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उत्तराखंड: भूमि की रक्षा नहीं करते ये भूमि कानून 

पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं कि राज्य की हर सरकार ने लगातार “एक तरह से लोगों को धोखा ही दिया है... उन्होंने भूमि कानूनों के बारे में बात तो की, लेकिन जो कानून बनाए, वे उत्तराखंड के लोगों के लिए ‘भूमि सुरक्षा’ का वादा नहीं करते हैं।”

फोटोः IANS
फोटोः IANS 

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ‘नई बोतलों में पुरानी शराब’ की पैकिंग के उस्ताद हैं। उनके ताजातरीन ‘सुधार’ के तौर पर ‘बाहरी लोगों’ को बागवानी और कृषि योग्य भूमि की अंधाधुंध बिक्री पर रोक लगाने वाला कथित ‘सख्त भूमि कानून’ दरअसल उनकी सरकार के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश को दबाने का एक इंतजाम भर है।

2023 के मध्य में, उत्तराखंड के अंदर और बाहर के लगभग 200 संगठन मूल-निवास भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति (मूल भूमि कानून आंदोलन समन्वय समिति का संघ) के बैनर तले आगे आए, ताकि राज्य में चिंताजनक रूप से सिमटती कृषि भूमि की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित कर बची हुई जमीन बचाई जा सके।

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भले ही राज्य की 65 प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, लेकिन उत्तराखंड में खेती के लिए अब महज 14 प्रतिशत भूमि ही उपलब्ध है। अद्यतन भूमि रिकॉर्ड की अनुपलब्धता के कारण यह समझ पाना मुश्किल है कि अब तक, खासतौर से पर्यटन और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए, कितनी भूमि बाहरी लोगों को पहले ही बेची जा चुकी है।

​​19 फरवरी 2025 को पारित उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950) संशोधन विधेयक, 2025 में दरअसल स्थानीय हितों की रक्षा के सवाल पर तमाम खामियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा खामियां हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिलों की ‘कृषि जरूरतों’ से संबंधित हैं।

उधम सिंह नगर में 15 एकड़ जमीन के मालिक युवा किसान गुरप्रीत सिंह बताते हैं कि “पहाड़ों में कृषि योग्य भूमि का बड़ा हिस्सा पहले ही बिक चुका है और भू-माफिया अब पूरी तरह से हमारे क्षेत्र में जमीन हथियाने पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं।” यह कानून (तेरह में से) शेष ग्यारह जिलों- अल्मोड़ा, बागेश्वर, चमोली, चंपावत, देहरादून, पौड़ी, नैनीताल, पिथोरागढ़, रुद्रप्रयाग, टेहरी गढ़वाल और उत्तरकाशी पर लागू होगा।

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टिहरी जिले में पांच बीघे जमीन के मालिक और आलू तथा अन्य सब्जियां उगाने वाले किसान अमित रावत पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों के साथ भेदभाव के लिए राज्य की सरकारों को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि “सिंचाई हमारी पहुंच में नहीं है इसलिए हम पूरी तरह मानसून पर निर्भर हैं। हमारे स्थानीय झरने बहुत पहले सूख चुके हैं। बंदरों और जंगली सूअरों से निपटना नई चुनौती है जो खेतों पर हमला करके फसलें नष्ट कर देते हैं और वन विभाग कभी भी समय पर मदद के लिए नहीं आता। मौसम और बारिश के बदलते पैटर्न ने भी किसानों को अपनी जमीनें  बेचने पर मजबूर कर दिया है।”

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती बताते हैं कि “यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के पवित्र मंदिरों तक जाने वाली चार धाम परियोजना की पूरी लंबाई की अधिकांश भूमि पहले ही बिल्डरों और रियल एस्टेट एजेंटों को बेची जा चुकी है, और कई ने तो होटल, रिसॉर्ट और रेस्तरां खड़े भी कर लिए हैं।

