बिना राज-समाज की दशा में सुधार किए सिर्फ भाषणों से नहीं चलेगा काम, बासीपन से उकता चुके हैं लोग

तमाम लंबी-चौड़ी लच्छेदार तहरीरों और विदेशी राष्ट्रप्रमुखों से गले मिलने के बावजूद आज भारत जितना अलग-थलग पड़ता दिख रहा है, वह चिंताकारक है। चीन या रूस से तो हम निबट भी लें, पर हमारे भीतर जो जातीय, धार्मिक और लिंगगत दरारें उभरती जा रही हैं, उनका क्या?

फोटो: सोशल मीडिया 
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मृणाल पाण्डे

प्रसिद्ध इतिहासकार आर्नल्ड टॉयनबी के अनुसार कोई सभ्यता कितनी स्वस्थ और टिकाऊ है यह जानने की असली कसौटी यह है कि वह सामने खड़ी चुनौती का ज़िंदादिली से मुकाबला कर सकती है या नहीं? चुनौतियां दो तरह की होती हैं: बाहरी और भीतरी। संसद में लाया गया अविश्वास प्रस्ताव हालांकि गिर गया लेकिन उस पर बहस के दौरान जो बातें विपक्ष ने कहीं, वे घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनो मोर्चों पर तमाम ऊपरी भव्यता के बावजूद सरकार के खोखलेपन को उजागर करती थीं। वह खोखलापन जिस पर, ’जे बिनु काज दाहिने बांयें’ स्वामिभक्तों के कारण सरकार की नज़र नहीं जाती या जाती भी है तो फिर पलट आती है, बिना किसी फैसले के। यह कहा जा सकता है कि उन उत्तेजक क्षणों में संसदीय मर्यादा कई बार ताक पर रख दी गई, लेकिन जब समाज में अंदरूनी असंतोष और खाइयां बढ़ रही हों, सरकार के वचनों और कर्मों के बीच जनता को खाई दिखती हो, संसद में बहस नहीं के बराबर होती हो, और प्रशासकीय संस्थाओं के सारे जीवकोष जर्जर और तालमेलरहित नजर आते हों, तो जनहित में कुछ हद तक असंसदीय हुए बिना सभ्यता की बहाली नामुमकिन है।

एक युवा लोकतंत्र के प्रमुख गुण क्या हैं? जनता की नज़रों में सबसे पहले उसमें ज़िंदादिल गर्म खून होना चाहिये ताकि वह लक्ष्य पाने के लिये सामने खड़ी (या बैठी) चुनौती से आंखों में आंखें डाल कर अपनी बात कह सके। दूसरे, ज़िंदादिल नेता के पीछे एक ज़िंदादिल दलों का समूह होना चाहिये जिनके बीच जनता की ही तरह शत्रु के दमन को समवेत झेलने और मुसीबतों और भागदौड़भरा जीवन जीते हुए एक गहरा भाईचारा बन गया हो। यह याद रखने लायक है कि जब विज्ञान दुनिया को एक बना रहा था तब बड़ी सभ्यतायें भी आत्मरक्षा और व्यापार के लिये परस्पर निर्भर बनीं। जाते-जाते भी अंग्रेज़ जो धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का यह कवच हमको थमा गये उसने हमको पहली बार दुनिया से बराबरी से सरोकार बनाने का अवसर दिया। लेकिन तमाम लंबी-चौड़ी लच्छेदार तहरीरों और विदेशी राष्ट्र प्रमुखों से गले मिलने के बावजूद आज भारत जितना अलग-थलग पड़ता दिख रहा है, वह चिंताकारक है। चीन या रूस से तो हम निबट भी लें, पर हमारे भीतर जो जातीय, धार्मिक और लिंगगत दरारें उभरती जा रही हैं, उनका क्या? यहां जनता के बीच लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में आस्था बहाल कराने की भारी ज़रूरत सामने उभरती है जिसका अभाव हमको तेज़ाब की तरह भीतर ही भीतर गला रहा है। अपनी निष्क्रियता या धर्मसापेक्ष सक्रियता छुपाने के लिये इधर सुहावने दार्शनिक बहानों की झड़ी लगा दी गई। विकास की डगर पर कछुआ बन चुके देश को नेता कह रहे हैं कि डार्विन गलत था। उसका विकासवाद निस्सार है और तात्विक दृष्टि से चिंपाज़ी के मनुष्य बनने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। चिकित्साशास्त्र में अमरीका हमको क्या नया सिखायेगा? हमारे यहां तो गणेश के समय से अवयव प्रत्यारोपण होते आये हैं।

इस तरह की बातें जब हद से अधिक की जायें और सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य कल्याण क्षेत्र सूखते बंजर होते जा रहे हों तो वे न सिर्फ उबाती हैं, उसकी तीखी प्रतिक्रिया भी होती है। कल विपक्ष के भाषणों को तथ्यों की कसौटी पर किसी हद तक कमज़ोर साबित कर भी दिया जाये तो यह साफ है कि अब अगर देश के युवा को प्रगति करनी है, तो नेतृत्व को अतीत को लेकर अपने भीतर एक स्वस्थ शत्रुता का भाव भी रखना होगा। ताकि कोई साधु या साध्वी कोई खाप पंचायत या मौलाना युवाओं के मौलिक संविधान प्रदत्त अधिकारों को परंपरा के नाम पर खारिज न करे। भारत में इतिहास का चक्र पूरे 360 डिग्री बहुत कम घूमा है पर जब मध्यकाल में वह घूमा तो उसने नियमनिरपेक्ष ज़िंदादिली के साथ सूखे पुराने पत्तों को झड़ा कर हमारे समाज को नये वेदबाह्य पंथ दिये, पुराने कर्मकांडी सनातन धर्म और पतनशील बौद्ध धर्मों को हटा कर युवा वर्ग को लोकभाषा में नई रचनाशीलता दी जिससे देश को पद्मावत, रामचरित मानस के अलावा अवर्ण समुदाय से भी अनेक संत रचनाकार, संगीतकार मिले।

लिहाज़ा, संसद में 20 जुलाई को देश के सामने (टीवी की कृपा से ) जो होता रहा और उस पर सारे देश से जो प्रतिक्रियायें सामने आ रही हैं, उससे साफ है कि लोग वातावरण में भरते जा रहे बासीपन से उकता चले हैं और बिना राज-समाज की दशा में सुधार हुए मलाईदार, लच्छेदार भाषण उनको अब बहुत दूर तक तुष्ट नहीं करेंगे। अराजक भीड़ के संदर्भ में शीर्ष से भारत की जिस सहिष्णुता का तर्क हम इधर बार-बार सुन रहे हैं, वह सहिष्णुता नहीं प्रशासकीय कमज़ोरी और दब्बूपन का प्रमाण है। शत-प्रतिशत सहिष्णु सिर्फ एक लाश होती है। और भारत का 80 प्रतिशत युवा निश्चय ही उस दशा को प्राप्त नहीं होना चाहेगा।

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