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बिना सहमति के ही कोविन ऐप पर 'आधार' का इस्तेमाल कर मोदी सरकार बना रही है नागरिकों की डिजिटल हेल्थ आईडी

इस मुद्दे पर चिंता इसलिए है क्योंकि कोविन ऐप की उचित गोपनीयता नीति (प्राइवेसी पॉलिसी) नहीं है, और लोगों के स्वास्थ्य और डिजिटल आईडी डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारत में कोई डेटा सुरक्षा कानून नहीं है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

केंद्र की मोदी सरकार ने चोरी-छिपे ऐसे सभी लोगों को राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (नेशनल डिजिटल स्वास्थ्य मिशन) से जोड़ना शुरू कर दिया है जिन्होंने कोविड वैक्सीनेसन के वक्त अपना आधार नंबर दिया है। इसके लिए सरकार ने किसी नागरिक से कोई सहमति नहीं मांगी है, बल्कि स्वत: ही एक पहचान नंबर बनाया जा रहा है।

कोविड वैक्सीनेशन के लिए स्लॉट बुक करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे कोविन ऐप ने जबरदस्ती आधार की बायोमीट्रिक और फेशियल पहचान, ओटीपी या जनसांख्यिकीय (डेमोग्राफिक) का सत्यापन शुरु कर दिया है। इन सभी का इस्तेमाल बिना नागरिक की सहमति के स्वास्थ्य आईडी बनाने के लिए हो रहा है। बहुत से लोगों को उनके वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट के साथ यूनिक हेल्थ आईडी मिल गई है। इस मुद्दे पर चिंता इसलिए है क्योंकि कोविन ऐप की उचित गोपनीयता नीति (प्राइवेसी पॉलिसी) नहीं है, और लोगों के स्वास्थ्य और डिजिटल आईडी डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारत में कोई डेटा सुरक्षा कानून नहीं है।

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राष्ट्रीय स्वास्थ्य आईडी (नेशनल हेल्थ आईडी) को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में जारी किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2020 के अपने भाषण में इसका जिक्र किया था। उन्होंने इसी भाषण में वैक्सीनेशन योजना का भी ऐलान किया था। हेल्थ आईडी एक 14-अंकों वाला नंबर है, जिसे www.healthid.ndhm.gov.in वेबसाइट पर जनरेट किया जा सकता है। इसे व्यक्ति का पूरा नाम, जन्म का वर्ष, लिंग और मोबाइल नंबर या आधार नंबर सहित बुनियादी जानकारी डालकर बनाया जा सकता है।

इस आईडी का घोषित उद्देश्य नागरिकों का स्वास्थ्य विवरण को ऑनलाइन करने के लिए एक डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र यानी इकोसिस्टम बनाना है। माना जाता है कि इसे आम नागरिकों और स्वास्थ्य सेवा देने वाली कंपनियों के लिए आसानी से सुलभ बनाया जा सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि इसकी शुरुआत सबसे पहले छह केंद्र शासित प्रदेशों में हुई थी जहां फरवरी 2021 तक सिर्फ 8,05,674 हेल्थ आईडी बनाए गए थे।

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डिजिटल हेल्थ आईडी के लिए साइन अप यानी रजिस्टर करने का "विकल्प" कोविन ऐप पंजीकरण प्रक्रिया के साथ मिला दिया गया है, जबकि इसकी जरूरत नहीं थी। चिकित्सक और सार्वजनिक स्वास्थ्य पेशेवर डॉ सोनाली वैद का कहना है कि, “आधार के लिए पंजीकरण करने के लिए, सभी को अलग से साइन अप करना पड़ता था और लोगों के लिए यह स्पष्ट था जब उन्होंने इसके लिए साइन अप किया था। लेकिन कोविन के साथ डिजिटल हेल्थ आईडी साइनअप को एकीकृत करने की कोई आवश्यकता नहीं है, हालांकि यह वैकल्पिक है, लेकिन हर कोई इसे पूरी तरह से नहीं समझ पाएगा, इस तरह के उपाय डिजिटलीकरण में विश्वास को कम करते हैं।“

वहीं डिजिटल राइट्स रिसर्चर श्रीनिवास कुडाली का कहना है कि, “कोविन पर रजिस्टर करने का सिस्टम तो नागरिक के हाथ में है लेकिन किसी व्यक्ति की हेल्थ आईडी बनाने का काम वैक्सीनेशन सेंटर के कम्प्यूटर ऑपरेटर के हाथ में है। हेल्थ आईडी तभी जारी की जा रही है जब लोग वैक्सीनेशन के लिए अपना आधार नंबर दे रहे हैं। आधार नंबर दिए जाने को यूनीक हेल्थ आईडी बनाने के अधिकार पत्र के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन इसमें उनकी सहमति नहीं ली जा रही है।”

