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एक्सक्लूसिव: सोशल मीडिया में घटिया और चिढ़ाने वाली भ्रामक जानकारी परोसने वालों की चुनावी बाजार में भारी डिमांड

इस काम में उन लोगों को इस्तेमाल किया जा रहा है जो सोशल मीडिया के लिए ‘उपयोगी’ घटिया स्तर की भाषा का इस्तेमाल कर बातों को उलझाएं और उन्हें भ्रामक तथ्यों की ऐसी चाश्नी में डुबो दें जिससे पढ़ने वाला चौंक उठे। इसी क्रिएटिविटी के इन लोगों को पैसे दिए जाते है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 
अब्बाजान-चचाजान, बुआ-बबुआ, गन्ना-जिन्ना, कब्रिस्तान-श्मशान....और अब यूपी प्लस योगी यानी उपयोगी....यह वह ताने-मुहावरे हैं जो चुनावी माहौल में किसी एक नेता की जुबान से निकलते हैं और फिर देखेत-देखते सोशल मीडिया के लगभग हरके प्लेटफार्म के जरिए आम लोगों तक पहुंच जाते हैं। एक और बानगी देखिए...क्रिसमस वाले सप्ताह में ही गुरु गोबिंद सिंह जी के बेटों को दीवार में चुनवा दिया गया था, क्योंकि उन्होंने इस्लाम कुबूल करने से इनकार कर दिया था...इसके पीछे की पूरी कहानी भी बताई जाती है... अब इस कहानी का भले ही सच्चाई से मीलों तक कोई वास्ता न हो लेकिन क्रिसमस वीक में यह कहानी खूब शेयर की जा रही है।

लेकिन कभी सोचा है आपने कि आप तक जो मैसेजे या मीम्स, या दोहरे अर्थ वाले मैसेज व्हाट्सऐप या किसी अन्य माध्यम से पहुंच रहे हैं, उन्हें कौन तैयार करता है, कौन इतनी रिसर्च आदि करता है, कौन है जो इन भ्रामक और तथ्यों से परे संदेशों को एकदम सच्चा लगने वाला बनाकर आप तक पहुंचा देता है...दरअसल इसके लिए एक गोपनीय टीम दिन-रात काम करती रहती है, और उसका काम अपनी पार्टी को चमकाने से अधिक विरोधी को धुंधलाने पर अधिक होता है।

अब उत्तर प्रदेश चुनाव सिर पर है, जाहिर है नेता तो व्यस्त रहेंगे ही, लेकिन पत्रकार और आईटी एक्सपर्ट उनसे ज्यादा बिजी हैं। पत्रकार तो समझ में आता है, लेकिन आईटी एक्सपर्ट...दरअसल कोरोना काल में लगे लॉकडाउन और अर्थव्यवस्था में आई बेतहाशा गिरावट के चलते लाखों की तादाद में आईटी प्रोफेशनल बेरोजगार हो गए थे, लेकिन चुनावी मौसम में वे इतना कमा रहे हैं जितना रेगुलर जॉब में भी नहीं कमा पाते।

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तो जरा पूरा मामला समझिए...

इस काम में उन लोगों को इस्तेमाल किया जा रहा है जो सोशल मीडिया के लिए ‘उपयोगी’ घटिया स्तर की भाषा का इस्तेमाल कर बातों को उलझाएं और उन्हें भ्रामक तथ्यों की ऐसी चाश्नी में डुबो दें जिससे पढ़ने वाला चौंक उठे। इसी क्रिएटिविटी के इन लोगों को पैसे दिए जाते है, और हां, इसमें जाति, धर्म आदि की कोई बाध्यता नहीं है।

लगभग हर पार्टी के पास ऐसी टीमें हैं, लेकिन बीजेपी के पास सबसे ज्यादा लोग हैं, क्योंकि वहां जरूरत ज्यादा है और पैसे भी वहीं से सबसे ज्यादा मिलते हैं। लेकिन अंदरखाने की बात यह भी है कि सामान्य तौर पर आईटी सेल में काम करने वाले लोग इन चुनावी टीमों से अपने लिए खतरा मानते हैं कि कहीं आगे चलकर ये उनकी जगह न ले लें।

ऐसी ही एक टीम में महेश (बदला हुआ नाम) भी हैं। उन्होंने लखनऊ में डेरा डाला हुआ है। उनके एक्जीक्यूटिव लेदर बैग में एक कॉम्पैक्ट लैपटॉप हमेशा रहता है। नॉर्मल कॉल और एसएमएस का वह कम ही इस्तेमाल करते हैं। सिर्फ अपने करीबी परिवार की नॉर्मल कॉल उठाते हैं और वह भी सिर्फ काम भर के लिए छोटी बात करते हैं। मित्रों को वे भूल चुके हैं। लेकिन व्हाट्सऐप कॉल और मैसेज पर उनका पूरा फोकस रहता है। उन्हें जैसे ही कहीं स्थित ‘बैक ऑफिस’ से कोई ’उपयोगी’ सूचना मिलती है उनका काम शुरु हो जाता है। वे अपनी पूरी क्रिएटिविटी लगा देतें हैं, उंगलियां की-बोर्ड पर दौड़ने लगती हैं, और फिर निकलता है एक घटिया सा संदेश या नारा या मीम, जिसे आप व्यंग्य या कटाक्ष की श्रेणी में भी नहीं रख सकते। बोले तो इसे बिलो दि बेल्ट ही कहा जा सकता है। महेश शब्दों के ऊटपटांग इस्तेमाल से वाक्य बनाने और किस्से-कहानियां गढ़ने, तुकबंदी करने के लिए पहले भी जाने जाते थे, लेकिन अब तो वह इन सबमें माहिर हो गए हैं।

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महेश अकेले नहीं हैं। उनकी टीम का एक साथी मुजफ्फरनगर में है। उसका काम थोड़ा अलग है। वह ‘बैक ऑफिस’ से मैसेज मिलते ही बॉलीवुड-हॉलीवुड की तस्वीरें ऑनलाइन खंगालता है। कुछ वीडियो निकालता है, उन पर कुछ खास चेहरों को पेस्ट करता है और वीडियो को एडिट कर वॉयस ओवर डाल देता है, और इस तरह हो जाती है एक राजनीतिक नौटंकी। इस काम में इसने भी पंडिताई हासिल कर ली है।

अब सवाल उठता है कि ‘बैक ऑफिस’ में कौन मैसेजे या निर्देश देता है। असल में इन सबका हेड कौन है, यह कुछेक को ही पता होता है। वैसे एक चेन जैसा है जिसमें लोग जुड़े हुए हैं। कोई व्यक्ति सिर्फ उसे जानता है, जो उसे कुछ करने के लिए इंस्ट्रक्शन देता है, या फिर उसे जानता है जिसे वह अपनी ‘क्रिएटिविटी’ भेजता है। इस चेन से जुड़े लोग एक दूसरे को आमतौर पर बॉस ही कहते हैं, क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि वह जिनसे बात कर रहे हैं, वह असलियत में है कौन।

इन लोगों ने अपने-अपने काम में महारत हासिल कर ली है। इनकी यूएसपी है कि जैसे ही राजनीतिक हलकों में इन मतलब का कुछ हो और बैक ऑफिस से हरी झंडी मिले, वे तुरत-फुरत अपने काम जुट जाते हैं। लेकिन सब जानते हैं कि उनके काम पर हर समय किसी की नजर है, इसलिए वे काम पूरी तन्मयता से करते हैं।

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कहीं कोई एक असली बॉस है, जिसका टीम के सभी सदस्यों को आदेश है कि न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर 24X7 पैनी नजर रखो। उनका काम यह भी देखना है कि जिस भी पार्टी से वे जुड़े हैं उसके नेताओं से जुड़ी खबरों से नेताजी की इमेज बिल्डिंग सही हो रही है या नहीं। लेकिन यहीं खत्म नहीं होता, उनका असली का तो विरोधियों की छोटी-से-छोटी खामी को पकड़ना है और फिर उसे वीभत्स रूप देकर सोशल मीडिया पर प्रोपेगैंडा लॉन्च करना है।