​​पहाड़ी इलाकों में होम-स्टे का आकर्षण भी लगातार बढ़ रहा है। मसलन, देवप्रयाग के गांव की तरह ग्रामीण इलाका लगातार निशाने पर है जिसे दिल्ली के उद्योगपतियों ने खरीद लिया है। सती बताते हैं कि “सिर्फ गढ़वाल क्षेत्र ही बचा है और वह भी शायद इसलिए कि दुर्गम है”।

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संशोधित कानून गैर-निवासियों को आवासीय उपयोग के लिए 250 वर्ग मीटर भूमि खरीदने की अनुमति देता है जिसके लिए उन्हें एक हलफनामा देना होता है कि उन्होंने कहीं और ऐसी ही खरीदारी नहीं की है। लेकिन इसमें भी एक पेंच है। 

पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा 2017 के उलटफेर में बाहरी लोगों को 12.5 एकड़ तक जमीन खरीदने की अनुमति दी गई थी जिसने पर्यटन, रियल एस्टेट और बुनियादी ढांचे में निवेश को आकर्षित किया। धामी के नए कानून में भी यह खामी बरकरार है- यहां तक ​​कि उन ग्यारह जिलों में भी जहां के लिए नए प्रतिबंध प्रस्तावित हैं। एकमुश्त खरीद के बजाय, स्कूल, अस्पताल और होटल जैसे संगठन 30 साल की लीज पर 12.5 एकड़ तक निवेश कर सकते हैं जिसमें विस्तार संभव है। इसकी कोई गारंटी नहीं कि भविष्य में राज्य सरकार द्वारा इस तरह के उलटफेर, विशेष अनुमतियां और छूट नहीं दी जाएंगी। वास्तव में, छूटें तो कानून में पहले से उल्लिखित हैं।

नई व्यवस्था में ​​भूमि लेनदेन की निगरानी अब राज्य सचिवालय (वरिष्ठ नौकरशाह) के जिम्मे है और जिलाधिकारी अब व्यक्तिगत रूप से भूमि खरीद के लिए अनुमति नहीं दे पाएंगे। सारी प्रक्रियाएं एक निर्दिष्ट सरकारी पोर्टल से संचालित होंगी जो स्पष्ट रूप से एक निगरानी तंत्र के रूप में भी काम करेगा, और जहां उत्तराखंड के गैर-निवासियों द्वारा की गई सारी भूमि खरीद दर्ज होगी।

अनियमितताओं पर और ज्यादा अंकुश के लिए व्यवस्था है कि जमीन खरीदने के इच्छुक राज्य के बाहर के किसी भी व्यक्ति को एक शपथ पत्र जमा करना होगा। जिलाधिकारियों को न सिर्फ हर तरह के भूमि खरीद-बिक्री-हस्तांतरण की रिपोर्ट देनी होगी बल्कि समय-समय पर राजस्व बोर्ड और सरकार के समक्ष  समीक्षा भी प्रस्तुत करनी होगी। सैद्धांतिक रूप से तो सब ठीक लगता है, लेकिन, जैसा कि एक पूर्व नौकरशाह कहते हैं, “यह देखते हुए कि राज्य में वरिष्ठ नौकरशाही कितनी भ्रष्ट है, नई व्यवस्था उन्हें पैसा बनाने का एक और मौका दे देगी।”

नया कानून नगरपालिका सीमा के भीतर भू-उपयोग को सख्ती से विनियमित करने का दावा करता है, लेकिन बाहरी लोगों को शहरों में जमीन खरीदने से नहीं रोकता। राज्य सरकार द्वारा शहरों के आस-पास के क्षेत्रों में लगातार नगर निगम की सीमा का विस्तार करते जाने के कारण गांव लगभग गायब हो गए हैं।

उदाहरण के तौर पर, देहरादून के आसपास के 88 से अधिक गांव अब नगर निगम के अधिकार क्षेत्र में लाए जा चुके हैं। ऐसा ही हरबर्टपुर, रुद्रप्रयाग, नैनीताल, भीमताल और नरेंद्रनगर में भी हुआ है। सरकार का दावा है कि नगर निगम सीमा विस्तार के लिए उसने ग्राम पंचायतों से अनुमति ले ली है। सरकार का दावा है कि इससे उन्हें ही फायदा होगा, क्योंकि वहां सीवर लाइन, पेयजल आपूर्ति, सड़कों और स्ट्रीट लाइट जैसी सुविधाएं बेहतर करने में मदद मिलेगी।

