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मोदी के बाद ‘वन टू टेन’ तक अमित शाह ही हैं सरकार, संघ की सलाह की भी अब नहीं है कोई हैसियत

परिस्थितियां बदल रही हैं। और संभवतः समीकरण भी। जो अमित शाह पहले मोदी से हमेशा दो कदम पीछे चलते थे आज उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगे हैं। जाहिर है, यह मोदी की सहमति से है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार में जब मंत्रियों के विभागों का बंटवारा हुआ तो एक मंत्रीजी शाम में ही अचानक नागपुर चले गए। वह सोने-जागने-एक्सरसाइज करने आदि को लेकर बहुत नियमित रहते हैं लेकिन नागपुर में लगभग रात भर जागते ही रहे। अगले दिन सुबह उन्होंने नाश्ता किया, साथ ही नींद की दवा ली। उन्होंने अपना फोन स्विच ऑफ किया और दिन में देर तक सोते रहे। तब जाकर उनका तनाव कुछ कम हुआ।

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यह मंत्रीजी पिछले दिनों काफी चर्चा में थे। अपने कामकाज और विभिन्न दलों में अपने संपर्कों के लिए भी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी उनके रिश्ते मधुर हैं और माना जाता है कि नागपुर में उनकी जड़ें काफी गहरी हैं। फिर भी, दोबारा मंत्री पद से नवाजे जाने के बावजूद उनके पर थोड़े ब्योंत दिए गए हैं।

बात सीधी-सी है। किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। यह न तो एनडीए की सरकार है, न ही भारतीय जनता पार्टी की। यह सरकार सिर्फ नरेंद्र मोदी और अमित शाह की है। एक प्रधानमंत्री और दूसरा गृह मंत्री होने के साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष। कौन चुनौती दे सकता है इन्हें? सरकार और पार्टी में पहले एक से दस तक स्थान इन दोनों के लिए आरक्षित हैं। जो भी अगला पार्टी अध्यक्ष बनेगा, उसे भरत की तरह इनकी खड़ाऊ सिंहासन पर रखकर ही शासन करना होगा।

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शाह को पार्टी और सरकार में प्रधानमंत्री के बाद सर्वोच्च स्थान तो दरअसल पांच साल पहले ही मिल गया था। पिछली बार भी मंत्रिमंडल में शामिल होने का न्योता अमित शाह के फोन से ही लोगों को मिला था। इसके बादअगले पांच वर्ष तक हर मंत्रिमंडल विस्तार में किसे बाहर किया जाना है और किसे शपथ दिलाई जानी है, किसको क्या विभाग मिलेगा, यह सब प्रधानमंत्री अमित शाह के परामर्श से ही करते रहे। यही वजह थी कि सरकार में न होने के बावजूदअधिकतर मंत्री शाह के दरबार में हाजिरी लगाते नजर आते थे।

पिछले 5 सालों के दौरान लगभग सभी विधानसभा चुनाव भाजपा ने जीते। और इनके लिए शाह की रणनीति को ही श्रेय दिया गया। चाहे वह सोशल मीडिया हो या बूथ मैनेजमेंट, हर मोर्चे पर शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को लगातार पार्टी के प्रचार-प्रसार के काम में लगाए रखा।

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चर्चा अपनी जगह, लेकिन लोगों को हैरत तब हुई जब शाह ने मोदी कैबिनेट में गृहमंत्री का पद स्वीकार किया। आश्चर्य इसलिए क्योंकि वह हमेशा और लगातार यही कहते रहे थे कि वह सरकार में शामिल होने के बजाय अगले तीन सालों तक भाजपा अध्यक्ष बने रहना पसंद करेंगे। जाहिर है, उनके इस फैसले से राजनाथ सिंह को गृह छोड़कर रक्षा मंत्रालय में जाना पड़ा। हालांकि राजनाथ ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री के ठीक बाद शपथ ली थी लेकिन 12 घंटों के अंदर ही वह दूसरे से तीसरे स्थान पर सरका दिए गए।

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मानो इतना ही काफी नहीं था। विभागों के बंटवारे के 3 दिनों बाद कैबिनेट की महत्वपूर्ण समितियां बनाई गईं। इन आठ में से राजनाथ को केवल दो समितियों में शामिल किया गया जबकि शाह सभी आठ समितियों के सदस्य बन गए। हर समिति में उनका स्थान प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नंबर पर था। नाराज राजनाथ संघ की शरण में पहुंचे। सूत्रों के अनुसार, सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी से मिलकर वह बोले कि इतना अपमान सहने से अच्छा तो है कि मैं इस्तीफा दे कर घर पर बैठूं। भैयाजी के बीच-बचाव के बाद आठ घंटों के अंदर ही राजनाथ को चार और समितियों में शामिल कर लिया गया।

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यानी अब राजनाथ कुल छह समितियों के सदस्य हैं जबकि उनसे कहीं कम अनुभवी और पार्टी में कहीं कम योगदान रखने वाली निर्मला सीतारमण को वित्त मंत्री का पद देकर सुरक्षा मामलों से संबंधित मंत्रिमंडलीय समिति(सीसीएस) सहित सात समितियों में शामिल किया गया। इसी तरह रेलमंत्री पीयूष गोयल भी छह समितियों के सदस्य बनाए गए। हालांकि रक्षामंत्री बन कर राजनाथ सीसीएस के सदस्य बने रहेंगे।

