लड़कियों की परवरिश में जितना भेदभाव हमारे देश में है, उतना और कहीं नहीं है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे लगातार दिए जाते हैं, पर लड़कियों की हालत में कहीं से सुधार नहीं दिखाई देता है। भ्रूण हत्या के द्वारा बहुत सारी लड़कियां पैदा होने के पहले ही मार दी जाती हैं। जो पैदा होती हैं, उनमें भी अधिकतर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भेदभाव का शिकार होती हैं। यही भेदभाव प्रति वर्ष पांच वर्ष से कम उम्र की 2,39,000 लड़कियों को मार डालता है। ध्यान रहे कि यह संख्या भ्रूण-हत्या से अलग है। यह एक सोचा-समझा सामूहिक नरसंहार है, जिसे कोई नहीं देखता।
यह अध्ययन ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस के दल ने किया है और इसे लांसेट ग्लोबल हेल्थ के नए अंक में प्रकाशित किया गया है। अध्ययन के अनुसार यह अतिरिक्त मृत्यु दर भारत में जन्म लेने वाले प्रति हजार पर 18.5 है। देश के कुल 640 जिलों में से लगभग 90 प्रतिशत जिलों में यह समस्या है। पर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में यह समस्या विकराल है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, मेघालय और नागालैंड में लड़कियों की यह अतिरिक्त मृत्यु दर प्रति हजार जन्म पर 20 या उससे भी अधिक है। इस सन्दर्भ में सबसे बदतर हालत उत्तर प्रदेश की है, जहां यह दर 30 से भी ऊपर है। अध्ययन की सह-लेखक क्रिस्तिफ़ी गिलमोतो के अनुसार, भारत में लैंगिक असमानता इस हद तक है कि आप लड़कियों को केवल पैदा होने से ही नहीं रोकते, बल्कि पैदा होने के बाद भी परवरिश, खानपान, टीकाकरण, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि में भी भेदभाव करते हैं। स्पष्ट तौर पर लड़कियों का लालन-पालन लड़कों की तुलना में उपेक्षित ही रहता है।
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इस रिपोर्ट का एक दिलचस्प पहलू यह है कि सवर्ण हिन्दू समाज में यह भेदभाव अधिक है। अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि जहां भी अनुसूचित जनजाति या फिर मुसलामानों की संख्या अधिक है, वहां यह अतिरिक्त मृत्यु दर कम हो जाती है।
यह अपने तरह की पहली रिपोर्ट है, जिससे इतना तो समझा जा सकता है कि थोड़ा सा ध्यान देकर और बिना भेदभाव के यदि लड़कियों की परवरिश की जाए तो प्रतिवर्ष 2,39,000 लड़कियों को अकाल मृत्यु से बचाया जा सकता है। सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को देखना होगा कि वे समाज की इस सोच को कैसे बदल सकते हैं, वरना नए नारे गढ़े जाते रहेंगे और लड़कियां मरती रहेंगी।
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