हालात

केन्द्र का ब्लैकमेल भुगतने को मजबूर विपक्ष शासित राज्य, सौतेले बर्ताव से राज्य सरकारें परेशान

केन्द्र सरकार अधिक कमाती है जबकि राज्य सरकारों को अधिक खर्च करना होता है। इसीलिए राज्यों का सारा कामकाज केन्द्र की ओर से मिलने वाले आवंटन पर निर्भर होता है।

फोटो: GettyImages
फोटो: GettyImages Artur Widak

देश भर की मंडियों में गेंहूं की सरकारी खरीद शुरू हो चुकी है। गेहूं की सबसे ज्यादा उपज देने वाले पंजाब से आने वाली ज्यादातर खबरों में यही बताया जा रहा है कि मंडियों का इन्फ्रास्ट्रक्चर अभी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। गेहूं का स्टाॅक रखने की जगह ही ठीक नहीं है और वहां तक पहुंचने की सड़कें भी टूटी-फूटी हैं। ऐसी तैयारियां कुछ महीने पहले ही हो जाती थीं लेकिन इस बार नहीं हो सकीं। पंजाब राज्य एग्रीकल्चरल मार्केटिंग बोर्ड या मंडी बोर्ड यह काम समय रहते नहीं कर सका। उसके पास इसके लिए धन ही नहीं था, पंजाब सरकार के पास उसे देने के लिए पैसा ही नहीं था। बोर्ड पर पहले से कर्ज चढ़ा था, इसलिए कोई भी वित्तीय संस्थान उसे कर्ज देने के लिए तैयार नहीं था। पंजाब सिर्फ एक उदहारण है। बाकी राज्यों की भी यही हालत है।

Published: undefined

जब हर तरफ से जीएसीटी के रिकाॅर्ड संग्रह की खबरें दी जा रही हैं, कईं राज्यों से उनकी आर्थिक हालत खराब होने की जानकारियां आ रही हैं। कुछ ही दिन पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने बताया था कि उनकी सरकार को कर्मचारियों को तनख्वाह देने तक के लिए रिजर्व बैंक से हर महीने चार हजार करोड़ रुपये का कर्ज लेना पड़ रहा है। हिमाचल सरकार को भी हर महीने अपने 2.15 लाख कर्मचारियों को तनख्वाह और 90 हजार रिटायर कर्मचारियों को पेंशन देने के लिए जूझना पड़ रहा है। केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल भी आर्थिक दिक्कतों से जूझ रहे हैं। इन सभी राज्यों में एक समान बात यह है कि वहां न बीजेपी की सरकार है और न एनडीए की। ऐसी शिकायतें आमतौर पर बीजेपी या एनडीए शासन वाले राज्यों से नहीं सुनाई देतीं।

जब किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होता है, बीजेपी की तरफ से नारा लगाया जाता है-  डबल इंजन की सरकार। कहा जाता है कि केन्द्र और राज्य दोनों ही जगह बीजेपी की सरकार होगी, तो विकास तेजी से होगा। मतलब राज्य में भी बीजेपी की सरकार बनेगी, तो केन्द्र के संसाधन पूरी उदारता से मिलेंगे। अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं, "यह कहना कि अगर आप हमारी पार्टी को वोट देंगे, तभी राज्य को ज्यादा धन मिलेगा, संविधान विरोधी ही नहीं फेडरलिज्म विरोधी भी है।" जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार नहीं है, उनके नेता सौतेले बर्ताव की बात अक्सर ही कहते रहते हैं।  मामला सिर्फ राजनीतिक आरोपों का ही नहीं है, ऐसे बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं। 

