संपादकीय : लोकतंत्र विरोधी स्मृतियों और शाहों के सलाह-पत्र

सिरसा के बाबा के रक्षार्थ जो सरकारी सलाह मीडिया को दी गयी है, वह दुनिया की लोकतंत्र विरोधी सारी काली स्मृतियों की छाया देश पर डाल रही है।

 फोटो : Getty Images
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नीलाभ मिश्र

जब पिछले वर्ष 14 नवंबर को पंडित जवाहर लाल नेहरू की 127वीं जयंती पर हमने अपनी अंग्रेजी की वेबसाइट लांच की थी, तब हमने कहा था कि दुर्भावना के स्वामियों के जहर के बावजूद हम पुनर्जीवित होकर वापस आ गए हैं। तब वह जहर सामने नजर आता था और कुछ लोग जहर उगलने वाले स्वामियों के भ्रमजाल में शायद भ्रमित भी हो गए। लेकिन अब सिरसा के बाबा के रक्षार्थ जो सरकारी सलाह मीडिया को दी गयी है, वह दुनिया की लोकतंत्र विरोधी सारी काली स्मृतियों की छाया देश पर डाल रही है। सलाह के बाद जयशंकर प्रसाद की कुछ पंक्तियां अनायास जहन में आयी:

जो घनीभूत पीड़ा थी

मस्तक में स्मृति सी छायी है

देश के लोकतांत्रिक मानस में स्वतंत्रता संघर्ष की वह तमाम घनीभूत स्मृतियां, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक महत्वपूर्ण घटक थी, वह उस जमाने के दमन, इमरजेंसी की कुछ असोची सेंसरशिप, पड़ोसी देशों में अभिव्यक्ति की आजादी पर फौज का कहर, यूरोप में तीस के दशक से शुरु होकर लगभग 1945 तक अभिव्यक्ति के दमन की काली छायाओं से घुलमिलकर अब भारत के जनतांत्रिक मानस की एक घनीभूत पीड़ा और भय में परिवर्तित हो गयी है।

जी हां, हम सूचना एंव प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी के प्रेस को जारी ताजातरीन सलाह-पत्र की बात कर रहे हैं। इस सलाह पत्र में कहा गया है:

इस तरह की जुमलेबाजी के लिए अंग्रेजी में शब्द है ‘शूट द मैसेंजर’, यानी आप हालात को सुधार सकते नहीं, जो हालात बिगड़ने की तरफ इशारा कर रहा हो उसे गोली मारने के आदेश दे रहे हैं। सिरसा के मुजरिम बाबा और ऐसे अनेक बाबाओं के लिए माहौल बनाने वाली सत्तारुढ़ पार्टी के सांसद साक्षी महाराज अब भी खुलकर बलात्कारी बाबा का पक्ष ले रहे हैं। उन्हें न तो सत्तारुढ़ पार्टी ने और न सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार ने कोई सलाह-पत्र जारी किया। बल्कि, उलटा उन्हें जारी किया, जो इस मुजरिम परस्ती को जनता के सामने ला रहे थे।

ठीक है, दृष्टिकोण पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन तथ्यों के खिलाफ, सामने घटित हो रहे हिंसक नाटक के खिलाफ जो तथ्य साफ दिख रहे हैं, उनसे कैसा मतभेद? उनके खिलाफ सलाह-पत्र आजादी के खिलाफ एक सलाह-पत्र है, और अगर सरकार की तरफ से आता है तो यह सलाह-पत्र नहीं आदेश-पत्र है। इसके बाद किसी को शक नहीं होना चाहिए कि क्यों अधिकांश मीडिया आज एक स्वर से एक ही तरह की बात बोलता है, एक ही तरह के राष्ट्रवाद का स्तुतिगान करता है, एक ही तरह के पुरातनपंथी सोच का गुणगान करता है।

यह सवाल तक नहीं किया जाता कि महात्मा गांधी जैसी हस्ती ने आदिवासियों के बारे में वह नहीं कहा था जो झारखंड में हमारे राजनीतिक रहनुमा बता रहे हैं। या गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने कल एक भाषण में महात्मा गांधी को गलत उदधृत करते हुए कहा कि गांधी का रामराज्य असल में राम के उन बाणों के राज्य की बात करता है जो दरअसल आज के इसरो के मिसाइल से उन्नत मिसाइल थे। या राम की इंजीनियरिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर आज की इंजीनियरिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर के ज्ञान से कही ज्यादा उन्नत थी। आश्चर्य यह कि लोकतंत्र विरोधी स्मृतियों के खौफ में जी रहा मीडिया इस तरह की ऊलजलूल बयानबाजियों पर कोई सवाल नहीं उठाता, सिवाय एकाध अपवाद के।

जरूरत लोकतंत्र विरोधी स्मृतियों के खौफ से इस देश को आजाद करने की है, जो खौफ बार-बार लिंचिंग (एक अभारतीय कार्रवाई, क्योंकि किसी भारतीय भाषा में इस शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता), अपने को भारतीय और राष्ट्रीय कहने वाली शक्तियां बार-बार इस देश में अल्पसंख्यकों, कमजोर तबकों, बुद्धिजीवियों का मनोबल तोड़ने के लिए बार-बार अंजाम दे रही हैं। ध्यान रहे, ये लिंचिंग सिर्फ शारीरिक नहीं है, हालांकि इसकी शारीरिक भयानकता पूरी सच्चाई के साथ पूरे देश में पसरी हुई है। ये लिंचिंग कानून का दुरुपयोग कर विरोधियों को सताने के रूप में भी दिखायी पड़ती है। जी हां, ये लिंचिंग सिर्फ शारीरिक नहीं, ये भारतीय लोकतंत्र की आत्मा की लिंचिंग है, जिसमें दुर्भावना की स्मृतियों और शाहों के सलाह-पत्र भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।

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Published: 28 Aug 2017, 1:43 PM
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