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सरकार की सहमति से होती हैं ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं : कानून विशेषज्ञ  

बीते दो महीनों में लिंचिंग की ताबड़तोड़ घटनाओं के बाद इन्हें रोकने के लिए अलग से कानून की जरूरत महसूस हो रही है। कानून विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी घटनाएं सरकार की सहमति से होती हैं, इसलिए इस बारे में सख्त कानून बनाने की अपेक्षा रखना बेमानी है।

फोटो : सोशल मीडिया
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व्हॉट्सएप के जरिये अफवाह फैलाना, आठ-दस लोगों को जुटाकर किसी को निशाने पर लेना और पीट-पीट कर उसकी हत्या कर देना। मामला तूल पकड़ने पर सरकार की ओर से यह बयान आना कि 'किसी को कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती' और इसके बाद गंभीर चुप्पी। देश ने चार साल में इस अमानवीय चलन को प्रचलन बनते देखा है और सोच रहा है, आखिर किस ओर जा रहे हैं हम?

असम, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु समेत अन्य राज्यों में बीते दो महीनों में लिंचिंग (भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या) की दो दर्जन से ज्यादा घटनाओं के बाद देश इस पर अंकुश लगाने के लिए अलग से सख्त कानून की जरूरत महसूस करने लगा है। कानून विशेषज्ञों का हालांकि मानना है कि ऐसी घटनाएं प्रादेशिक सरकार की सहमति से होती हैं, इसलिए आरोपियों के संरक्षकों से सख्त कानून बनाने की अपेक्षा रखना बेमानी है।

कानून विशेषज्ञ और सर्वोच्च न्यायालय के वकील सुशील टेकरीवाल ने लिंचिंग की घटनाओं पर आईएएनएस से कहा, "लिंचिंग की घटनाएं सरकारों द्वारा समर्थित होती हैं और आरोपियों को एक तरह से संरक्षण मिला होता है, इसलिए इनकी कुव्वत की बात नहीं है वह इस पर अलग से कानून बनाएं। इसके लिए अलग तरह की इच्छाशक्ति चाहिए और उसमें आपकी निष्पक्षता झलकनी चाहिए। बिना संरक्षण के लिंचिंग की घटनाएं नहीं हो सकतीं।"

उन्होंने कहा, "लिंचिंग की घटनाएं कानूनी समस्या से ज्यादा सामाजिक समरसता व निरपेक्षता से संबंध रखती हैं, अगर अतिरेकवादी ताकतें इस तरह की घटनाओं को जंगलीपन और वहशीपन तरीके से अंजाम देंगी तो हमारा संविधान और कानून व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। वर्तमान समय में जिस तरह से लिंचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं, उस पर स्थापित कानून पर्याप्त नहीं है। इस पर कठोर से कठोर कानून बनाया जाना चाहिए। फासीवादी ताकतों को भीड़ की शक्ल में कोरे अफवाह पर बिना किसी सबूत के किसी की हत्या कर देने की छूट कोई कानून नहीं देता।"

एडवोकेट टेकरीवाल ने कहा, "लिंचिंग को लेकर हिंदुस्तान में कोई कानून नहीं है, हम लिंचिंग को आम हत्या के कानून से जोड़ते हैं। कानून के तहत धारा 148, 149 दंगे की बात करती है, धारा 302 हत्या की बात करती है, 323, 325 चोटों की बात करती है और 307 हत्या के प्रयास की बात करती है, इन्हीं धाराओं का प्रयोग को लिंचिंग के मामलों में किया जाता है।"

वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे एडवोकेट कवीश शर्मा ने आईएएनएस को बताया, "सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में लिंचिंग पर अलग कानून बनाने का आदेश देने से इनकार कर दिया, लेकिन अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को इसपर योजना बनाने का दिशानिर्देश जारी किया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि लिंचिंग का कारण कुछ भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यह एक अपराध है और इसका निपटारा कानून के तहत ही किया जाना चाहिए।"

