
इसी सप्ताह उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले का फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट 2015 में दिल्ली के पास दादरी में अख़लाक़ लिंचिंग मामले में सभी आरोपियों पर मुक़दमा वापस लेने की इजाज़त मांगने वाली उत्तर प्रदेश सरकार की अर्ज़ी पर अपना फ़ैसला सुनाएगा। मामले पर सरकार की तरफ से पेश विशेष अधिवक्ता ने कोर्ट को बताया है कि सरकार ने इस बाबत राज्यपाल की इजाजत ले ली है।
उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने दादरी लिंचिंग केस में आरोपियों पर चल रहे मुकदमे को वापस लेने के लिए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को कोर्ट से इजाज़त लेने की अनुमति दी है। राज्यपाल और उत्तर प्रदेश सरकार के इस फैसले से कानून के जानकार और सिविल सोसाइटी दोनों स्तब्ध हैं। उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर की फास्ट-ट्रैक कोर्ट गुरुवार, 18 दिसंबर को इस मामले में अपना फैसला सुना सकता है। अपराध के 10 साल बाद ऐसे मौके पर जब मुकदमा खत्म होने वाला है, ऐसे में हत्या के आरोपियों को लगभग माफ़ करने की कोशिश हैरान करने वाली है कि इससे किस तरह की मिसाल कायम होगी?
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याद दिला दें कि 28 सितंबर 2015 को एक भीड़ ने गौतम बुद्ध नगर के बिसादा गांव में रहने वाले 52 साल के मोहम्मद अखलाक के घर पर धावा बोल दिया था। भीड़ का आरोप था कि अखलाक के घर में गौमांस है। भीड़ ने घर में रखे फ्रिज में मांस मिलने पर मोहम्मद अखलाक को घर से बाहर खींचक बेतरह पीट-पीट कर उनकी हत्या कर दी थी। अखलाक के बेटे दानिश पर भी जानलेवा हमला किया गया था, और उसे गंभीर चोटें आई थीं। फोरेंसिक जांच में घर में मिला मांस गौमांस नहीं पाया गया था। इस घटना से पूरे देश में सनसनी मच गई थी और गौरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग का यह सबसे बड़ी मिसाल बन गई थी।
कई वर्षों की लगातार देरी के बाद आखिरकार 2022 में गौतम बुद्ध नगर जिले की फास्ट ट्रैक कोर्ट में मुकदमे की सुनवाई शुरु हुई। मामले में मुख्य गवाह अखलाक की बेटी ने अदालत के सामने अपने बयान दर्ज कराए। इसके अलावा इस दौरान दस्तावेजी और बयान आदि के सबूत भी पेश किए गए।
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इस मामले पर नजर रखने वाले सिविल सोसायटी समूहों का दावा है कि मुकदमा शुरु करने में जानबूझकर देरी की गई, कभी गवाहों को समय पर समन नहीं दिए, और अभियोजन लगातार मामले में तारीख मांगता रहा। अब इस मामले में जब सिर्फ दो गवाहों के बयान बाकी हैं, उत्तर प्रदेश सरकार ने आरोपियों के मुकदमे वापस लेने की अर्जी दे दी है, वह भी ऐसे वक्त जब मुकदमा अपने आखिरी पड़ाव पर है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी के सदस्यों ने इस मामले में राज्यपाल की भूमिका पर भी चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि हत्या और हत्या की कोशिश के आरोपों वाले मामले में मुकदमा वापस लेने की मंज़ूरी देना, इस पद से जुड़ी संवैधानिक ज़िम्मेदारियों को कमज़ोर करता है। सिविल सोसायटी ने एक बयान में कहा है, "ऐसे फैसले संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करते हैं और लोकतांत्रिक संस्थानों में जनता के भरोसे को कम करते हैं।" इससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि राज्य ने यह अर्ज़ी किसी कानूनी आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक सद्भाव बहाल करने के बहाने दी है। असल में राज्य जो चाहता है, वह है राज्य की नीति के ज़रिए सांप्रदायिक हिंसा को सामान्य बनाना।
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बयान में कहा गया, "यह सिर्फ़ एक प्रशासनिक फ़ैसला नहीं है।" "यह एक राजनीतिक कदम है जो लिंचिंग करने वाली भीड़ और निगरानी समूहों को यह संकेत देता है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ हिंसा पर न तो मुकदमा चलाया जाएगा और न ही सज़ा दी जाएगी।" सिविल सोसाइटी समूहों ने चेतावनी दी कि, "लिंचिंग के मामले में मुकदमा वापस लेना सज़ा से छूट को संस्थागत बनाता है... यह बताता है कि जब भीड़ की हिंसा किसी खास समुदाय के खिलाफ़ होती है, तो वह अपराध नहीं है, बल्कि एक ऐसा काम है जिसे बाद में सही ठहराया जा सकता है।"
लखनऊ विश्वविद्यालय के एंथ्रोपोलॉजी डिपार्टमेंट के पूर्व हेड प्रोफेसर नदीम हसनैन ने कहा कि इस फैसले से जवाबदेही को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं और इसके बड़े सामाजिक नतीजे हो सकते हैं। उन्होंने कहा, "पुलिस पहले से ही अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के मामलों को दर्ज करने में आनाकानी करती है। अब, जहां मामला दर्ज हो गया है और ट्रायल शुरू हो गया है, वहां भी सरकार आरोपी को बचाने के लिए दखल दे रही है।" हसनैन ने आगे कहा, "यह एक खतरनाक संकेत देता है कि अपने घर के अंदर एक बुजुर्ग आदमी की लिंचिंग करने पर कोई सज़ा नहीं मिलेगी।"
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साझी दुनिया की सचिव रूप रेखा वर्मा ने भी इस मामले में प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा, "अखलाक लिंचिंग केस में मुकदमा वापस लेने से यह संदेश जाता है कि अल्पसंख्यकों के घरों में घुसना और सिर्फ शक के आधार पर उन्हें मार देना जायज़ है।" मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण खोटे ने राज्य सरकार की कार्रवाई के कानूनी और नैतिक आधार पर सवाल उठाया। उन्होंने पूछा, "कोई राज्य हत्या के आरोपों वाले मामले में मुकदमा वापस लेने को कैसे सही ठहरा सकता है?" सुप्रीम कोर्ट की वकील वर्तिका मणि त्रिपाठी ने कहा कि मुकदमा वापस लेने की इजाज़त देना अखलाक और उसके परिवार के साथ घोर अन्याय होगा और इससे नफरत भरे अपराधों के लिए सज़ा न मिलने की प्रवृत्ति और मज़बूत होगी।
समाजवादी पार्टी की नेता पूजा शुक्ला ने भी चेतावनी दी कि इससे चरमपंथी तत्वों को बढ़ावा मिलेगा और अल्पसंख्यकों और दूसरे हाशिए पर पड़े समूहों के खिलाफ टारगेटेड हिंसा बढ़ेगी। ऑल इंडिया पीपल्स फ्रंट के सोशल एक्टिविस्ट दिनकर कपूर ने कहा, "मनमानी तोड़फोड़ से लेकर चुनिंदा मुकदमों तक, राज्य ने बार-बार संवैधानिक सीमाओं के बाहर काम किया है," उन्होंने कहा। ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन (AIDWA) ने भी इस कदम की निंदा की है। अनुभवी एक्टिविस्ट मधु गर्ग ने कहा कि ऐसे फैसले नफरत फैलाने वालों को बढ़ावा देते हैं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को तेज करते हैं।
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