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भारत में नेशनल रूरल हेल्थ मिशन यानी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत 2005 में हुई थी, जिसे 2013 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कर दिया गया। लेकिन कोरोना महामारी ने पूरे स्वास्थ्य सिस्टम की पोल खोल कर रख दी। सिर्फ हेल्थ आईडी बनाने से लोगों को अच्छा और समान इलाज नहीं मिलने वाला। डॉ वैद्य कहती हैं कि, “किसी कार्यक्रम पर जरूरत से ज्यादा ध्यान देना जिसमें सिर्फ एक डिजिटल हेल्थ आईडी ही बन रही है, उससे हमारा ध्यान स्वास्थ्य सेवाओँ की गंभीर कमी से हट रहा है। तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ बैकेंड पर होना चाहिए। जब कोई ऐप या डिजिटिकरण ही मुख्य केंद्र बन जाए तो हमाना ध्यान उस लक्ष्य से भटकता है जिसे हम हासिल करना चाहते हैं। सवाल है कि हम क्या सिर्फ डिजिटल आईडी बनाना चाहते हैं या सबको अच्छा स्वास्थ्य उपचार देना चाहते हैं?”

ऐसा भी माना जा रहा है कि जब डिजिटीकरण हो जाएगा तो लोगों को हेल्थ केयर मिलने लगेगी। लेकिन डॉ वैद्य कहती हैं, “यह गलत धारणा है। हमें हेल्थ वर्कफोर्स, इंफ्रास्ट्रकचर, स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने जैसी बातों पर फोकस करना चाहिए।”

अभी तक इसका कोई प्रमाण नहीं है कि डिजिटल हेल्थ आईडी बनने से आम लोगों के लिए हेल्थ केयर बेहतर हो जाएगी। वैसे भी डिजिटल साधनों का इस्तेमाल कर किए जा रहे वैक्सीनेशन पर असमानता के आरोप लग ही रहे हैं। ऐसे में और भी दिक्कतें होने वाली हैं।

श्रीनिवास कोडाली भी कहते हैं कि समस्या यह है कि भारत ने बीमा आधारित यूनिवर्सल हेल्थ केयर मॉडल की तैयारी कर ली है। यानी इस तरह सरकार निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, इसमें अस्पताल, बीमा कंपनिया शामिल हैं जो हमारा हेल्थ डेटा और हेल्थ आईडी का इस्तेमाल करेंगी। अब इस आधार पर बीमा कंपनियां और अस्पतालों को आपकी हेल्थ की हिस्ट्री पता होगी और वे आपसे अधिक प्रीमियम की मांग कर सकते हैं।

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डॉ वैद्य का कहना है कि भारत को एक समान हेल्थ केयर सिस्टम चाहिए, हम हवा में हेल्थ केयर स्थापित नहीं कर सकते। हमें जमीन पर स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए। इस हेल्थ आईडी से कैसे जमीनी स्तर पर बराबरी की स्वास्थ्य सेवाएं मिलेंगी यह स्पष्ट नहीं है। चिंता यह है कि इससे असमानता घटने के बजाए बढ़ सकती है।

देश में इस समय आयुष्मान जैसी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं हैं, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक इस योजना के तहत सिर्फ 40,000 के आसपास ही मरीजों का कोरोना का इलाज हुआ है और 4 लाख के आसपास टेस्ट हुए हैं। जबकि आयुष्मान भारत योजना में कमजोर तबकों के 10 करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य सेवाएं देने का दावा है। हो सकता है आने वाले दिनों में आयुष्मान भारत योजना का लाभ लेने के लिए हेल्थ आईडी जरूर कर दी जाए।

दरअसल जिन कारोंसे नेशनल हेल्थ आईडी पर जोर दिया जा रहा है उसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का 2019 का वह निर्देश है जिसमें कहा गया है कि आधार अधिनियम की धारा 57 साफ करती है कि आधार विवरण को निजी संस्थाओं द्वारा संग्रहीत नहीं किया जा सकता है और न ही वे इसकी मांग कर सकती हैं। इसी आधर पर किसी का भी आधार डेटा को बैंकों या दूरसंचार कंपनियों के साथ साझा नहीं किया जा सकता है। हालांकि बैंक और टेलीकॉम कंपनियां अभी भी आधार को ही केवाईसी के लिए इस्तेमाल करती हैं।

निजी क्षेत्र के लिए तो कोई भी यूनिक आईडी उपभोक्ताओं का डाटा हासिल करने का जरिया है।

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