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बेहाल गडकरी

लेकिन एक और पूर्व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी संभवतः इतने काबिल भी नहीं समझे गए कि उन्हें सीसीएस में शामिल किया जाता। विभागों के बंटवारे में उनसे तीन महत्वपूर्ण विभाग ले लिए गए और कैबिनेट की चार समितियों में शामिल किया गया। लेकिन उनकी नाराजगी बेमानी रही।

मोदी-शाह ने इस मामले पर संघ की एक न सुनी। जबकि मंत्रिमंडल के गठन से पहले संघ गडकरी को उप प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त देखना चाहता था। वह मांग खारिज होने पर संघ ने गडकरी को वित्त मंत्री बनाए जाने की मांग की थी। मोदी ने इन मांगों को गडकरी के अनुचित दबाव की तरह लिया। चुनावों के दौरान भी गडकरी के कुछ बयान इस तरह मीडिया में परोसे गए थे, मानो बहुमत न मिला तो वह मोदी के विकल्प हो सकते हैं। इसीलिए मोदी-शाह ने रक्षा, वित्त या विदेश मंत्रालय देने के बजाय गडकरी को वापस सड़क परिवहन मंत्रालय सौंप दिया।

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तो अब अमित शाह आधिकारिक तौर पर मंत्रिमंडल में दूसरे सबसे ताकतवर मंत्री बन गए हैं। यदि इसमें किसी को कोई संदेह था तो वह शाह ने अपना पद ग्रहण करने के चंद दिनों के अंदर ही दूर कर दिया जब उन्होंने विदेश मंत्री एस. जयशंकर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, रेलऔर वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल, पेट्रोलियम और इस्पात मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत की एक बैठक बुलाई।

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शाहों के शाह

प्रधानमंत्री के अलावा कभी कोई मंत्री इतना ताकतवर नहीं रहा कि अन्य मंत्रियों को बुलाकर उनके साथ सरकारी मामलों पर बैठक करें। मंत्री ही क्यों कोई उप प्रधानमंत्री भी कभी ऐसा करता नजर नहीं आया। न सरदार वल्लभभाई पटेल, न चरण सिंह, न जगजीवन राम। यहां तक कि लाल कृष्ण आडवाणी ने भी मंत्रियों की बैठक कभी नहीं बुलाई। तब भी नहीं, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी स्वास्थ्य की कमजोरी की वजह से जसवंत सिंह और सैयद शाहनवाज हुसैन-जैसे वरिष्ठ मंत्रियों के नाम भूलने लग गए थे और सरकारी बैठकों के बीच में ही सो जाते थे। तब भी आडवाणी ने यह रोल ग्रहण करने में संकोच किया।

अमित शाह ने यह बैठक मोजांबिक के प्रधानमंत्री की मोदी के साथ मुलाकात के परिप्रेक्ष्य में बुलाई थी। मोजांबिक में तेल के ब्लॉक खोजे गए हैं जिनमें बहुमूल्य गैस का विशाल भंडार होने की संभावना है। इस गैस को निकालने में ओएनजीसी, बीपीसीएल और ऑयल इंडिया-जैसी कंपनियां जुटी थीं। इन कंपनियों ने अभी तक वहां लगभग 65 अरब डॉलर का निवेश कर दिया है।

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इस एक बैठक से साफ हो गया कि अमित शाह अपना प्रभाव केवल गृह मंत्रालय तक ही सीमित नहीं रखेंगे। और कोई भी मंत्री इस तरह की बैठक तब तक नहीं बुला सकता जब तक उसे प्रधानमंत्री कार्यालय से हरी झंडी न मिल गई हो।

परिस्थितियां बदल रही हैं। और संभवतः समीकरण भी। जो अमित शाह पहले मोदी से हमेशा दो कदम पीछे चलते थे आज उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगे हैं। जाहिर है, यह मोदी की सहमति से है।

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कश्मीर फतह का एजेंडा

बतौर गृह मंत्री शाह ने सबसे पहली मुलाकात जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक से की और दूसरी मुलाकात पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी से। यानी ये दो राज्य शाह की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर हैं। एक में भाजपा महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार चला चुकी है और दूसरे में वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता हथियाने की फिराक में है।

शाह ने जम्मू-कश्मीर के विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन कराने पर सतपाल मलिक से विचार किया। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के घोर विरोध के बाद फिलहाल उन्होंने इस विचार को ताक पर रख दिया है। हालांकि इसे एकदम त्यागा भी नहीं है। इस प्रयास के पीछे भाजपा की कश्मीर में अपने दम पर सरकार बनाने की कोशिश है।

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दरअसल जम्मूऔर कश्मीर की विधानसभा की कुल 87 सीटों में से 47 घाटी में हैं, जम्मू में 36 और लद्दाख में केवल 4 सीटें हैं। यानी घाटी की सीटों पर जिसका ज्यादा प्रभाव है, राज्य में सरकार वही बनाता है। क्योंकि कश्मीर घाटी में भाजपा का प्रभाव लगभग नगण्य है, इसलिए वह तब तक सरकार बनाने की आशा नहीं कर सकती जब तक राज्य में विधानसभा सीटों का परिसीमन नहीं हो जाता। पिछले 20 वर्षों में जम्मू में तेजी से जनसंख्या वृद्धि हुई है। इसका अर्थ है कि परिसीमन होने पर जम्मू में विधानसभा की सीटें बढ़ेंगी जबकि कश्मीर घाटी में कम होंगी। यदि जम्मू क्षेत्र में सीटें घाटी से अधिक हो जाती हैं तो भाजपा राज्य में आसानी से सरकार बना सकती है।

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