Published: undefined

पिछले तकरीबन साढ़े तीन साल से पश्चिम बंगाल को केन्द्र ने मनरेगा का पैसा नहीं दिया। बाद में यही फार्मूला तमिलनाडु पर अपनाया गया। उसे पिछले पांच महीने से मनरेगा का पैसा नहीं मिला। वहां के नेता इसे लेकर संसद से लेकर सड़क तक विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं लेकिन केन्द्र पैसा जारी करने के मूड में नहीं दिख रहा। नई शिक्षा नीति के मामले में मतभेद होने के कारण केन्द्र ने पीएम श्री फार्मूले के तहत तमिनाडु के हिस्से की 2,152 करोड़ रुपये की रकम रोक ली है। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का कहना है कि त्रिभाषा फार्मूले पर असहमति के कारण राज्य का हिस्सा छीन लेना और कुछ नहीं खुली ब्लैकमेलिंग है।

कुछ समय पहले शिक्षा पर संसद की स्थाई समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में शिक्षा मंत्रालय से अनुरोध किया था कि केंद्र ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु को दिया जाने वाला जो धन रोक दिया है, उसे प्राथमिकता से जारी किया जाए। यह रकम चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा है। शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही राज्य के विषय हैं। इनके लिए होने वाले खर्च के 80 फीसद को राज्यों को ही वहन करना पड़ता है। ं

Published: undefined

पिछले तकरीबन साढ़े तीन साल से पश्चिम बंगाल को केन्द्र ने मनरेगा का पैसा नहीं दिया। बाद में यही फार्मूला तमिलनाडु पर अपनाया गया। उसे पिछले पांच महीने से मनरेगा का पैसा नहीं मिला। वहां के नेता इसे लेकर संसद से लेकर सड़क तक विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं लेकिन केन्द्र पैसा जारी करने के मूड में नहीं दिख रहा। नई शिक्षा नीति के मामले में मतभेद होने के कारण केन्द्र ने पीएम श्री फार्मूले के तहत तमिनाडु के हिस्से की 2,152 करोड़ रुपये की रकम रोक ली है। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का कहना है कि त्रिभाषा फार्मूले पर असहमति के कारण राज्य का हिस्सा छीन लेना और कुछ नहीं खुली ब्लैकमेलिंग है।

कुछ समय पहले शिक्षा पर संसद की स्थाई समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में शिक्षा मंत्रालय से अनुरोध किया था कि केंद्र ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु को दिया जाने वाला जो धन रोक दिया है, उसे प्राथमिकता से जारी किया जाए। यह रकम चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा है। शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही राज्य के विषय हैं। इनके लिए होने वाले खर्च के 80 फीसद को राज्यों को ही वहन करना पड़ता है। 

Published: undefined

आपदा की स्थिति में भी केन्द्र सरकार बहुत से राज्यों से हाथ खींच लेती है। 2024 में हिमाचल प्रदेश में कईं जगह बादल फटने की वजह से भारी आपदा आई थी। इससे प्रदेश के एक बड़े हिस्से का कईं दिनों के लिए शेष भारत से संपर्क टूट गया था। बाद में प्रदेश सरकार ने आपदा राहत के लिए 9,042 करोड़ रुपयों का रिलीफ पैकेज मांगा। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने अपने बजट भाषण में आपदा का जिक्र भी किया, लेकिन तमाम अनुरोध के बावजूद केन्द्र की तरफ से कोई विशेष मदद नहीं मिली। हिमाचल सरकार चाहती थी कि इसे राष्ट्रीय आपदा का दर्जा दिया जाए, ऐसे में आपदा राहत का काम केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी बन जाता, लेकिन यह मांग भी स्वीकार नहीं की गई। किसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करना है और किसे नहीं, यह बहुत कुछ केन्द्र को ही तय करना होता है। 2023 में तमिलनाडु को दो आपदाओं का सामना करना पड़ा। राज्य सरकार ने 37,906 करोड़ रुपयों की मांग की, उसे मिले सिर्फ 276 करोड़ रुपये। 2019 में कर्नाटक में आई आपदा़ से करें, जब राज्य में भाजपा सरकार थी, उसे नेशनल डिजास्टर रिलीफ फंड से 1200 करोड़ रुपये दिए गए।

