सिनेमा

मदर्स डे विशेष: पिछले कुछ दशकों में बहुत बदल गई है हिंदी सिनेमा की ‘मां’

अब हिंदी फिल्मों की मां महज़ एक प्रताड़ित ‘त्याग तपस्या और बलिदान’ की मूर्ति नहीं, एक हाड़-मांस की औरत है जो अपनी ख़ुशी और अपने सरोकारों को ताक़ पर रख कर सिर्फ अपने बच्चे के बारे में ही नहीं सोचती।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया हिंदी फिल्मों में ‘मां’ का ऐतिहासिक किरदार निभाने वाली नरगिस और निरूपा रॉय

हम भारतीय अपनी महिलाओं से चाहे कैसा भी बर्ताव करें, लेकिन मां को देवी का दर्ज़ा देते रहे हैं। भारत भी ‘माता’ है और जिस जगह हमारा जन्म होता है उसे भी मातृभूमि कहां जाता है। मां हमेशा से स्त्री-पुरुष से परे ‘त्याग तपस्या और बलिदान’ की साक्षात् प्रतिमूर्ति होती है। हमारी हिंदी फ़िल्में भी मां की कुछ यही छवि दिखलाती रही हैं। लेकिन जैसे-जैसे समाज बदला है और समय भी, फ़िल्मी मां की छवि भी बदलाव के दौर से गुजरी है।

वर्ष 1957 में रिलीज़ हुई ‘मदर इंडिया’ ने मां की एक सशक्त छवि जनमानस पर अंकित की थी। फिल्म में मां यानी राधा का किरदार निभाया था नर्गिस ने, जो इस समाज की नाइंसाफी से विद्रोह कर एक डाकू बने अपने बेटे बिरजू (सुनील दत्त) को आखिरकार मार डालती है, उसी समाज की बेहतरी की खातिर जो उसकी मुश्किलों से भरी ज़िन्दगी के लिए ज़िम्मेदार है। दर्शक उस वक्त भाव विह्लव हो जाते थे जब राधा अपने बेटे बिरजू पर बन्दूक तानती है, और बिरजू कहता है – ‘तू मुझे नहीं मार सकती, तू मेरी मां है।’ लेकिन राधा अपने भीतरी कशमकश को झेलते हुए भी उस पर गोली चला देती है।

फिल्म के संवाद ज़बरदस्त थे और एक औरत के अन्दर मां और औरत के बीच चलती जद्दोजहद को बहुत असरदार तरीके से ज़ाहिर करते थे। ‘संसार का भार उठा लोगी देवी, ममता का भार नहीं उठाया जायेगा। मां बन कर देखो, तुम्हारे पांव भी डगमगा जायेंगे!’ जैसे संवाद बहुत मशहूर हुए थे और आज भी याद किये जाते हैं।

फिल्म ना सिर्फ बहुत हिट हुयी थी, बल्कि उसके बाद आने वाली फिल्मों में भी ‘मां’का किरदार लगभग मदर इंडिया की तर्ज़ पर ही तय किया जाने लगा। आम बोलचाल में भी मदर इंडिया शब्द का इस्तेमाल उन महिलाओं के लिए होने लगा जो अपने परिवार के हित में अपना सब कुछ कुर्बान कर देती हैं (ऐसा तकरीबन सभी माएं करती हैं, भारतीय माएं तो खास तौर पर)।

उसके बाद अगर फिल्मों में मां के किरदार का ज़िक्र होता है तो खुद-ब-खुद निरूपा रॉय का चेहरा आंखों में घूम जाता है। 1975 में अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘दीवार’ ने उनकी ‘एंग्री यंगमैन की छवि को तो स्थापित किया ही, निरूपा रॉय को भी एक ऐसी मां के तौर पर पॉपुलर कर दिया जो अपने बेटे के लिए सौ-सौ आंसू रोती है, उस पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकती है, लेकिन अपने उसूल नहीं। ‘मेरे पास मां है!’ इस फिल्म के कुछ यादगार संवादों में से एक है। उसके बाद तो हिंदी फिल्म में निरूपा रॉय का नाम का ‘मां’ के किरदार से अटूट रिश्ता बन गया। उन्होंने एक के बाद एक फिल्मों में अमिताभ बच्चन की मां का रोल किया और फिर अन्य नायकों की मां भी बनीं। मगर छवि वही थी - एक भली सी स्नेहमयी मेलोड्रॉमेटिक मां की, जो अपने बेटे के लिए कुछ भी कर सकती है। दरअसल उनका नाम उसी तरह ‘मां’ का पर्याय बन गया जैसे अमरीश पुरी का नाम ‘विलेन’ का और अमजद खान का नाम गब्बर सिंह का।

