हालात

उत्तर प्रदेश चुनाव: बीएसपी की 'मायावी' खामोशी क्या गुल खिलाएगी और किधर होगा दलित वोटों का रुख !

इस बार के चुनाव में मायावती की खामोशी और फिर पहले दौर के मतदान से एक सप्ताह पहले अचानक सक्रिय होना रहस्यमयी लगता है। इसके क्या राजनीतिक अर्थ होंगे और दलित वोटों पर इसका क्या असर होगा? पिछले चुनाव में बीएसपी से खिसका दलित वोट आखिर किसके हिस्से में आएगा!

Getty Images
Getty Images Hindustan Times

गाजीपुर के जमनिया विधानसभा क्षेत्र के गांव हैं पचोखर और लहुआर। सुरेश पासी और केवल कोरी इन्हीं गांवों के बीच मिलते हैं। बसपा के कोर वोटर रहे हैं लेकिन पिछले चुनावों में भाजपा के साथ थे। इस बार अभी खुल नहीं रहे लेकिन भाजपा से नाराज हैं। कहते हैं, ‘अनाज दिया, गैस दिया, यह तो ठीक है लेकिन महंगाई बहुत है। पोसा नहीं रहा, मतलब गुजारा नहीं चल रहा।’

‘वोट किसे देंगे?’ ‘भाजपा को तो नहीं!’ ‘क्यों?’ ‘उन पर भरोसा नहीं रहा। फ्री का राशन तो वक़्ती बात थी। आगे गुजारा कैसे होगा, समझ नहीं आ रहा! रोजगार छिन गया है। महंगाई रुकने का लक्षण न दिख रहा, न मोदी जी कोई उपाय किये। योगी जी से तो कोई उम्मीदें नहीं है।’ ‘तो इस बार बहनजी को वोट करेंगे?’ ‘अभी तय नहीं किया है लेकिन जो भाजपा को हराएगा, उसे देंगे।’ ‘बहनजी को क्यों नहीं?’ उन्होंने इस बार मुस्लिम को टिकट दिया है, पीछे से भाजपा का साथ दे रही हैं!’ तभी बगल से किसी ने टोका- ‘मोदी बाननत कुल ठीक हो जाइ हो, का चिंता करतल! (मोदी हैं तो सब ठीक हो जाएगा, काहे चिंता करते हैं)।’

जमनिया सीट से पिछली बार भाजपा की सुनीता सिंह चुनाव जीती थीं। इस बार भी वही उम्मीदवार हैं। अखिलेश सरकार के कद्दावर कैबिनेट मंत्री रहते हुए भी सपा के ओम प्रकाश सिंह पिछली बार हार गए थे। सपा ने इस बार भी उन्हें ही प्रत्याशी बनाया है। पिछली बार बसपा के अतुल राय यहां नंबर 2 रहे थे। लेकिन बसपा ने यहां से मुस्लिम उम्मीदवार को उतारा है।

Published: undefined

देवबंद में स्थिति दूसरी है। यह मुस्लिम बहुल सीट है। सपा ने यहां ठाकुर प्रत्याशी को टिकट दिया है जबकि बसपा से मुसलमान प्रत्याशी है। लेकिन अधिकतर मुसलमान अभी ही साफ कह रहे हैं कि वे सपा को वोट करेंगे। यहां का गैर-जाटव दलित भी बसपा के साथ जाता नहीं दिख रहा। किसके साथ जाएगा, कहना मुश्किल है।

वैसे भी, पिछले कुछ चुनावों से बसपा की नीति रही है कि मुसलमान उम्मीदवार उतारो और सपा को कमजोर करो। जाहिर है, इससे भाजपा को मजबूती मिलती रही है। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता अनवर आलम कहते हैं कि कम-से-कम उसका यह फार्मूला इस बार काम नहीं करने जा रहा। यही नहीं, लगभग पूरे यूपी में हर जगह मुसलमान गठबंधन के साथ खड़ा दिख रहा है, यानी यह संदेश साफ है कि मुसलमान इस बार किसी भी हालत में बंटने को तैयार नहीं है। ऐसे में, जो दलित पिछले चुनावों में भाजपा के साथ हो गया था, वह इस बार वहां से लौट रहा है लेकिन मायावती के साथ कितना जाएगा, यह बड़ा सवाल है। जाटव जरूर तब भी मायावती के साथ था। जो थोड़ा बहुत मोदी लहर में छिटका भी, वह अब मायावती के साथ खड़ा होना चाह रहा।

