न अतीत का गौरव राग, न भविष्य की हैरत अंगेज़ कल्पना, ऐसा था प्रेमचंद का संसार

हिंदी के महान कहानीकार और साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की आज पुण्य तिथि है। आइए जानें उनके जीवन और उनकी रचनाओं के बारे में कुछ

मुंशी प्रेमचंद की फाइल फोटो
मुंशी प्रेमचंद की फाइल फोटो
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नवजीवन डेस्क

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा था, "अगर आप उत्तर भारत के लोगों के आचार-व्यवहार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं, तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता।“ आज इन्ही मुंशी प्रेमचंद की पुण्य तिथि है। आचार्य ने लिखा था कि, प्रेमचंद ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की हैरत-अंगेज़ कल्पना की। वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा की ये बंधन भीतर का है, बाहर का नहीं। एक बार अगर ये किसान, ये गरीब, यह अनुभव कर सकें की संसार की कोइ भी शक्ति उन्हें नहीं दबा सकती तो ये निश्चय ही अजेय हो जायेंगे।

प्रेमचंद हिंदी के युग प्रवर्तक रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। वे पहले उपन्यासकार थे जिन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलस्मी और ऐयारी से बाहर निकाल कर उसे वास्तविक भूमि पर ला खड़ा किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, उनके हालात और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। प्रेमचंद की रचनाओं को देश में ही नहीं विदेशों में भी आदर प्राप्त हैं। आज भी मुंशी प्रेमचंद और उनके साहित्य पर विश्व के उस विशाल जन समूह को गर्व है जो साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और सामंतवाद के साथ संघर्ष में जुटा हुआ है।

प्रेमचंद के युग-प्रवर्तक अवदान की चर्चा करते हुए डॉ॰ नगेन्द्र लिखते हैं : "प्रथमतः उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को 'मनोरंजन' के स्तर से उठाकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया। चारों और फैले हुए जीवन और अनेक सामयिक समस्याओं ने उन्हें उपन्यास लेखन के लिए प्रेरित किया।"

प्रेमचंद ने अपने पात्रों का चुनाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से किया है, किंतु उनकी दृष्टि समाज से उपेक्षित वर्ग की ओर अधिक रही है। प्रेमचंद जी ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को अपनाया है। उनके पात्र प्रायः वर्ग के प्रतिनिधि रूप में सामने आते हैं। घटनाओं ने विकास के साथ-साथ उनकी रचनाओं में पात्रों के चरित्र का भी विकास होता चलता है। उनके कथोपकथन मनोवैज्ञानिक होते हैं। प्रेमचंद जी एक सच्चे समाज सुधारक और क्रांतिकारी लेखक थे। उन्होंने अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर दहेज, बेमेल विवाह आदि का सबल विरोध किया है। नारी के प्रति उनके मन में स्वाभाविक श्रद्धा थी।

प्रेमचंद की भाषा सरल, सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है। इस कारण भाषा में स्वाभाविक उतार-चढ़ाव आ गया है। प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है। उनके हिंदू पात्र हिंदी और मुस्लिम पात्र उर्दू बोलते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण पात्रों की भाषा ग्रामीण है। और शिक्षितों की भाषा शुद्ध और परिष्कृत भाषा है।

डॉ॰ नगेन्द्र लिखते हैं : "उनके उपन्यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्दों के चुनाव एवं वाक्य-योजना की दृष्टि से उसे 'सरल' एवं 'बोलचाल की भाषा' कहा जाता है। पर भाषा की इस सरलता को निर्जीवता, एकरसता एवं अकाव्यात्मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए।

प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू दोनों की शैलियों को मिला दिया है। उनकी शैली में जो चुलबुलापन और निखार है वह उर्दू के कारण ही है। प्रेमचंद की शैली की दूसरी विशेषता सरलता और सजीवता है। प्रेमचंद का हिंदी और उर्दू दोनों पर अधिकार था, अतः वे भावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सरल और सजीव शब्द ढूँढ़ लेते थे। उनकी शैली में अलंकारिकता का भी गुण विद्यमान है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के द्वारा शैली में विशेष लालित्य आ गया है। इस प्रकार की अलंकारिक शैली का परिचय देते हुए वे लिखते हैं- ‘अरब की भारी तलवार ईसाई की हल्की कटार के सामने शिथिल हो गई। एक सर्प के भाँति फन से चोट करती थी, दुसरी नागिन की भाँति उड़ती थी। एक लहरों की भाँति लपकती थी दूसरी जल की मछलियों की भाँति चमकती थी।’

चित्रोपमता भी प्रेमचंद की शैली में खूब मिलती है। प्रेमचंद भाव घटना अथवा पात्र का ऐसे ढंग से वर्णन करते हैं कि सारा दृश्य आँखों के सम्मुख नाच उठता है उसका एक चित्र-सा खिंच जाता है। रंगभूमि उपन्यास के सूरदास की झोपड़ी का दृश्य बहुत सजीव है-

'कैसा नैराश्यपूर्ण दृश्य था। न खाट न बिस्तर, न बर्तन न भांडे। एक कोने में एक मिट्टी का घड़ा जिसको आयु का अनुमान उस पर जमी हुई काई से हो सकता था। चूल्हे के पास हांडी थी। एक पुरानी चलनी की भाँति छिद्रों से भरा हुआ तवा और एक छोटी-सी कठौत और एक लोटा। बस यही उस घर की संपत्ति थी।'

मुहावरों और सूक्तियों का प्रयोग करने में प्रेमचंद जी बड़े कुशल थे। उन्होंने शहरी और ग्रामीण दोनों ही प्रकार के मुहावरों का खूब प्रयोग किया है। प्रेमचंद की सी मुहावरेदार शैली कदाचित ही किसी हिंदी लेखक की हो। क्षमा कहानी में प्रयुक्त एक सूक्ति देखें-'जिसको तलवार का आश्रय लेना पड़े वह सत्य ही नहीं है।' प्रेमचंद जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट रूप से अंकित है।

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