सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’: दुख ही जीवन की कथा रही, फिर भी...

बहुत उतार-चढ़ाव आए लेकिन एक चीज निराला के जीवन में कभी नहीं बदली, वह थी उनके व्यक्तित्व का निरालापन। उनका विनोद जितना चर्चित था, गुस्सा उससे भी ज्यादा।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का विनोद जितना चर्चित था, गुस्सा उससे भी ज्यादा
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कृष्ण प्रताप सिंह

स्मृतिशेष सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को, इसके बावजूद कि वह सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर ‘प्रसाद’ और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य के छायावाद युग के चार स्तंभों में शामिल हैं, जितना उनके साहित्य के लिए जाना जाता है, उससे ज्यादा उनके विडंबनाओं भरे जीवन के लिए। शायद इसलिए कि उन्होंने इस जीवन का बड़ा हिस्सा अर्थ को ही अनर्थ का मूल बनते देखने को अभिशप्त होकर गुजारा। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि वह अपनी बेटी सरोज के असमय और विचलित करके रख देने वाले अंत से विह्वल होते, तो उसकी याद में अपने लंबे शोकगीत (जिसकी अब भारतीय भाषाओं के गिने-चुने शोकगीतों में गिनती की जाती है) में इन अनर्थों का बयान करते हुए ‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही’ जैसी रुला देने वाली पंक्ति लिखते और स्वीकारते: जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय। लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर, हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।

गौर कीजिए, वह कह रहे हैं कि अर्थार्जन के अनर्थकारी उपाय उन्हें मालूम थे, फिर भी उनकी राह जाने के बजाय उन्होंने स्वार्थ-समर हार जाना बेहतर समझा।

लेकिन बस, यही एक समय था, जो वह हारे। दु:खों और उनकी दारुणताओं की मजाल नहीं हुई कि वे उनको कोई और मोर्चा हरा पाएं। उनसे आत्मसमर्पण कराकर उनको ‘बदल डालना’ तो बहुत दूर की बात है। इसलिए दु:खों से गुजरकर वह कातर या दीन-हीन होने के बजाय पहले से ज्यादा ‘अक्खड़’, ‘उजड्ड’ और आत्म सम्मान सचेत हुए। उनको महाप्राण यों ही थोड़े कहा जाता है!

उनकी जगह कोई और होता तो तीन साल के होते-होते मां और बीस साल के होते-होते पिता को खोकर बदहाली के बीच संयुक्त परिवार का बोझ उठाते-उठाते ही अपनी सारी ‘अकड़’ ढीली कर बैठता। पहले महायुद्ध के बाद फैली महामारी में पत्नी मनोहरा देवी, के साथ चाचा, भाई और भाभी समेत अपने आधे परिवार को खोकर तो और भी। 

इनमें पत्नी मनोहरा देवी का निधन उनके लिए कितना बड़ा आघात था और उससे उबरने में उनको कितनी शक्ति लगानी पड़ी होगी, इसको ठीक से समझना हो तो जानना चाहिए कि उन्हें हिन्दी सेवा की सबसे ज्यादा प्रेरणा मनोहरा देवी ने ही दी थी। बकौल रामविलास शर्मा: निराला को जिस बात ने प्रभावित किया, वह था मनोहरा देवी का मधुर कंठ-स्वर। ‘श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन’ सुनकर पहली बार निराला के ज्ञान नेत्र खुले; उन्हें संगीत के साथ काव्य के अमित प्रकाश का ज्ञान हुआ। यह भजन निराला जीवन भर गाते रहे; इससे अधिक उनके हृदय को प्रभावित करने वाला दूसरा गीत संसार में न था। मनोहरा देवी गढ़ाकोला में रामायण पढ़ा करती थीं। निराला के चाचा दरवाजे पर बैठे सुनते थे। मनोहरा देवी ने निराला का परिचय खड़ी बोली से नहीं, तुलसीदास से कराया। तुलसीदास को ज्ञान मिला, पत्नी के उपदेश से; निराला को हिन्दी सेवा के लिए प्रवृत्त किया मनोहरा देवी ने!


