मुनासिब नहीं है मिथक और इतिहास का घालमेल : उदय प्रकाश अरोड़ा

मिथक और इतिहास में अंतर है। इतिहास मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की उपलब्धियों के बारे में लिखने की विधा है। जबकि मिथकों में चमत्कार घटते हैं।

ग्रीक इतिहासकार हिरोडोटस
ग्रीक इतिहासकार हिरोडोटस
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प्रभात सिंह

भारत और यूनान के सांस्कृतिक संबंधों के हवाले से इतिहास की पुनर्व्याख्या प्रो। उदय प्रकाश अरोड़ा की ख़ास पहचान है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और रुहेलखंड विश्वविद्यालय में चार दशकों तक प्राचीन इतिहास पढ़ाने के बाद करीब आठ साल तक जेएनयू में ग्रीक चेयर के अध्यक्ष रहे। भारत और यूनान के इतिहास पर कई किताबें लिखी हैं। 1996 में उन्हें यूनान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘ऑनर ऑफ ऑर्डर गोल्डेन क्रॉस‘ से भी नवाज़ा गया। इन दिनों एलेग्ज़ेंडर पर अपनी किताब को अंतिम रूप देने में लगे हैं।

मिथकों और पौराणिक आख्यानों के इतिहास में घालमेल और राजनीतिक कारणों से इतिहास बदलने की कोशिशों से इतिहास बोध और सामाजिक चेतना पर पड़ने वाले प्रभाव और इसके ख़तरों पर उन्होंने प्रभात से विस्तार से बात की। इसी बातचीत के अंशः

प्रोफेसर उदय प्रकाश अरोड़ा/फोटो-प्रभात सिंह
प्रोफेसर उदय प्रकाश अरोड़ा/फोटो-प्रभात सिंह

इतिहास के पुनर्लेखन और ऐतिहासिक घटनाओं की पुनर्व्याख्या की कोशिशें इन दिनों फिर से चर्चा में हैं। पौराणिक आख्यानों और मिथकों को इतिहास साबित करने के आग्रह भी नए नहीं हैं। मिथकों का इतिहास में घालमेल हमारे इतिहास बोध और सामाजिक चेतना को किस तरह प्रभावित करता है? इसका नतीजों पर आपका नज़रिया क्या है?

हिस्ट्री का अर्थ ही है इनक्वायरी यानी इतिहास अतीत की पड़ताल है। अतीत की घटनाओं की पड़ताल का ब्योरा इतिहास गढ़ता है। मिथक और इतिहास में अंतर है। इतिहास मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की उपलब्धियों के बारे में लिखने की विधा है। जबकि मिथकों में चमत्कार घटते हैं। ऐसे अतिमानवीय क्रियाकलापों का इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है। इसे होमर के ‘इलियड’ और हिरोडोटस के ‘हिस्टोरिया‘ की तुलना से बेहतर समझा जा सकता है। दोनों ही ग्रंथों में युद्ध का ब्योरा है, नायक भी हैं मगर ‘हिस्टोरिया‘ के ब्योरे हिरोडोटस के अनुभूत हैं। वह इतिहास है। इस लिहाज़ से हमारे यहां एक ही ऐतिहासिक ग्रंथ मिलता है- कल्हण रचित ‘राजतरंगिणी’, जिसमें कश्मीर का इतिहास है और जिसे आधुनिक अर्थों में हम इतिहास कह सकते हैं।

दुनिया भर में साहित्य-संस्कृति को समृद्ध करने में मिथकों का इस्तेमाल होता आया है, हमारे यहां भी ख़ूब हुआ है। हर भाषा में कहानी, कविता, उपन्यास या नाटकों में मिथकों और पौराणिक आख्यानों के इस्तेमाल की तमाम नज़ीरें हैं। मिथक रुचिकर होते हैं, उनस प्रेरणा लेने या उसमें आनन्द पाने में कोई हर्ज भी नहीं है मगर मिथक जब धर्म का अंग बन जाते हैं तो उसमें आस्था पैदा हो जाती है। इस आस्था के चलते ही लोग उसमें सत्य की कल्पना करने लगते हैं। इससे तमाम तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। उदाहरण के लिए ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में यहूदियों की भूमि को लेकर एक मिथक है। लेकिन आधुनिक युग में उस मिथक भूमि को हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ी जाए, जिसका कोई इतिहास नहीं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। राम जन्मभूमि का मसला भी इसी तरह का है। मिथकों को सच मानकर यक़ीन करने, इन पर गौरव करने की प्रवृति का बड़ा ख़तरा यह है कि इससे हमारी तर्क शक्ति और विवेक ख़त्म होते हैं। यह विज्ञान के विरुद्ध है, इसलिए हमारे आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध होता है।

दुनिया के दूसरे देशों में विद्वानों ने इतिहास को मिथक से अलग करने और अलग रखने के जतन किए हैं। हमारे यहां भी हुए मगर शायद उतने प्रभावी ढंग से नहीं।

इतिहास लेखन में किसी ख़ास राजनीतिक विचारधारा की छाया या दबाव के आरोप अक्सर लगते हैं। आप इसे किस तरह देखते हैं?