उत्तराखंड में जमीन राजनीतिक रूप से हमेशा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है। लोगों को चिंता इस बात की है कि बड़े पैमाने पर जमीन की बिक्री से इलाकाई जनसांख्यिकी और संस्कृति बिगड़ रही है। इस संदर्भ में वित्त मंत्री और ऋषिकेश से चार बार विधायक रहे प्रेमचंद अग्रवाल को विधानसभा के पटल पर यह कहते हुए सुनना किसी को भी हतप्रभ वाला था कि “इन (साले पहाड़ के लोग)” को यह क्यों मान लेना चाहिए कि कानून सिर्फ उनके हितों की पूर्ति के लिए है।

इस हकीकत के मद्देनजर कि भूमि अधिग्रहण आमतौर पर सरकार की मिलीभगत से बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स द्वारा किया जाता है, ऐसी विभाजनकारी बातें सिर्फ आग में घी डालने का काम करती हैं। (यह नहीं भूलना चाहिए कि पनबिजली और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की स्थापना के लिए सरकार पहले ही वन भूमि के बड़े हिस्से पर कब्जा कर चुकी है।)

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इस नए अधिनियम में एक और बात साफ नहीं है। सितंबर 2024 में, धामी ने भूमि खरीद से संबंधित गड़बड़ियों की गहन जांच का वादा करते हुए, भू-कानून सुधारों पर नए सिरे से ध्यान देने की बात कही थी। कहा था कि अवैध रूप से भूमि अधिग्रहण करने/करवाने वाले लोगों पर न सिर्फ कार्रवाई होगी, ऐसी भूमि राज्य फिर से अपने कब्जे में लेगा। 

धामी ने विधानसभा को यह भी बताया था कि 2018 के बाद से औद्योगिक गतिविधियों, पर्यटन, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, कृषि और बागवानी के लिए कुल 1,883 भूमि खरीद सौदों को मंजूरी दी गई है। हालांकि इनमें से 599 मामलों में भूमि उपयोग नियमों का उल्लंघन हुआ था और राज्य ने 572 मामलों में कानूनी कार्रवाई भी शुरू की थी। 16 मामलों में कार्यवाही पूरी हो चुकी है और 9.4 हेक्टेयर भूमि पहले ही राज्य सरकार को वापस कर दी गई है।

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अभिनेता मनोज बाजपेयी भी भू-उपयोग उल्लंघन के ऐसे ही विवाद में घिर गए हैं क्योंकि राज्य सरकार ने अल्मोड़ा जिले की उनकी जमीन वापस लेने की धमकी दे दी है। वाजपेयी ने 2021 में जमीन खरीदते वक्त उस पर एक योग और ध्यान केन्द्र स्थापित करने की बात कही थी जो नहीं हुआ। फिलहाल भूमि खरीद उल्लंघन के 23 ऐसे मामले जांच के दायरे में हैं, जिनमें से ग्यारह अदालत में हैं और दस की जांच चल रही है।

धामी भले ही दावा करें कि इस तरह की कार्रवाई भूमि विनियमन का एक प्रभावी ढांचा तैयार करने के लिए की जा रही है, लेकिन लोगों का मानना ​​है कि राजनेताओं ने समूचे तंत्र में बड़ी चतुराई से ऐसा हेरफेर किया है कि लूट बंद नहीं होने वाली।

पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं कि राज्य की हर सरकार ने लगातार “एक तरह से लोगों को धोखा ही दिया है... उन्होंने भूमि कानूनों के बारे में बात तो की, लेकिन जो कानून बनाए, वे उत्तराखंड के लोगों के लिए ‘भूमि सुरक्षा’ का वादा नहीं करते हैं।”

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