जाहिर है कि निराला तनिक भी कमजोर पड़े होते तो मनोहरा देवी के जाने के बाद भी सारे जीवन उनके साथी बने रहे आर्थिक-संघर्ष उन्हें तोड़कर ही रख देते। लेकिन उनसे मुकाबला करते हुए न वह टूटकर बिखरे, न परिस्थितियों से समझौते का रास्ता अपनाया, न संघर्ष का साहस खोया। न अपनी चुनी हुई राह बदली, न ही आत्म सम्मान गंवाया। 

उनके आत्मसम्मान की एक अनूठी मिसाल 1938 की है, जब लखनऊ में नए-नए खुले रेडियो स्टेशन ने थोड़े ही अंतराल के बाद हिन्दी साहित्य का एक कार्यक्रम शुरू करने की सोची और उसे लखनऊ के हिन्दी साहित्यकारों की गंभीर बेरुखी का सामना करना पड़ा। दरअसल, रेडियो स्टेशन के कर्ताधर्ता इस कार्यक्रम के संयोजन का प्रभार लखनऊ के साहित्यकारों में से ही किसी को सौंपना चाहते थे। इसे लेकर उन्होंने अमृतलाल नागर से लेकर भगवतीचरण वर्मा तक से बात चलाई, लेकिन उन सबने हाथ जोड़ लिए। इसलिए कि रेडियो की उन दिनों की भाषा को लेकर उनको कई गंभीर एतराज थे। गुलामी के उस दौर में वहां हिन्दी के वर्चस्व की तो खैर कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।

अंततः रेडियो स्टेशन की ओर से अवधी के प्रसिद्ध कवि बलभद्रप्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ (1898-1943) से संपर्क किया गया। पढ़ीस भी किसी पहचान के मोहताज या किसी से कम नहीं थे। उन्होंने बापू के आह्वान पर अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और सीतापुर जिला स्थित अपने गांव में आम लोगों के बीच उन्हीं की तरह रहते और ‘अस्पृश्यों’ को शिक्षित करने के काम में लगे थे। तत्कालीन कुलीन ब्राह्मणों में चली आती इस रूढ़ि को उन्होंने सायास तोड़ डाला था कि उन्हें हल की मुठिया नहीं पकड़नी चाहिए। 1933 में उनका काव्य-संग्रह ‘चकल्लस’ प्रकाशित हुआ तो उनके समकालीन महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने उसे हिन्दी के तमाम सफल काव्यों से बढ़कर बताया था।

रेडियो स्टेशन से अपने जुड़ाव के कारण 'पढ़ीस' इस जिम्मेदारी को उठाने से इनकार नहीं कर सके और उसे स्वीकार कर लिया तो तय किया कि वे हिन्दी  कार्यक्रम का ऐसा धमाकेदार आगाज करेंगे कि दर्शक उसके मुरीद हो जाए।

उन दिनों हिन्दी काव्य जगत में ‘निराला’ की धूम थी, इसलिए उन्होंने निराला के काव्यपाठ से ही कार्यक्रम के श्रीगणेश की योजना बनाई। लेकिन निराला ने यह कहते हुए उनकी प्रार्थना ठुकरा दी कि जिस रेडियो स्टेशन पर शहजादा राम और उनकी बेगम सीता जलवा अफरोज और बादशाह दुष्यंत प्रकट हुआ करते हैं, वहां उनकी कविता भला कौन सुनेगा? 

लेकिन पढ़ीस ने हार नहीं मानी और कहा, ‘पंडित जी, आप अपने फैसले पर एक बार फिर से सोच लाजिए। रेडियो अब धीरे-धीरे बहुतों के पास पहुंचने लगा है। उस पर एक साथ लाखों लोग आपकी वाणी सुन सकेंगे।’ 

पढ़ीस ने कभी निराला को अंग्रेजी पढ़ाई थी। इस लिहाज से वह उनके गुरू होते थे। यह और बात है कि इसके बावजूद वह खुद को हमेशा उनका मित्र ही मानते थे। दोनों की मित्रता इतनी प्रगाढ़ थी कि 1933 में निराला ने पढ़ीस के काव्य संग्रह ‘चकल्लस’ की भूमिका में लिखा था कि वह हिन्दी के अन्य तमाम सफल काव्यों से बढ़कर है।


