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अयोध्या भूमि पूजन: संघ, संत, रथयात्री सब हाशिए पर, पत्ता भी नहीं हिल सकता पीएम के इशारे के बिना 

अयोध्या में 5 अगस्त को राम मंदिर के लिए भूमि पूजन होना तय है। इस पूरे आयोजन में न तो रथयात्रा से मंदिर आंदोलन खड़ा करने वाले आडवाणी दिख रहे हैं और न ही कोई और। इस पूरे आयोजन पर पीएम मोदी का पूरा नियंत्रण है और उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images 

पांच अगस्त को जब अयोध्या में प्रस्तावित राम मंदिर भवन का दोबारा शिलान्यास होगा, तो इस समारोह में लालकृष्ण आडवाणी तो होंगे लेकिन सारा फोकस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर होगा। पहली दफा इसका शिलान्यास 9 नवंबर, 1989 को हुआ था। उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े तमाम संगठनों ने कहा था कि किसी दलित से ही पहली ईंट रखवाई जाएगी। यह मौका बिहार के कामेश्वर चौपाल को मिला था और वह रातों-रात सुर्खियों में आ गए थे। वैसे, इस बार के कार्यक्रम को भूमिपूजन नाम दिया गया है।

अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने के लिए 1990 में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने देशव्यापी रथयात्रा निकाली थी। इसमें दो लोगों- प्रमोद महाजन और नरेंद्र मोदी का काम यात्रा कार्यक्रमों का समन्वय करना था। महाजन की भूमिका ज्यादा बड़ी थी। उन पर पत्रकारों की ब्रीफिंग का भी जिम्मा था। 2004 में उनके ही घर में उनकी हत्या कर दी गई थी। रथयात्रा के समय मोदी बीजेपी चुनाव समिति के सदस्य थे।

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संघ परिवार की राजनीतिक यात्रा मंदिर आंदोलन के कारण ही परवान चढ़ी। लेकिन मोदी ने अब सबको किनारे कर दिया है। संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा कि ‘बाबरी मस्जिद ध्वंस में जिन लोगों की प्रमुख भूमिका रही, उनमें से अधिक की उम्र काफी ज्यादा हो चुकी है। फिर भी, यह हमारे लिए गौरव का विषय होना चाहिए था और हम धूमधाम से अपना बखान कर सकते थे। लेकिन मोदी-अमित शाह की जोड़ी अब सबकुछ अपने हाथ में रखना ही नहीं चाहती, उस इतिहास का ज्यादा उल्लेख करने की जरूरत भी महसूस नहीं करती कि किन लोगों ने अपने प्राण भी इस काम में न्योछावर कर दिए।’

एक अन्य पदाधिकारी ने कहा कि, ‘सोचिए, उन परिवारों पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अयोध्या में कारसेवकों पर चली गई गोली में अपने प्राण का उत्सर्ग तक कर दिया। आज उन सबकी चिता की राख पर सवार होकर हम सिर्फ अपनी राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं।‘

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वैसे, यह भी सच है कि कल जितने लोग मंदिर आंदोलन में भाग लेने की बात कहते हुए अपने कॉलर खड़े किए चलते थे, उनमें से अधिकतर अब बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई कोर्ट के सामने बयान दे रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और कांग्रेस सरकार ने उन लोगों को राजनीतिक विद्वेष की वजह से फंसाया है। उस वक्त की लगभग सारी सार्वजनिक घटनाओं के तमाम लोग गवाह हैं, फिर भी लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह- सभी एक सुर से इस मुकदमे में फंसाए जाने की बात कह रहे हैं।

माना जाता है कि सत्ता शीर्ष ने यही लाइन लेने को इन लोगों से कहा है। एक उच्चस्थ अधिकारी ने कहा कि इस केस के दौरान तरह-तरह के मोड़ आए हैं लेकिन नेता इस तरह से बयान देंगे, यह तो हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा नहीं था। साफ है कि यह सब किसी स्तर से मिल रहे इशारे पर किया जा रहा है। दरअसल, कहा यह गया है कि राजनीतिक स्तर पर फंसाए जाने की बात कोर्ट में नहीं कही गई तो उन्हें बचाना कतई संभव नहीं होगा। इस केस की जांच में शामिल रहे एक सीबीआई अफसर ने कहा कि ये नेता अब निरीह होने का ढोंग कर रहे हैं, पर इन्हें अगर कोर्ट से दोषमुक्त भी करार दिया जाता है, तो आम आदमी का तो न्याय से भरोसा ही उठ जाएगा।

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लाइन बहुत स्पष्ट है

हर मामले की तरह इस मामले में भी लाइन बहुत स्पष्ट है कि सारा क्रेडिट और फोकस सिर्फ बॉस की ओर रहे- पहले किसने क्या कहा, क्या किया, इसका महत्व नहीं है। संघ नेतृत्व को भी कह दिया गया है कि पूरे देश में 5 अगस्त को घर-घर 5 दीये जलवाने-जैसे कार्यक्रमों तक के काम में वे लोग लगें क्योंकि इस बहाने होने वाले ध्रुवीकरण के राजनीतिक फायदे का हिस्सा अंततः उन्हें भी मिलना है। बहाना यही है कि कोरोना का प्रकोप इतना अधिक है कि इसमें सरकार और बीजेपी कार्यकर्ताओं की ज्यादा भागीदारी होने पर अंतरराष्ट्रीय छवि को भी नुकसान पहुंचेगा। और सब जानते हैं कि छवि को लेकर मोदी कितने सतर्क रहते हैं। बल्कि वह तो सिर्फ छवि का ही ध्यान रखने में मशगूल रहते हैं!

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दरअसल, मोदी एक के बाद एक संघ परिवार के सारे एजेंडे को पूरा तो कर रहे हैं लेकिन वह संघ नेतृत्व को तवज्जो नहीं देते। संघ के कई पदाधिकारी दबी जुबान से ही सही, यह कहने में इन दिनों गुरेज नहीं करते कि मोदी अब संघ नेतृत्व से भी ऊपर की चीज हो गए हैं। तब ही तो उन्होंने मंदिर निर्माण मामले में भी संघ के लोगों को एक तरह से किनारे ही कर दिया। नृपेंद्र मिश्रा राम मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष हैं और वह इससे पहले मोदी सरकार में प्रधान सचिव थे। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में मंदिर मामले की हो रही सुनवाई और घटनाक्रम के आधार पर मोदी को पहले ही आभास हो गया था कि कोर्ट के जरिये जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट बनाने का काम सरकार को ही मिलेगा, इसीलिए उन्होंने नृपेंद्र मिश्रा को प्रधानमंत्री कार्यालय की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया था। मिश्रा ने उज्ज्वला योजना से लेकर घर-घर शौचालय बनाने की योजना तक सभी का अनुपालन ठीक प्रकार से कराया था इसलिए उनपर मोदी को पूरा भरोसा था।

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मंदिर मामले की मॉनीटरिंग कर रही केंद्रीय गृह मंत्रालय की टीम से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि मोदी शुरू से निगाह रख रहे हैं कि ऐसा कोई भी कदम न उठाया जाए जिससे नियंत्रण की डोर ढीली हो या यह लगे कि प्रधानमंत्री की इच्छा के बिना कोई कदम उठाया जा सकता है। इसीलिए सरकार ने बहुत सोच- समझकर 15 सदस्यीय ट्रस्ट में से सिर्फ 13 सदस्य नियुक्त किए। इनमें से अधिकतर राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े विश्व हिंदू परिषद कार्यकर्ता या साधु संत थे। बाकी दो जगह ट्रस्ट के सदस्यों की पहली बैठक में आपसी सहमति से भरी जानी थी। इस तरह की जुगत जरूरी थी क्योंकि जिन दो लोगों- विशेष उपाध्यक्ष चंपतराय और राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास, को पहली बैठक में चुना गया, वे दोनों ही बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले में आरोपी हैं। प्रधानमंत्री अपनी कलम से किसी आपराधिक मामले के आरोपी को मंदिर निर्माण के लिए बन रहे ट्रस्ट में नियुक्त नहीं करना चाहते थे। इस तरह सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।

इन दिनों एक पांव लखनऊ, तो एक अयोध्या में रखने वाले एक अधिकारी ने कहा कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कई बार अयोध्या गए हैं और उन्होंने संबंधित लोगों से बात भी की है। लेकिन उनके साथ सबको स्पष्ट है कि जो कुछ जिस तरह होना है, वह सबकुछ दिल्ली से ही तय होगा। मंदिर शिलान्यास कार्यक्रम को लेकर योगी सरकार ने मीडिया को जो भी निर्देश दिए हैं, उसकी रूपरेखा केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तैयार की है। चूंकि योगी भी मीडिया के साथ अमित शाह की तरह ही बर्ताव करते हैं इसलिए उन्हें इसे लागू कराने में खुशी ही हुई होगी।

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