उन्होंने कहा, "हां, देश में लिंचिंग पर मजबूत कानून की अनुपस्थिति है। पुलिस अभी भी आईपीसी के तहत आरोपी पर कार्रवाई करती है जो प्रकृति में सामान्य है। दहेज रोकथाम अधिनियम, पॉस्को की तरह लिंचिंग मामलों के लिए भी अलग कानून होना चाहिए।"

एडवोकेट कवीश ने कहा, "वर्तमान में लिंचिंग कानून व्यवस्था की समस्या के रूप में माना जाता है, यह राज्य के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है। पुलिस आईपीसी की धारा 115,116,117 के तहत आरोपी के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। यह मामले के ऊपर निर्भर करता है कि उसकी प्रवृत्ति क्या है।"

अदालत में वीडियोग्राफी को सबूत माना जाए या नहीं, इस पर दोनों कानून विशेषज्ञों ने कहा कि वीडियोग्राफी का सबूत अदालत में उस स्थिति में मान्य है, जिसमें सबूतों, गवाहों, दस्तावेजों और मौलिक सबूतों में आपस में मेल-मिलाप हो, अन्यथा वह मान्य नहीं होगा। आपस में कड़ियों का मिलना जरूरी है, तभी सबूत मान्य होगा।

लिंचिंग पर सख्त कानून की वकालत करते हुए दोनों विशेषज्ञों ने कहा, "पहले तो आम हत्या की घटना और लिंचिंग की घटना को अलग-अलग करना होगा। लिंचिंग की पहचान करनी होगी और फिर उसके बाद उसपर कानून बनाना पड़ेगा।" सुशील टेकरीवाल ने कहा, "लिंचिंग को दुर्लभतम मामले की श्रेणी से अलग करना होगा, क्योंकि अदालत कहती है कि दुर्लभतम मामले में ही फांसी की सजा दी सकती है।"

उन्होंने कहा कि पॉस्को, टाडा, मकोका जैसे कानून इसलिए बने, क्योंकि स्थापित कानून न्याय करने में विफल रहे। इसलिए लिंचिंग भी विशेष श्रेणी का अपराध है और इसके लिए कानून बनाना चाहिए। वहीं पुलिस प्रशासन की विफलता पर टेकरीवाल ने कहा, "पुलिस का काम करने का तरीका सरकार के अधीन है, उसकी स्वायत्तता नहीं है। भारतीय दंड संहिता में पर्याप्त कानून हैं, फिर भी अलग कानून और एजेंसियां बनी हैं। अक्सर देखा गया है कि पुलिस लिंचिंग की घटनाओं पर पर्दा डालने का काम करती है। वह इसे आम अपराध के रूप में लेती है और ज्यादातर लिंचिंग की घटनाओं में स्थानीय नेता शामिल होते हैं, इसलिए उन्हें भी इस परिधि में लाना चाहिए।"

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भारतीय समाज में लिंचिंग पर सवाल उठाते हुए समाजसेवी डॉ. बीरबल झा ने कहा, "लिंचिंग की घटना किसी भी सभ्य समाज को शोभा नहीं देती। भारतीय कानून किसी को भी आवेश में आकर किसी की हत्या करने का अधिकार नहीं देता है। समाज में इस तरह की घटनाएं निंदनीय हैं और समाज को यह सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि क्या हम पढ़े-लिखे समाज का निर्माण कर रहे हैं या फिर अनपढ़ों की तरह आचरण कर रहे हैं।"

उन्होंने कहा, "सरकार को इस मुद्दे पर आगे आना चाहिए और इस पर लिंचिंग विरोधी कानून बनाना चाहिए। इस तरह की घटनाओं में कोई भी व्यक्ति भीड़ को इकठ्ठा कर अपनी निजी दुश्मनी निकालने का फायदा ले सकता है। इस तरह की घटनाओं से समाज अव्यवस्थित हो जाएगा। ऐसी घटनाओं के जरिये कुछ लोग अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। अगर इस तरह की घटनाएं होंगी, तो न्यायिक व्यवस्था का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा।"

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