किसान लगातारकृषि उत्पादों की कीमतें गिरने के कारण गुस्से में थे। लेकिन उनकी बदहाली पर तब तक ध्यान नहीं गया, जब तक जून में मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में पुलिस गोलीबारी में 5 किसानों की मौत नहीं हो गई।
इसके बाद देश भर में कई विरोध-प्रदर्शन हुए और किसानों ने अलग-अलग आंदोलनों के जरिए अपना गुस्सा जाहिर किया। 8 नवंबर, 2016 को लागू हुई नोटबंदी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तोड़ कर रख दिया था।
बीजेपी द्वारा 2014 के चुनाव अभियान में किए वादे को पूरा नहीं करने को लेकर किसान गुस्से में थे। चुनाव के दौरान वादा किया गया था कि किसान अपनी लागत पर 50 फीसदी लाभ प्राप्त करने में सक्षम होंगे, विशेषकर तब जब कीमतों में भारी गिरावट होगी। लेकिन हैरत की बात यह है कि किसान अपनी लागत की रकम भी वसूल नहीं कर सके।
पंजाब के मनसा जिले के पवित्र सिंह देश भर के किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने कहा, “बड़े-बड़े वादों को छोड़िए, जो गेहूं हमने उपजाया, उनका हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तक प्राप्त नहीं हुआ। नोटबंदी के डंक के कारण हमारे पास अगली बुआई के लिए पैसे तक नहीं हैं। हमें अपने कर्ज चुकाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।”
उन्होंने कहा, “उनके इलाके के किसान अपने चावल को 1,200 से 1,250 रुपये प्रति क्विंटल पर बेचने के लिए मजबूर हैं, फिर भी कोई खरीदार नहीं है। जबकि सरकार ने एमएसपी 1,510 रुपये प्रति क्विंटल तय किया हुआ है।
कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा ने कहा कि सरकार की कृषि नीतियां, विशेषकर जो आयात और निर्यात से जुड़ी हैं, एक बड़े विस्तार के कारण लगभग टेढ़ी हो गई हैं। जिसके कारण स्थानीय बाजारों में कीमतें गिर रही हैं।
उन्होंने कहा, “कृषि संकट के लिए दो कारक खासतौर से जिम्मेदार हैं। पहला नोटबंदी और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गिरावट। सरकार दालें, गेहूं और नारियल आयात करती है, जबकि इनका स्थानीय उत्पादन काफी ऊंचा है। आयात मूल्य कुल कृषि बजट से ज्यादा होता है।”
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में इस साल सरकार द्वारा अधिप्राप्ति को रोकने के बाद दालों की कीमतों में गिरावट के कारण बहुत सारे विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें अरहर दाल विशेष है।
2014 में सत्ता में आने के बाद कृषि मोर्चे पर बीजेपी सरकार के लिए लगभग तीन साल बड़े शांति से गुजरे, लेकिन मंदसौर की गोलीबारी ने इस शांति को अशांति में बदल दिया और केंद्र सरकार को एक नए मोड़ पर खड़ा कर दिया। इस मुद्दे से केंद्र सरकार की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस मुद्दे पर कृषि संघों और विपक्षी दलों ने सरकार का कड़ा विरोध किया और इसी के चलते कुछ प्रमुख सहयोगियों ने सत्तारूढ़ गठबंधन छोड़ दिया।
इसी गुस्से का नतीजा था कि दिसंबर 2017 में हुए गुजरात चुनाव में जीत के आंकड़े तक बीजेपी लगभग लड़खड़ाते हुए पहुंची। गुजरात को कपास के क्षेत्र के रूप में जाना जाता है।
लोकसभा सदस्य और स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के नेता राजू शेट्टी ने सरकार द्वारा देश भर के किसानों के ऋण माफ करने और उत्पाद की लाभकारी कीमतें प्राप्त करने संबंधी मांगों को न सुने जाने पर जुलाई में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए से किनारा कर लिया था।
राजू शेट्टी ने कहा, “मैंने सरकार से वित्तीय मदद मुहैया कराने और उत्पादन के लिए किसानों को लाभकारी कीमतें देने का निवेदन किया था। उस पर सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। इसलिए मेरे पास उनसे अलग होने के सिवा कोई चारा नहीं था, ताकि किसानों के लिए न्याय सुनिश्चित किया जा सके।”
बीजेपी को एक और झटका उस वक्त लगा, जब महाराष्ट्र के बीजेपी सांसद नाना पटोले ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और पार्टी छोड़ दी।
दिल्ली में तमिलनाडु के 100 से ज्यादा किसानों ने नए तरीके से विरोध प्रदर्शन कर सबका ध्यान अपनी ओर खींचा था। इन किसानों के नेता ने कहा, “हमने अपनी मांगों के लिए दिल्ली में 100 दिनों से अधिक अवधि तक विरोध-प्रदर्शन किया और उस मुश्किल वक्त में कई लोगों ने हमें समर्थन दिया। हालांकि राधा मोहन सिंह हमसे कभी नहीं मिले और न ही इस मुद्दे पर चर्चा के लिए हमें कभी आमंत्रित किया।”
कुछ अपवादों को छोड़कर, स्वराज इंडिया के नेता योगेंद्र यादव लगभग सभी संबंधित संगठनों को एक मंच पर लाने में कामयाब रहे। वह 184 संगठनों को जोड़ने में कामयाब रहे। जिसके कारण राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन देखने को मिले और सरकार को उनका सामना करने के लिए संघर्ष करना पड़ा।
पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी में आयोजित एक बड़े विरोध प्रदर्शन में देशभर के करीब 20 हजार किसान शामिल हुए थे और उन्होंने अपनी मांगें सामने रखी थी। कर्नाटक के कोलार जिले के किसान धर्मालिंगम ने कहा कि सरकार नए-नए विज्ञापनों में किसानों के लिए योजनाएं लागू करती दिखती है, लेकिन उन योजनाओं के फायदे उन किसानों के पास जमीनी स्तर तक पहुंच नहीं पाते।
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