यह बदलाव कब आया? पत्रकार कुमार भवेश चन्द्र कहते हैं, ‘लंबी खामोशी के बाद जब बसपा प्रमुख मायावती ने 2 फरवरी को आगरा में जनसभा को संबोधित किया, तब बसपा के कोर वोटर्स को लगा कि नहीं, बहनजी तो सक्रिय हो रही हैं और उसे उम्मीद बंधी।’ यह अलग सवाल है कि मायावती इतनी देर से क्यों सक्रिय हुईं। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले ही मायावती ट्विटर-जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थीं।

Published: undefined

दलित मामलों को लेकर मुखर प्रमुख पत्रकार दिलीप मंडल ने तब ही कहा था कि ‘मुख्यधारा की पत्रकारिता को लेकर डॉ. आंबेडकर के समय से ही बहुजन समाज सशंकित रहा है। लेकिन सोशल मीडिया के साथ हालात बदले हैं। दलितों का बड़ा वर्ग सोशल मीडिया पर एक्टिव है। इसलिए बहनजी का ट्विटर पर आना स्वागत योग्य है।’ यह बात दूसरी है कि मायावती ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उस तरह कभी उपयोग नहीं किया जैसा कि उनके प्रतिद्वंद्वी करते रहे हैं और इसी अर्थ में बसपा पिछड़ गई दिखती है।

लेकिन दलित चिंतक और राजनीतिक समीक्षक प्रो रविकांत कहते हैं कि न तो मायावती को खामोश और बैकफुट पर मानना सही है और न ही इस बात में दम है कि दलित फिर भाजपा के साथ जा रहे हैं। इस बार तमाम फ्री सुविधाओं- अनाज, गैस और मकान के बावजूद महंगाई उसके लिए बड़ा मुद्दा है और वह परेशान है। दलित इस बार बसपा की ओर लौटेगा। वैसे, उसका कुछ हिस्सा जो भाजपा के साथ चला गया था, उसमें से कुछ तो वहां रह ही जाएगा। कुछ सपा की ओर भी जाएगा, इससे भी इनकार नहीं।

प्रो. रविकांत कहते हैं कि विपक्ष ने थोड़ी चूक कर दी, वरना स्थिति बेहतर होती। दरअसल, मायावती की कथित खामोशी में अखिलेश अपनी उम्मीद जाटव वोटों पर लगाए हुए थे जबकि वह गैर जाटव दलित जमात पर फोकस करते तो बड़ा कुछ हासिल हो सकता था। हालांकि सपा को अब भी गैरजाटव दलित वोटों का ठीक-ठाक हिस्सा मिलने से इनकार नहीं किया जा सकता। यानी तस्वीर यही बता रही है कि पिछली बार बसपा से खिसका दलित वोट इस बार तीन हिस्सों में बंटेगा।

Published: undefined

एक तस्वीर और है। यह सपा-रालोद गठबंधन और भाजपा के बीच के लड़ाई का तीसरा कोण भी बनाती है। बैंक कर्मी और ट्रेड यूनियन नेता अशोक कहते हैं कि बसपा हर उस सीट पर मजबूती से लड़ेगी जहां गठबंधन प्रत्याशी कमजोर होगा। भाजपा से नाराजगी के वोट पहले गठबंधन की ओर लेकिन उसके बाद बसपा की ओर ही जाएंगे।