जब आप विज्ञान की दूसरी विधाओं में काम कर रहे होते हैं तो आपका वास्ता जड़ चीजों से पड़ता है। आप निरपेक्ष रहकर काम करते हैं और ठोस नतीजों तक पहुंचते हैं। इतिहास लेखन इन अर्थों में भिन्न है। इतिहास की प्रयोगशाला में आपका साबका मनुष्य और उसके काम से पड़ता है। मनुष्य होने के नाते इतिहासकार के अवचेतन में उसकी अपनी संस्कृति, संस्कार और विचार भी काम कर रहे होते हैं। उसके अपने पूर्वाग्रह भी काम करते हैं। ऐसे में ज़रूरी नहीं कि उसके निष्कर्ष पूरी तरह वस्तुनिष्ठ हों। यही वजह है कि इतिहास पूर्ण सत्य नहीं हो सकता है। हां, कोशिश करके आप पूर्वाग्रहों को कम ज़रूर कर सकते हैं। विज्ञान की कोई एक अवधारणा पूरी दुनिया में एक तरह से ही समझी और मानी जाती है। इतिहास के साथ ऐसा नहीं। तैमूर अगर हिन्दुस्तान में लुटेरा था तो उजबेकिस्तान में फादर ऑफ नेशन, चंगेज़ खां ने पूरी दुनिया में लूटपाट की लेकिन मंगोलिया में राष्ट्रपिता माना गया, नादिर शाह की हमारे यहां की छवि से ईरान में उसकी छवि एकदम अलग है, जिन्ना को हम कैसे देखते हैं और पाकिस्तान में वह कैसे देखे जाते हैं? या फिर गांधी। यानी एक ही शख्स दुनिया में अलग-अलग तरह से देखा-समझा जा रहा है। विज्ञान के मामले में तो ऐसा नहीं है, समाज शास्त्र या अर्थशास्त्र में भी ऐसा नहीं मगर दुनिया के अलग-अलग देशों में इतिहास बदल जाता है। एक ही देश के अलग-अलग प्रांतों में इतिहास बदल जाता है। सरकारें बदलती हैं तो इतिहास बदल जाता है। यह इतिहास के साथ खिलवाड़ के सिवाय और कुछ नहीं। सत्ता परिवर्तन से समाज परिवर्तन तो नहीं हो जाता। ऐसे में समय-समय पर हुए सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक परिवर्तन इतिहास का विषय हैं, न कि घटनाएं जिनके निहितार्थ बदले जा सकते हों।

आज के दौर की बड़ी समस्या इतिहास में गुणवत्ता के ह्रास की है। सत्ता बदलने के साथ ही स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास में बदलाव पर ज़ोर रहता है, इतिहास के नाम पर बच्चों के अपरिपक्व दिमाग़ पर ऐसी सूचनाएं थोपी जा रही होती हैं, जिनकी सच्चाई जानने का कोई पैमाना नहीं। मेरी राय में इस तरह के इतिहास की पढ़ाई बंद कर देना ही अच्छा। बच्चों को इतिहास के बजाय यह बताया जाना ज़रूरी है कि इतिहास बनता कैसे है, इमारतों से, वास्तु शैली और कला के नमूनों से, सिक्कों से, ऐसे और तमाम माध्यम हैं इतिहास के निर्माण की प्रक्रिया समझाने के। पाठ्यक्रम के तौर पर इतिहास उच्च शिक्षा का विषय हो, उस समय जब पढ़ने वालों का मस्तिष्क परिपक्व हो चुका होता है।

महाराणा प्रताप और अकबर के बीच लड़ाई को रियासत बचाने की लड़ाई के बजाय हिन्दू राजा और मुगल बादशाह की लड़ाई साबित करने की कोशिश करने वाले नेता और राष्ट्रवादी यह भूल जाते हैं कि मानसिंह समेत तमाम हिन्दू राजाओं और मुस्लिमों ने भी अकबर की सरपरस्ती क़बूल की थी। बाबर जब हिन्दुस्तान आया तो उसने हिन्दू राजाओं को नहीं, इब्राहिम लोदी को मारा था।

तो फिर जो ऐतिहासिक दस्तावेज़ हमारे यहां उपलब्ध हैं, उनके आधार पर इतिहास लेखन को विश्वसनीय नहीं मानने या फिर उनमें तरमीम की ज़रूरत क्यों पड़ती है? भगत सिंह के बारे में विपन चंद्रा के लिखे को नकारने से लेकर हाल ही में हल्दी घाटी युद्ध और उसके नतीजों को लेकर असहमतियां ऐसी ही नज़ीर हैं।

हमारे यहां इतिहास के विद्वानों का कहना है कि यह नहीं कह सकते कि हिन्दुस्तान में इतिहास दर्ज करने का चलन नहीं था। यह सही है कि वह आधुनिक अर्थों में इतिहास नहीं था मगर हमारा अर्थ और हमारी इतिहास की व्याख्या अलग है। वे कहते हैं कि अतीत के बारे में दो मत हो सकते हैं, एक अतीत जो मृत हो चुका है का और एक वह जो जीवंत है। दुनिया में ज्यादातर लोगों ने जो लिखा वह बीत चुका ऐसा वृतांत था, जिसे विस्मृत हो जाने से बचाने के लिए रिकॉर्ड कर लिया गया। हेरोडोटस ने माना कि ईरान और यूनान के बीच युद्ध की घटनाओं की स्मृति ख़त्म न हो जाए, इसलिए दर्ज कर लिया जाए। हिन्दुस्तान में घटनाओं का ब्योरा पीढ़ियों तक मौखिक ढंग से सहेजे जाने की परंपरा चली आई है। धार्मिक मेले में जुटने वाले पंडे ख़ास कुल का वृतांत सहेजते आए हैं तो लोक गायन और लोक कथाओं में भी ऐतिहासिक घटनाओं के ब्योरे मिलते हैं। जैसा मैंने पहले कहा कि असहमत होने की ज़रूरत ही तब पड़ती है, जब पहले का लिखा हुआ हमारी मान्यताओं पर खरा नहीं उतरता।

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Published: 08 Aug 2017, 6:24 PM