है।

कुछ संस्थाओं ने सिस्टम एप्रोच को अपनाने के प्रयास किए हैं। इनमें एक साफ समझ है कि सामाजिक बदलाव कोई एक तरह के खास प्रयासों (या कहें, प्रोजेक्टों) से नहीं आएंगे। सिस्टम एप्रोच समस्या को कई स्तरों, कई तरह की पेचीदगियों के साथ देखती है। मसलन- जंगलों के कटने का कारण सिर्फ आबादी बढ़ना या कम पेड़ लगाना भर नहीं है बल्कि ऐसे बहुत से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं जिनका उत्तर सिर्फ पेड़ लगाना नहीं हो सकता। सिस्टम एप्रोच ने संस्थाओं की प्रोजेक्ट से बाहर झांकने में मदद तो की है, वह उसकी भाषा भी बन गई है, पर दुर्भाग्य से वह उनकी कार्य प्रणाली, बजटऔर मॉनिटरिंग का हिस्सा नहीं बनी है। अधिकतर दानदाता संस्थाएं भी बात तो सिस्टम चेंज की करती हैं, पर फंडिंग उसी कम अवधि, समय आधारित मानदंडों के अनुसार करती हैं। इसका मतलब यह है कि संस्थाएं अपने ही बनाए लक्ष्य से भटक रही हैं, उनके कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता या कहें, लक्ष्य पर यकीन कम हो गया है।

सिविल सोसाइटी के बढ़ते संस्थानीकरण के दौर में काम को सुव्यवस्थित रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि सिविल सोसाइटी अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है, पर दबे-कुचलों की आवाज उठाना सुरक्षित माहौल में कहां हो पाता है? इसका नतीजा यह है कि समुदायों से सिविल सोसाइटी का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था, वह टूट-सा गया है। इससे दो गंभीर नुक्सान हुए हैं- पहला कि सरकार और बाजार- दोनों के सामने सिविल सोसाइटी की छवि कमजोर पडी है। समुदायों से नजदीकी ही सिविल सोसाइटी की प्रमुख ताकत थी जो अब कमजोर पड़ गई है। बहुत-सी संस्थाएं अब भी इस बात पर यकीन नहीं करतीं और समुदाय-केंद्रित नजरिये की बजाए तकनीकी विशेषज्ञोंवाली नजर से अपने काम को देखती हैं। दूसरा नुक्सान है- जगह खाली होने के कारण उसमें रूढ़िवादी, कट्टरपंथी तत्वों का समुदायों से करीबी रिश्ते बनाने में कामयाब होना। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के पीछे यह एक प्रमुख कारण है।


हाशिये पर जाने के असर

सिविल सोसाइटी की सोच और तौर-तरीकों में बदलाव के कारण आज वह रिसर्च, पैरवी, पॉलिसी के विषयों और अभियानों पर तो काम करती है पर लोगों को संगठित और लामबंद करने में उसकी भूमिका कम होती जा रही है।

इसका एक नमूना हम सीएए-विरोधी आंदोलन के अलावा पिछले वर्षों में दुनियाभर में हुए बड़े और प्रभावी आंदोलनों में देख सकते हैं। इनका नेतृत्व सिविल सोसाइटी की बजाए नागरिकों के पास रहा है। सिविल सोसाइटी अपनी अराजनीतिक भूमिका में इसनए विमर्श में कहीं नहीं दिखी। सिविल सोसाइटी को इस संकट का उत्तर अपने में ढूंढना ही होगा।

(सप्रेस)

लेखक ऑक्सफैम (इंडिया) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

(यह लेख पहले अंग्रेजी में इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू की वेबसाइट पर छपा था। सप्रेस के लिए इसका संपादित हिंदी अनुवाद ईशान अग्रवाल ने किया है। मूल लेख https:// idronline.org/civil-societys-road-to-irrelevance/ पर पढ़ा जा सकता है।)

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