महाराष्ट्र की राजनीतिक स्थिति एक तरह से अधर में लटकी है। शिवसेना के उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे, दोनों ही खेमों की एक-दूसरे के विधायकों अयोग्य घोषित करने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में है और कोर्ट ने फिलहाल उस पर सुनवाई स्थगित कर दी है। ऐसे में दोनों ही धड़ों के समर्थकों और कार्यकर्ताओं में एक बेचैनी है।
जहां जमीनी स्तर के अधिकतर शिव सैनिक उद्धव ठाकरे को ही अपना नेता मानते हैं, वे पार्टी में शिंदे गुट की बगावत के खिलाफ सड़कों पर उतरने को आमादा हैं, लेकिन पार्टी नेतृत्व की तरफ से इस बारे में अनुमति न मिलने से उनमें बेचैनी है। ये शिवसैनिक चाहते हैं कि उद्धव ठाकरे अपने पिता के आजमाए हुए फार्मूलों की किताब का पन्ना खोलें और उस पर अमल करें। इसका अर्थ यही है कि शिवसैनिक चाहते हैं कि अदालतों के जरिए शांति की कोशिशों के बजाए सड़कों पर उतरा जाए और बिना किसी नतीजे की परवाह किए हिंसा आदि का सहारा लेकर बागियों को सबक सिखाया जाए।
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उधर शिंदे खेमे में भी बेचैनी है। उन्हें साफ दिख रहा है कि एकनाथ शिंदे के सीएम और देवेंद्र फडणवीस के डिप्टी सीएम पद की शपथ लेने के दो सप्ताह बाद भी वे सिर्फ सरकार के मध्यस्थ ही बने हुए हैं और कोई मंत्रिमंडल भी नहीं बना है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई स्थगित होने के बाद इसमें अब और अधिक देरी साफ हो गई है।
इस बीच राज्य के हालात भी त्रासद स्थिति में हैं। दो सप्ताह की मूसलाधार बारिश से राज्य का एक बड़ा हिस्सा में पानी में है। इस दौरान दोनों नेताओं (सीएम और डिप्टी सीएम) ने सिवाए दिखावटी बाढ़ प्रभावित दौरे के कुछ नहीं किया है, जबकि किसान फसलों और मवेशियों की बरबादी से परेशान है, जबकि अर्ध शहरी इलाकों का किसान घरों में पानी भरने से त्राहिमाम कर रहा है।
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उद्धव ठाकरे के समर्थक भले ही सड़कों पर उतरने को उतावले हैं, लेकिन उद्वव ठाकरे जानते हैं कि उनके पास इस समय वह सपोर्ट सिस्टम नहीं है जो उनके पिता को केंद्र और राज्य की सत्तारूढ़ सरकार या पार्टी से मिला करता था। आज केंद्र और राज्य दोनों में ही ऐसी सरकारें हैं जो उनके खिलाफ हैं, ऐसे में शिवसैनिकों का सड़कों पर उतरना न सिर्फ सामाजिक स्तर पर बल्कि राजनीतिक स्तर पर भी नुकसानदेह साबित हो सकता है। पार्टी में संकट के समय भी उद्धव ठाकरे ने जिस धैर्य और मर्यादा से काम लिया है, उससे आमतौर पर शिवसेना से दूर रहने वाले वोटर भी उद्धव के अहिंसकर रवैये के चलते उनके समर्थन में आए हैं। लेकिन अगर शिवसैनिक उत्पात करते हैं तो नए समर्थक उनसे छिटक सकते हैं।
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शिवसेना के बागियों के लिए यही चिंता का बड़ा सबब भी है क्योंकि आ वाले दिनों (अगस्त-सितंबर) में महाराष्ट्र में कई स्तर के चुनाव होने हैं। अचरज नहीं होगा अगर बीजेपी राज्य मे बाढ़ की स्थिति के मद्देनजर इन चुनावों को टालने की कोशिश करे, हालांकि ध्यान दिलाना होगा कि जब 2019 के सितंबर-अक्टूबर में विधानसभा चुनाव हुए थे तो ऐसे ही हालात थे, और तब न वोटरों को फर्क पड़ा था और न ही चुनाव टाले गए थे।
वरिष्ठ वकील उज्जवल निकम कहते हैं कि भले ही दोनों खेमों के विधायकों (जिसमें एकनाथ शिंदे भी शामिल हैं) को अयोग्य घोषित करने की याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर कर रखी हैं, लेकिन संवैधानिक तौर पर मंत्रिमंडल विस्तार टालने का यह कोई बहाना नहीं हो सकता। हालांकि संविधान के मुताबिक बागी खेमे पर कानूनी प्रक्रियाओं की अनदेखी के चलते अयोग्य होने का खतरा अधिक मंडरा रहा है। और अगर ऐसा होता है तो शिंदे कैम्प के लिए यह बहुत बड़ा आघात होगा।
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इस बीच जहां उद्धव ठाकरे ने एक खास किस्म की चुप्पी ओढ़ रखी है, उनके बेहद नजदीकी और राज्यसभा सांसद संजय राउत ने फरवरी 2019 की एक वीडियो क्लिप जारी करने की चेतावनी दी है जिसमें अमित शाह ने साफ तौर पर वादा किया था कि सत्ता में आ पर फिफ्टी-फिफ्टी फार्मूले के तहत मुख्यमंत्री होगा।
अगर ऐसी कोई वीडियो क्लिप है और उसे सार्वजनिक किया जाता है तो यह बीजेपी के लिए काफी शर्मनाक स्थिति होगी और उद्धव ठाकरे के आलोचकों के मुंह बंद हो जाएंगे, जिनमें उनके लोगों के चेहरे भी लटक जाएंगे जिन्हें लगता है कि अक्टूबर 2019 में बीजेपी से आमने-सामने की लड़ाई लड़ना सही फैसला नहीं था।
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संजय राउत का ऐलान बीजेपी के तत्कालीन महाराष्ट्र अध्यक्ष और अब मोदी सरकार में मंत्री राव साहेब दानवे के उस दावे के बाद सामने आया है जिसमें उन्होंने कहा था कि उद्धव ठाकरे और अमित शाह के बीच बंद कमरे में बातचीत हुई थी और उसमें कोई अन्य मौजूद नहीं था। उन्होंने कहा था कि अमित शाह ने उन्हें बताया था कि उद्धव ने मुख्यमंत्री का मुद्दा उठाया था और कहा था कि प्रमोद महाजन-बाल ठाकरे का फार्मूला अपनाया जाएगा, यानी जिस दल को अधिक सीटें मिलेंगी, उसी दल का मुख्यमंत्री होगा।
वैसे इस बात को लेकर संदेह तो है ही कि कौन सच बोल रहा है और कौन ढूठ। अगर राउत की वीडियो क्लिप सामने आती हैं, तो राज्य में एक बार फिर नए सिरे से राजनीतिक समीकरण बन सकते हैं।
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इस बीच संविधान विशेषज्ञ उल्हास बापट का मानना है कि मंत्रिमंडल का विस्तार न करना एक तरह से समझदारी है क्योंकि दल-बदल विरोधी कानून के तहत उनके विधायक और वे खुद ही अयोग्य घोषित किए जा सकते हैं। ऐसे हालात में सिवाय मौजूदा सरकार को बरखास्त कर नए सिरे से चुनाव कराने के कोई दूसरा विकल्प नही होगा।
चुनाव सिर पर हैं और उद्धव के लिए बढ़ती सहानुभूति बागी खेमे की बेचैनी दोगुनी कर रही है। इसीलए दोनों ही खेमे सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक उतावले हो उठे हैं।
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