आखिर ऐसा क्या है जिसके खुल जाने के डर से राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ऐसा विधेयक लेकर आ रही है जिसके पास होने के बाद राजस्थान के विधायकों, मंत्रियों, सांसदों और अफसरों के खिलाफ पुलिस या अदालत में शिकायत करना और उनकी जांच कराना मुश्किल हो जाएगा? या फिर सरकार किसी मीडिया हाऊस से हिसाब बराबर करना चाहती है, जो किसी भी मामले की खबर छापने या दिखाने पर जेल भेजने का प्रावधान किया जा रहा है? क्या वसुंधरा सरकार अदालतों को भी अपने अधीन ही करना चाहती है, जो ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि किसी भी मामले की रिपोर्ट अब अदालत के दखल से भी नहीं दर्ज हो पाएगी? आईपीसी और सीआरपीसी की धाराओं के किए गए बदलाव की सूचना विधानसभा के जरिए बाहर आई, जहां सोमवार से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र में इस अध्यादेश को पेश किया जाएगा।
Published: 21 Oct 2017, 5:43 PM IST
6 सितंबर 2017 को इस अध्यादेश को तैयार करने से पहले सरकार ने विपक्षी नेताओं, विशेषज्ञों और जनता की राय लेने की भी जरूरत नहीं समझी। इसे कानून या किसी और विभाग की वेबसाइट पर भी नहीं डाला गया जिससे लोगों को इस बारे में पता चल पाता।
Published: 21 Oct 2017, 5:43 PM IST
इससे साफ हो जाता है कि विधानसभा में पूर्ण बहुमत के बल पर बीजेपी इसे चुपचाप पास करा लेना चाहती थी और मीडिया या लोगों को इसकी भनक भी लगने नहीं देना चाहती थी। विधेयक के पक्ष में तर्क दिया जा रहा है कि इसे ईमानदार अफसरों और नेताओं को बचाने के लिए लाया जाएगा।इसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि 2013 में यूपीए द्वारा लाए गए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इन बातों को रखा गया था। हालांकि यह बात सच है कि इस तरह की बातें उस कानून में थीं, लेकिन वसुंधरा राजे सरकार उससे बहुत आगे चली गई है और ऐसे प्रावधानों को शामिल कर लिया गया है जिससे मीडिया का बुरी तरह दमन किया जा सकता है।
इस बिल के प्रावधानों के अनुसार सांसदों-विधायकों, जजों और अफसरों को लगभग इम्युनिटी मिल जाएगी। इन लोगों के खिलाफ सरकार की मंजूरी के बिना कोई केस दर्ज नहीं कराया जा सकेगा। अगर सरकार इजाजत नहीं देती, तो 6 महीने यानी 180 दिनों के बाद सिर्फ अदालत के आदेश से ही किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई जा सकती है। एक तरह से देखा जाए तो अब कोर्ट भी सरकार से पहले कोई कदम नहीं उठा सकता और इससे सरकार की मर्जी के सर्वोपरि हो जाने का खतरा है। जब तक एफआईआर नहीं होती, प्रेस में इसकी खबर भी नहीं छप सकती और इसका उल्लंघन करने पर या प्रकाशित रिपोर्ट में उनका नाम लेने भर से पत्रकारों को दो साल सजा भी हो सकती है। यह सारे प्रावधान सेवानिवृत अफसरों पर भी लागू होंगे।
इस अध्यादेश की खबर लीक होने के बाद मीडिया और सिविल सोसायटी के लोगों में काफी आक्रोश है। वे इस बात से चकित हैं कि सरकार ऐसा कोई कदम उठाने के बारे में सोच भी कैसे सकती है। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने ट्वीट कर इस अध्यादेश की तुलना रिपब्लिक ऑफ नार्थ कोरिया से की है।
Published: 21 Oct 2017, 5:43 PM IST
प्रेस को भेजे एक पत्र में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने कहा है कि इस पूरे वाकये से पता चलता है कि राज भवन ने जानबूझकर इस अध्यादेश से जुड़ी जानकारी लोगों तक पहुंचने नहीं दी और अध्यादेश से संबंधित प्रावधानों को वेबसाइट पर अपडेट नहीं किया। पीयूसीएल ने यह मांग की है इस अध्यादेश को वापस लिया जाए और राजस्थान विधानसभा में इसे पास नहीं किया जाए। संगठन ने यह भी पूछा है कि आखिर कोर्ट का शक्ति को कम कर सरकार क्या छिपाने की कोशिश कर रही है? उन्होंने यह तय किया है कि वे इस गैर-कानूनी अध्यादेश के खिलाफ कोर्ट में अर्जी भी दाखिल करेंगे।
Published: 21 Oct 2017, 5:43 PM IST
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Published: 21 Oct 2017, 5:43 PM IST