इस बीच मां के रोल में आयीं दीना पाठक। दीना पाठक की ‘मां’ कुछ अलग थी। याद है ‘खूबसूरत’ में नायक की मां ‘निर्मला’, जिसकी परदे पर एंट्री होते ही सन्नाटा छा जाता था? निर्मला के सख्त अनुशासन को चुनौती देती है नायिका मंजू। गोलमाल (1979) में दीना पाठक एक अलग किस्म के मां के किरदार में थीं। वो एक तरफ एक सोशलाइट हैं तो दूसरी तरफ नायक की नकली मां का रोल निभाती है, जो खालिस मेलोड्रामेटिक सेंटीमेंटल भारतीय मां है। हालांकि उनका ‘थोड़ा हट कर’ मां वाला किरदार निरूपा रॉय या नर्गिस जितना लोकप्रिय नहीं हो सका, लेकिन उनके किरदार के ज़रिये इस बात की आहट मिलने लगी थी कि अब फ़िल्मी मां की छवि बदलने वाली है।

फिर आयीं मां के किरदार में फरीदा जलाल एक और हिट फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ (1995) में। फिल्म में फरीदा जलाल नायिका की मां के रोल में थीं। शायद पहली बार हिंदी फिल्म में मां का ऐसा किरदार पेश किया गया जो अपने बेहद सख्त और हुक्म चलाने वाले पति की भीरु पत्नी है। बाकायदा फिल्म में एक अहम दृश्य है जिसमे फरीदा जलाल अपनी बेटी यानी काजोल को समझाती है कि औरत की सारी ज़िन्दगी समाज के दिए किरदारों को निभाते गुज़र जाती है, वह अपनी ख़ुशी पर ध्यान ही नहीं दे पाती। इसलिए अभी वक्त है, उसे अपने पिता के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और अपने प्रेमी के साथ घर से भाग जाना चाहिए।

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इसके बाद हिंदी फिल्मों में मां का किरदार बदलने लगा। वो चाहे दोस्ताना (2008) की मां (किरण खेर) हो, या ‘कल हो ना हो’ की मां (रीमा लागू), अब माएं कुछ प्रोग्रेसिव होने लगीं। एक बड़ा बदलाव ये कि अब हिंदी फिल्मों की मां के सरोकार समाज और उसूलों से ज्यादा अपने बच्चे और परिवार तक ही केन्द्रित होने लगे। चीनी कम (2007) में जोहरा सहगल एक ऐसी मां के रोल में नज़र आयीं जो अपने बेटे से सेक्स वगैरह जैसे विषय (जो अब तक हिंदी फिल्मों में कभी खुले तौर पर डिस्कस नहीं किये गए) पर भी खुल कर बात करती है। मॉम (2017) और मातृ (2017) की मां अपनी बेटी पर हुए अत्याचार का बाकायदा बदला लेती हैं तो ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ की मां को उसकी बेटी एक औरत के तौर पर भी समझती है और जब अपने पिता को उस पर अत्याचार करते देखती है तो साफ़ कहती है कि उसे अपने पति को छोड़ देना चाहिए।

‘मां’ के किरदार में ये एक बड़ा बदलाव है कि अब हिंदी फिल्मों की मां महज़ एक प्रताड़ित ‘त्याग तपस्या और बलिदान’ की मूर्ति नहीं, एक हाड़-मांस की औरत है जो अपनी ख़ुशी और अपने सरोकारों को ताक़ पर रख कर सिर्फ अपने बच्चे के बारे में ही नहीं सोचती। वह चाहे तो एक व्यक्ति के तौर पर अपने पति से अलग रह कर भी अपनी संतान से जुड़ी रह सकती है या फिर अपने समाज से विद्रोह भी कर सकती है। लेकिन अब भी हमारे समाज की तरह ही फिल्मों को भी ज़रा और वक्त लगेगा ‘मां’ के किरदार को पहले एक ‘औरत’ के तौर पर समझने और स्वीकार करने में।

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