संभवतः इस सबका ही लिहाज करके निराला ने हामी भर दी और ठाठ से इक्के पर बैठकर रेडियो स्टेशन जा पहुंचे। लखनऊ के कथाकार नवनीत मिश्र ( जो अनाउंसर और न्यूज रीडर के रूप में इस रेडियो स्टेशन से कोई चार दशकों तक जुड़े रहे हैं) ने उस पर केन्द्रित अपनी एक पुस्तक में निराला के उस दिन रेडियो स्टेशन पहुंचने का जिक्र करते हुए लिखा है: निराला जी बड़े ठाठ से इक्के पर बैठकर रेडियो स्टेशन पहुंचे। छह फुट से भी ऊंचा कसरती शरीर, कंधे तक लहराते बाल, बढ़िया रेशमी कुर्ता, शांति पुरी धोती, चीनी कारीगर का बनाया हुआ डासन का पंप शू और हाथ में चांदी की मूठ वाली छड़ी… उनके पहुंचते ही रेडियो स्टेशन में तहलका मच गया। स्टेशन डायरेक्टर भागे-भागे आए और पूरे सम्मान के साथ महाकवि को अतिथि कक्ष में बैठाया।

स्वागत से गदगद निराला ने खुश होकर पढ़ीस को बताया कि वह कार्यक्रम में ‘राम की शक्तिपूजा’ कविता का पाठ करेंगे, जो उन दिनों बेहद चर्चा में थी। पढ़ीस स्वयं भी यही चाहते थे। प्रसारण के लिए शाम आठ बजे का समय तय था, लेकिन इससे पहले कि निराला को काव्यपाठ के लिए स्टुडियो ले जाया जाता, एक अनाउंसर की महत्वाकांक्षा ऐसी जागी कि उसने सारा गुड़ गोबर कर दिया। 

उसने पढ़ीस से कहा कि निराला जैसे महाकवि के रेडियो पर पहले काव्यपाठ के अनाउंसमेंट का इतिहास वह बनाएगा। नवनीत मिश्र के अनुसार, यह अनाउंसर रेडियो के एक बड़े अधिकारी का चहेता था, इसलिए पढ़ीस उसे मना नहीं कर सके। अनाउंसर ने पढ़ीस द्वारा अनाउंसमेंट के लिए हिन्दी में लिखी इबारत को रोमन अक्षरों में लिखा और निराला को लेकर स्टुडियो जा पहुंचा। तब तक रिकार्डिंग करके प्रसारण की सुविधा उपलब्ध नहीं थी और स्टूडियो में प्रसारक और अनाउंसर साथ बैठते और एक ही माइक से बोलते थे।

खैर, वक्त हुआ और हिन्दी से अनभिज्ञ अनाउंसर ने अनाउंस किया- ‘अब होगा कबीता पाठ। कबी हैं सूर्याकान्ता त्रिपाठा निराली।’ 

निराला को उसकी यह बदतमीजी हजम नहीं हुई और उन्होंने आपा खो दिया। गुस्से में कांपते हुए अनाउंसर की गरदन इस तरह जकड़ ली कि रेडियो पर उनके स्वर में ‘राम की शक्तिपूजा’ के बजाय उसकी घुटी-घुटी सांसें गूंजने लगीं।

कार्यकम सहायक ने किसी तरह यह दृश्य देखा तो उसके हाथ-पांव फूल गए। उसने कंट्रोलरूम को स्टूडियो से संपर्क काटकर फिलर बजाने को कहा और पढ़ीस को सूचित किया। पढ़ीस भागे-भागे आए और निराला से बहुत अनुनय-विनय करके अनाउंसर की गरदन उनके पंजे से छुड़ाई। उनसे निवेदन किया कि वह स्टेशन डायरेक्टर के पास बैठें। फिर वह सुरुचिपूर्ण नए अनाउंसमेंट के साथ उनके काव्यपाठ की व्यवस्था करा देंगे। 

लेकिन निराला सातवें आसमान से नीचे नहीं उतरे। बोले, ‘पढ़ीस, मैं बहुत गुस्से में हूं। पुरानी मित्रता है, इसलिए तुम्हें छोड़ दे रहा हूं। लेकिन स्टेशन डायरेक्टर के पास ले चलोगे, तो उनका भी इसके जैसा हाल करूंगा।’ 

आगे के हाल की बस कल्पना ही की जा सकती है। हां, उस रोज न लखनऊ रेडियो स्टेशन अपना पहला हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित कर पाया, न निराला उस पर अपना पहला काव्य पाठ कर सके। अलबत्ता, इसे लेकर कई लोगों का कहना था कि भले ही उनकी ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता का प्रसारण नहीं हुआ, उनके द्वारा की गई शक्ति पूजा का प्रसारण तो हुआ ही-अनाउंसर की घुटी-घुटी आवाज के रूप में।