राज्यों को किया जाने वाला आवंटन क्यों महत्वपूर्ण इसे दो आंकड़ों से समझा जा सकता है। 2018-19 के आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश में राजस्व के जितने भी संसाधन हैं, उसमें 62.7 फीसद केन्द्र सरकार के पास हैं। दूसरी तरफ देश में जितना भी सार्वजनिक खर्च होता है,  उसमें से 62.4 फीसद खर्च राज्यों द्वारा किया जाता है। यानी केन्द्र सरकार अधिक कमाती है जबकि राज्य सरकारों को अधिक खर्च करना होता है। इसीलिए राज्यों का सारा कामकाज केन्द्र की ओर से मिलने वाले आवंटन पर निर्भर होता है। इससे केन्द्र के लिए कुछ जगहों पर भेदभाव के मौके भी बनते हैं। जीएसटी के बाद राज्यों के राजस्व संसाधनों में खासी कटौती हो गई है। अब राज्यों के पास दो ही बड़े संसाधन बचे हैं- पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाला सेल्स टैक्स और आबाकारी कर। ये दो संसाधन मिलकर राज्य के पूरे खर्च का एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही बनते हैं।

Published: undefined

पिछले कुछ साल में ऐसी संस्थागत व्यवस्थाएं कर दी गई हैं कि केन्द्र से राज्यों को ज्यादा आवंटन न हो सके। पहले केन्द्र से राज्यों को दो तरह से धन मिलता था। एक तो फाईनेंस कमीशन के फार्मूले से तय होता था कि किस राज्य को कितना धन मिलेगा, जिसे वर्टिकल एलोकेशन कहा जाता है। दूसरे योजनाओं को लागू करने के लिए योजना आयोग धन का आवंटन करता था। योजना आयोग खत्म हो जाने के बाद यह रास्ता बंद हो गया है। योजना आयोग की प्रक्रिया काफी कुछ लोकतांत्रिक थी क्योंकि इसके नीतिगत फैसले राष्ट्रीय विकास परिषद में होते थे जिसमें सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की भूमिका होती थी। 

योजना आयोग खत्म होने के बाद फाईनेंस कमीशन की ओर से होने वाले आवंटन को सात फीसद बढ़ा दिया गया। पहले यह 34 फीसद होता था जो बढ़ाकर 41 फीसद कर दिया गया।हालांकि प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है, 'जिसे 41 फीसद कहा जा रहा है, वह दरअसल 34 से 35 फीसद ही है। इसकी वजह वे सेस और सरचार्ज हैं जो केन्द्र के खाते में तो जाते हैं लेकिन आवंटन में शामिल नहीं होते।' 

पहले राज्यों को आवंटन किए जाने वाले धन में कारपोरेट टैक्स को शामिल नहीं किया जाता था। 2020 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय संविधान संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया गया कि आवंटन की मद में सेस और सरचार्ज को शामिल नहीं किया जाएगा। नरेन्द्र मोदी सरकार बनने के बाद 2015-16 से सेस और सरचार्ज को लगातार बढ़ाया जा रहा है। 

ऐसा नहीं है कि इन दबावों से सिर्फ गैर बीजेपी वाले राज्य की प्रभावित हैं। बीजेपी शासित राज्यों पर इसका असर दिखता है। अभी कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र के एक कैबिनेट मंत्री ने यह बयान दिया था कि राज्य सरकार को कर्मचारियों का वेतन देने के लिए उनके पीएफ और ग्रेच्युटी का पैसा इस्तेमाल करना पड़ा रहा है। हालांकि बाद में उन्होंने यह बयान वापस ले लिया, लेकिन हालात क्या हैं, यह साफ हो गया। केन्द्र और राज्यों के बीच जो आर्थिक रिश्ता बनाया गया है, उसमें दम तो सभी राज्यों का घुट रहा है, लेकिन गैर-भाजपा शासित राज्यों का तो जैसे गला ही दबाया जा रहा है। 

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined