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कश्मीर में दम तोड़ने लगा है मीडिया, पाबंदियों और धमकी के चलते सरकारी मुखपत्र बनकर रह गए हैं अखबार

पुलिस और अन्य एजेंसियों ने पत्रकारों को डराना- धमकाना तेज कर दिया है और कई पत्रकारों पर पीएसए और यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए हैं। श्रीनगर के एक संपादक फहद शाह को तीसरी बार गिरफ्तार किया गया जबकि अदालत ने उन्हें पहले के मामलों में जमानत दे दी थी।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

क्या यह सही रणनीतिक सोच है जिसने सरकार को कश्मीर में मीडिया का मुंह बंद करने के लिए प्रेरित किया? इस बारे में सही-सही बताना तो मुश्किल है, लेकिन हकीकत यही है कि कश्मीरी मीडिया, यहां तक कि जिलों में कुकुरमुत्ते की तरह पनप आए यू-ट्यूबर्स भी अब अगस्त, 2019 से पहले की तरह काम नहीं कर रहे हैं और उन्होंने भी लोगों के मुद्दों को उठाना बंद कर दिया है।

नतीजा यह हुआ है कि लोकल न्यूजपेपर से लोगों का भरोसा उठ गया है। अखबार अब सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों से भरे होते हैं। उनके पाठक हाथ से निकल गए हैं। लोग खबरों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर निर्भर होने लगे हैं। पत्रकार और फोटो पत्रकार या तो पेशे को छोड़ रहे हैं या राज्य को।

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17 जनवरी को श्रीनगर में तापमान शून्य से पांच डिग्री सेल्सियस नीचे था। उसी दिन सरकार ने कश्मीर प्रेस क्लब को बंद कर दिया। यह पत्रकारों के लिए सूचनाएं इकट्ठा करने और आदान-प्रदान करने की अहम जगह हुआ करती थी। जैसे देश के किसी भी दूसरे इलाके के मीडिया हाउस का हाल है, कश्मीर के मीडिया घराने भी सरकारी आवास और सरकारी विज्ञापन पर निर्भर हो गए हैं। कश्मीर में शायद ही कोई बड़ा कॉरपोरेट घराना या व्यवसाय होने के कारण उनके पास कुछ ही विकल्प थे। लेकिन 5 अगस्त, 2019 के बाद कई अखबारों को विज्ञापन बंद कर दिए गए। कश्मीर टाइम्स सबसे पुराने और सम्मानित अंग्रेजी अखबारों में से एक है। यह अखबार सरकार द्वारा आवंटित परिसर से चल रहा था। उसे श्रीनगर में अपना कार्यालय खाली करने के लिए कहा गया है। जिन अखबारों के मुख्यालय जम्मू में हैं, उन्हें कुछ समय के लिए प्रकाशन बंद करना पड़ा।

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जून, 2020 में सरकार नई मीडिया नीति लेकर आई जिसने सूचना विभाग को समाचारपत्रों द्वारा प्रकाशित सामग्री की निगरानी का अधिकार दे दिया। पत्रकारों के एक संगठन ने विरोध का साहस जुटाने में एक महीने का समय ले लिया लेकिन अखबारों ने ‘स्वेच्छा से’ ही संयम बरतने का फैसला कर लिया।

पुलिस और अन्य एजेंसियों ने पत्रकारों को डराना- धमकाना तेज कर दिया है और कई पत्रकारों पर जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) और यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए हैं। मार्च के पहले हफ्ते में श्रीनगर के एक संपादक फहद शाह को एक महीने में तीसरी बार गिरफ्तार किया गया जबकि अदालत ने उन्हें पहले के मामलों में जमानत दे दी थी। उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा जिले के एक स्वतंत्र पत्रकार सज्जाद गुल पर सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट करने के लिए पीएसए के तहत मामला दर्ज किया गया।

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पैसे खत्म होने, नौकरियां खत्म होने और एजेंसियों की सांसें थमने से पत्रकारों को परेशानी हो रही है। लेकिन पत्रकार वह कौम है जिसे लोगों से कम ही सहानुभूति मिलती है और जिनका उनसे छत्तीस का आंकड़ा है, उनके लिए पत्रकारों की कोई अहमियत ही नहीं। पिछले महीने शोपियां में कार्यकारी मजिस्ट्रेट की अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि वह अदालत में पेश न होने पर जाने-माने पत्रकार और लेखक गौहर गिलानी को गिरफ्तार कर ले। गिलानी को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 और 151 के तहत नोटिस दिया गया था।

घाटी में पाठकों का स्थानीय प्रेस से भरोसा उठ गया है। सरकारी विभागों और नगर निकायों की आलोचनात्मक खबरें भी अखबारों से गायब हो गई हैं। सरकार के खिलाफ रिपोर्ट तो न के बराबर आती हैं। राजनीतिक टिप्पणियां भी विचार के पन्नों से गायब हैं क्योंकि अधिकांश समाचारपत्रों ने एजेंसियों द्वारा अनौपचारिक रूप से उन्हें दिए गए दिशानिर्देशों और स्टाइल शीट का पालन करना शुरू कर दिया है।

मीडिया से सख्ती से निपटने की रणनीति ने मीडिया के विकेन्द्रीकरण को धीमा कर दिया है। पत्रकारिता का कोर्स करने वाले युवाओं ने अपने शहरों-गांवों से वेब पोर्टल और यू-ट्यूब चैनल चलाना शुरू कर दिया था। अब वे भी असल मुद्दों को उठाने से डर रहे हैं। ऐसी नीति से किसको फायदा होने जा रहा है, यह न तो कोई पूछ रहा और न ही कोई इसका जवाब दे रहा।

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