इसी तरह की एक टीम में शामिल ज्योतिष (बदला हुआ नाम)बताते हैं कि वह बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं, जहां उन्हें स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि ‘अपनी पार्टी की इमेज बिल्डिंग से ज्यादा इस बात पर जोर देना है कि विरोधी की इमेज कैसे डिमालिश हो।‘ अब ज्योतिष रोज नए नारे गढ़ते हैं, मीम्स बनाते हैं ताकि विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर जमकर छींटाकशी की जा सके। तात्पर्य यह कि सारा जोर इमेज बिल्डिंग से अधिक इमेज बिगाड़ने पर रहता है।

एक और खास बात। चूंकि ये नारे, मीम्स, कार्टून या फिर कहानियां किसी अखबार या पत्रिका में तो छपनी नहीं है और न ही किसी टीवी पर विज्ञापन के रूप में आनी हैं, इसलिए बेहूदगी की यहां सीमा तय नहीं है, जहां तक ‘क्रिएटिव माइंड’ दौड़ सकता है, उतना घटियापन किया जा सकता है।

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आपने देखा होगा कि जिस दिन किसी व्हाट्सऐप ग्रुप से आपको कोई नया संदेश, मीम या वीडियो मिलता है, उसके घंटे भर के अंदर ही वह तमाम व्हाट्सऐप ग्रुप के जरिए वायरल हो रहा होता है। दरअसल इसके लिए भी अलग से टीम है, जिसका काम ही है कि इस तरह के मैसेज, वीडियो, कार्टून या मीम्स को वायरस करना।

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इतना ही नहीं पुराने संदेशों और वीडियो आदि को रिसाइकिल भी किया जाता है। जैसे ही कोई ‘अच्छा’ मुद्दा लोग भूलने लगते हैं, तो उस मुद्दे से जुड़े पुराने वीडियो, मैसेज या संदेश आदि नए सिरे से सर्कुलेट कर उन्हें वायरल किया जाता है। भले ही इन मैसेज और वीडियो को फैक्ट चेक करने वाली साइट्स गलत घोषित कर चुकी हों, लेकिन ऐसी ही एक टीम में शामिल भूषण का कहना है कि ’फैक्टचेक वालों की बातें सुनते ही कितने परसेंट लोग हैं? करते रहें वे फैक्टचेक!’

इस तरह के कामों में वे लोग भी हैं जो कोरोना काल से पहले पीआर एजेंसियों में काम करते थे और लॉकडाउन के चलते नौकरियां गंवा बैठे थे। लेकिन अब चुनावी मौसम है तो लगभग इन सभी को काम मिल गया है। ऐसी ही एक एजेंसी के रत्नाकर बताते हैं कि आसान न समझिए इस काम को। हमें खूब रिसर्च करना पड़ता है उलटे-सीधे आंकड़ों को ऐसे परोसने में कि लगे, वह एकदम दुरुस्त है। एक-एक मैसेज कई आंखों-हाथों से गुजरने के बाद आप तक पहुंचते हैं। और यह सब कोई सरकारी तरीके से पास ऑन नहीं होता- हर व्यक्ति की जिम्मेदारी होती है कि वह इसके भले-बुरे, पक्ष-विपक्ष के बारे में तौल ले। गलती हुई, तो सीधे फायर, चाहे आपको जिसकी भी पैरवी पर यह काम दिया गया हो। और जब यह किसी सामान्य आदमी के पास पहुंचता है, तो उसे लगता है कि यह आम मैसेज नहीं बल्कि समूची अपडेटेड सूचना से लैस है जिस पर विश्वास न करने का कोई कारण ही नहीं है। सामान्य समझ वालों तक पर तो ऐसे मैसेज जबरदस्त प्रभाव डालते हैं।

फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और स्मार्ट फोन के जरिये आप तक पहुंचे ओछी जुबान और तंज भरे मैसेज से आप बच नहीं सकते। भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा इंटरनेट और समार्टफोन यूजर देश है। देश के लगभग 60 करोड़ लोगों के हाथों में समार्टफोन फोन है। आंकड़े बताते हैं कि मोबाइल डाटा यूसेज में अपना देश दुनिया में नंबर एक पर है और इसकी रफ्तार दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। लेकिन सावधान, इस रफ्तार ने हमें नफरत और झूठ की आग में झोंक दिया है।

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