यह स्थिति पूर्वांचल में कई जगह है। वैसे, पूर्वांचल की कई सीटों पर बसपा समर्थक लोग भी यह कहने से नहीं चूक रहे कि ‘लगता है, बहनजी ने सपा को हराने और भाजपा को जिताने के लिए अपने उम्मीदवार दिए हैं।’ मायावती का वह वीडियो भी खासा चर्चा में है जिसमें वह कह रही हैं कि सपा को सत्ता से दूर रखने के लिए उन्हें भाजपा से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं। वैसे, पड़ताल से यह भी लगता है कि मायावती का यह वीडियो 2020 के विधान परिषद चुनाव के समय का है जिसमें वह कह रही हैं कि हम सपा को बुरी तरह से हराएंगे और फिर, इसके लिए अगर भाजपा या किसी अन्य दल के उम्मीदवार को वोट देना पड़े, तो भी देंगे।

Published: undefined

यूपी और पंजाब चुनावों में दलित वोटों के बारे में पूछने पर दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद साफ कहते हैं कि वह अब चुनावों पर नहीं बोलना चाहते। लेकिन वह ‘आम्बेडकरनामा’ को हाल में दिए इंटरव्यू का वीडियो सुनने की सलाह देते हैं जिसके लगभग शुरू में ही वह कहते हैं कि ‘जीवन में संभवतः यह पहला चुनाव है जब कोई दलित एजेंडा नहीं है। कोई व्यक्ति दलित नेता होने का क्लेम भी नहीं कर रहा। ऐसे में, दलित समाज पूरी तरह कन्फ्यूज्ड है।’ वह यह भी कहते हैं कि ‘सरकार भी फ्री राशन तो दे रही है लेकिन कैश नहीं दे रही’ ताकि दलित पेट भरने के अलावा कोई काम करे। वैसे, चंद्रभान मानते रहे हैं कि दलितों के खिलाफ हुए अत्याचार की वजह से वह भाजपा से छिटक रहा है और छिटक जाएगा। एक अन्य दलित एक्टिविस्ट और मेरठ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर सतीश प्रकाश ने भी पहले ही कहा है कि ‘अगर दलित समुदाय बसपा के अतिरिक्त कहीं भी जाएगा, तो उसके लिए पहचान का संकट बना रहेगा इसलिए वह बसपा की ओर ही जाएगा।’

Published: undefined

ऐसे में, यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि मायावती किधर जाएंगी। इसका जवाब इस बात में छिपा है कि बसपा आखिर कितनी बड़ी फोर्स बनकर उभरती है। सामाजिक चिंतक और दलित राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले प्रो बद्रीनारायण की समझ एकदम साफ है। वह पहले भी कहते रहे हैं कि बसपा को इस चुनाव में जिस तरह नजरअंदाज किया जा रहा है, वह बड़ी भूल है। वह कहते हैं, ‘लोग यह तो कह रहे थे कि अखिलेश अंदर ही अंदर काम कर रहे हैं लेकिन वही लोग ये नहीं देख पा रहे थे कि मायावती अपने कैडर को क्या संदेश दे रही हैं। वह उसे बता रही थीं कि हमारी पार्टी कमजोर हो रही है और हमारी कमेटियों को कमजोर किया जा रहा है। उनका इशारा जिन नेताओं पर था, वे बाद में बाहर चले गए। मायावती की नजर इन्हीं सब पर थी और वे इन्हें ही ठीक कर रही थीं। जब वह ‘खामोश’ थीं, तब वह संगठन बनाने में व्यस्त थीं।’

ज्यादा नहीं, यूपी में शुरुआती दो चरणों के मतदान के बाद कम-से-कम इतना तो जरूर साफ हो जाएगा कि हाथी के कद में फिर से कितना इजाफा होने जा रहा है और यह भी कि जरा-सी उलटफेर में मायावती कई दशक बाद यूपी में सीधी लड़ाई के इस चुनाव को त्रिकोणीय में बदलने से नहीं चूकेंगी और तब शायद चुनाव बाद भी हालात कुछ अलग होंगे।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined