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पुलिस और पूर्वाग्रह: एक प्रतिशोधी सरकार का अफसरों से बदला

वह सरकार और प्रशासन जो गिरफ्तार पुलिस अफसरों को बचाने के लिए किसी भी हद तक चला गया था, अब कुछ आईपीएस अफसरों से बदला लेने की ताबड़तोड़ कोशिश कर रहा है।

(बाएं से) आईपीएस अफसर रजनीश राय, आर बी श्रीकुमार, राहुल शर्मा और संजीव भट्ट
(बाएं से) आईपीएस अफसर रजनीश राय, आर बी श्रीकुमार, राहुल शर्मा और संजीव भट्ट 
सतीश चंद्र वर्मा गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं। पिछले दस साल के दौरान उनकी तैनाती पूर्वोत्तर और कोयम्बटूर में रही। 12 साल तक उन्हें कोई प्रमोशन नहीं दिया गया और रिटायरमेंट से एक महीने पहले 30 अगस्त को उन्हें सेवा से हटा दिया गया। सरकार द्वारा इस तरह दंडित करने के लिए अलग-थलग किए जाने वालों में वर्मा गुजरात के अकेले आईपीएस अधिकारी नहीं हैं। अधिकारियों को प्रताड़ित करने के क्रम की पहली कड़ी में आपने पढ़ा सतीश चंद्र वर्मा के बारे में। अब पढ़िए दूसरी कड़ी।

जब सुप्रीम कोर्ट ने 2002 दंगों के मुकदमों में से एक को फिर से खोलने की पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा की याचिका जुलाई में निरस्त की, उसके फौरन बाद सोशल एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ के साथ ही अवकाश प्राप्त डीजीपी आर बी श्रीकुमार और पूर्व आईपीएस अफसर संजीव भट्ट को गिरफ्तार करने में गुजरात सरकार ने बिजली-सी गति दिखाई। उन लोगों पर गुजरात सरकार को बदनाम करने का षड्यंत्र करने और ‘झूठे साक्ष्य रचकर कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने षड्यंत्र करने’ के आरोप लगाए गए हैं।

1990 के दशक के हिरासती मौत के एक मामले में पहले से ही जेल में बंद संजीव भट्ट को जेल से बाहर निकला गया और फिर गिरफ्तार कर लिया गया। एक अन्य पूर्व आईपीएस अफसर राहुल शर्मा को समन किया गया और उनका बयान रिकॉर्ड किया गया है, हालांकि फिलवक्त उनकी गिरफ्तारी नहीं हुई है। शर्मा 1992 बैच के अफसर हैं। करीब एक दशक तक राज्य सरकार के साथ झगड़ा-मनमुटाव के बाद उन्होंने 2015 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और वह अब गुजरात हाई कोर्ट में अधिवक्ता हैं।

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संजीव भट्ट काफी समय से जेल में हैं। वह जेल से बाहर निकले लेकिन उन्हें फिर जेल में डाल दिया गया। आरबी श्रीकुमार को भी जेल मेें डाल दिया गया है। इन लोगों की रिहाई और 2002 दंगे में पीड़ित लोगों को न्याय देने की मांग को लेकर कई जगह विभिन्न संगठन प्रदर्शन कर रहे। पर सरकार इन पर अपना गुस्सा उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।

विभिन्न जांच आयोगों में 2002 दंगों के दौरान मंत्रियों, अफसरों और संघ परिवार के पदाधिकारियों के कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) उपलब्ध कराने के लिए उन्हें कथित तौर पर परेशान किया जा रहा है। जब नरेंद्र मोदी 2001 में पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने अपने पूववर्ती केशुभाई पटेल के निकट माने जाने वाले पांच आईएएस अफसरों का फौरन ही तबादला कर दिया था। इनमें से तीन ने बाद में सेवा छोड़ दी। यह आने वाले दिनों को लेकर स्थितियां साफ कर देने वाली बात थी। जिन भी लोगों ने मुख्यमंत्री मोदी का विरोध किया या उनसे असहमति जताई, उन्हें ‘ठीक’ कर दिया गया। उनमें डीजीपी (अब रिटायर हो चुके) कुलदीप शर्मा और आर बी श्रीकुमार भी थे।

उस समय सीआईडी के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक शर्मा ने 1 अगस्त, 2005 को तत्कालीन मुख्य सचिव सुधीर मांकड़ को तीन पन्नों की एक रिपोर्ट भेजी थी जिसमें सहकारी बैंक घोटाले में अपने ही विभाग के मंत्री अमित शाह के खिलाफ सीबीआई जांच की सिफारिश की गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि शर्मा को ‘दंड’ के तौर पर फौरन गुजरात भेड़ और ऊन विकास निगम (जीएसडब्ल्ययूडीसी) के प्रबंध निदेशक के शंटिंग वाले पद पर तैनात कर दिया गया।

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2002 के दंगों के बाद गुजरात विधानसभा चुनावों का विरोध करने के लिए श्रीकुमार को भी किनारे कर दिया गया। श्रीकुमार ने तत्ककालीन मुख्य चुनाव आयुक्त, जेएम लिगंदोह को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि दंगों के बाद माहौल सांप्रदायिक रूप से इतना आवेश में है कि इसमें चुनाव कराना उचित नहीं होगा। हालांकि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव में जाने और उस माहौल का फायदा उठाने के इच्छुक थे। श्रीकुमार के ऊपर किसी और को बैठा दिया गया लेकिन उन्होंने अदालत में याचिका डाली और सेवानिवृत्ति के एक साल बाद उन्हें अपना पद और वेतन वापस मिल गया।

राज्य खुफिया ब्यूरो के प्रमुख के रूप में उन्होंने 2002 की राज्यव्यापी ‘गौरव यात्रा’ के दौरान नरेंद्र मोदी के भाषणों को भड़काऊ बताया था। श्रीकुमार पर मीडिया को जानकारी लीक करने का आरोप लगाया गया और इसके लिए उन पर कार्रवाई भी की गई लेकिन श्रीकुमार ने इसे अदालत में चुनौती दी और आखिरकार जीत भी हासिल की। श्रीकुमार ने दंगों की जांच कर रहे नानावती-शाह न्यायिक जांच आयोग के समक्ष भी विस्तृत हलफनामा पेश किया था।

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अदालतों ने बिलकिस बानो और शमा कौसर को निराश किया है। बिलकिस के साथ गैंगरेप करने और उसके परिवार वालों की हत्या के दोषियों को छोड़ दिया गया। वहीं, शमीना कौसर अपनी बेटी इशरत जहां के नाम पर लगे धब्बे को साफ करने की कोशिश कर रही थीं। पुलिस ने तब दावा किया था कि कॉलेज की छात्रा इशरत और तीन अन्य लोग लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मॉड्यूल का हिस्सा थे जो तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी की हत्या करने की फिराक में थे। इस मामले में अदालती कार्यवाही 2019 में रोक दी गई जब सरकार ने पुलिस अधिकारियों डी जी वंजारा और एन के अमीन के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया। इससे पहले 2018 में गुजरात के पूर्व डीजीपी पी पी पांडे को मामले से बरी कर दिया गया था।

एसआईटी और सीबीआई द्वारा आरोपित तीन अन्य पुलिस अधिकारियों- जी एल सिंघल, तरुण बरोट और अंजू चौधरी को पिछले साल अप्रैल में आरोपमुक्त कर दिया गया। टूटे दिल से तब शमीमा कौसर ने कहा था कि “यह सीबीआई का जिम्मा है कि सभी 11 पुलिस अफसरों और इसमें शामिल दूसरे लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाए।” लेकिन सीबीआई ने राज्य सरकार की मंजूरी से इनकार के खिलाफ अपील दायर नहीं करने का फैसला किया। वही प्रशासन जो गिरफ्तार पुलिस अधिकारियों को बचाने के लिए सही-गलत सब हथकंडे अपना रहा था, अब वर्मा के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है।

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एसआईटी के सदस्य के तौर पर वर्मा ने इशरत जहां एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था। इसके बाद यह मामला सीबीआई को सौंप दिया गया जिसके कारण वंजारा और अमीन सहित तमाम गिरफ्तारियां हुईं। वर्मा और गुजरात कैडर के एक अन्य आईपीएस अधिकारी रजनीश राय को नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों के भीतर ही राज्य से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया था। दोनों निडर और अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते थे।

वर्मा को शिलांग में एनईईपीसी का सीवीओ बनाया गया जबकि राय को झारखंड के जादूगोड़ा में यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) में सीवीओ के रूप में तैनात किया गया। दोनों ने अपने नए पदों पर काम करना शुरू कर दिया लेकिन तबादले को केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) में चुनौती देने के बाद। दोनों ने बिल्कुल साफ तरीके से कहा था कि उन्हें इसलिए परेशान किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने अपने काम को पूरी ईमानदारी से निभाया जिसकी वजह से तमाम अफसरों के गलत काम सामने आ गए।

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कैट की गुवाहाटी पीठ में वर्मा ने जो 1100 पन्नों की याचिका दी है, उसमें अन्य बातों के अलावा इसका भी जिक्र किया गया है कि नीपको के सीवीओ के रूप में उनकी सेवाओं में इसलिए कटौती कर दी गई क्योंकि उन्होंने 450 करोड़ रुपये के परिवहन घोटाले को पकड़ लिया था, जिसमें तत्कालीन गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू का एक रिश्तेदार शामिल था।

गुजरात कैडर के 1992 बैच के आईपीएस रजनीश राय ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच की और इसमें उन्होंने साथी डीआईजी डीजी वंजारा के अलावा आईपीएस अधिकारियों राजकुमार पांडियन और दिनेश एम एन को गिरफ्तार किया था। रजनीश राय की जांच की वजह से ही गुजरात के पूर्व गृह मंत्री अमित शाह की गिरफ्तारी हुई थी जो अब केंद्रीय गृह मंत्री हैं। जमानत मिलने से पहले शाह को काफी समय साबरमती जेल में बिताना पड़ा था। राय को लॉ की परीक्षा के दौरान कथित रूप से ‘नकल’ करने के लिए फंसाने की कोशिश की गई लेकिन गुजरात हाईकोर्ट की कड़ी फटकार के बाद यूनिवर्सिटी और शासन को पीछे हटना पड़ा।

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केंद्र में मोदी के सत्ता में आने के बाद न केवल राय द्वारा गिरफ्तार किए गए अधिकारियों के खिलाफ चल रहे सभी मामलों को खत्म कर दिया गया बल्कि गिरफ्तार अधिकारियों को अच्छी तैनाती से पुरस्कृत भी किया गया जबकि राय को कटघरे में खड़ा कर दिया गया। यूसीआईएल में सीवीओ के तौर पर भेजे गए राय ने जब अपनी रिपोर्ट में यूरेनियम के खनन में भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची और सुरक्षा मानदंडों की अनदेखी का मामला उठाया तो उन्हें केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ‘सक्षम प्राधिकारी से उचित अनुमोदन के बिना’ काम करने के लिए फटकार लगाई गई। उसके बाद रजनीश राय को सीआरपीएफ आईजी (उत्तर पूर्व) बनाकर शिलांग भेज दिया गया। उसके बाद उन्हें आंध्र प्रदेश के चित्तूर में सीआरपीएफ के उग्रवाद और आतंकवाद विरोधी स्कूल (सीआईएटी) में स्थानांतरित कर दिया गया।

सूत्रों ने बताया कि इसकी वजह यह थी कि राय ने असम के चिरांग जिले में न्यायेतर तरीकों से लोगों की हत्या पर सवाल उठाए थे। वह अभियान कथित तौर पर असम पुलिस, सीआरपीएफ और सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) मिलकर चला रहे थे। राय की रिपोर्ट पर तो कोई कार्रवाई नहीं की गई लेकिन इसकी जांच जरूर शुरू कर दी गई कि यह खबर आखिर मीडिया में लीक कैसे हुई। 30 नवंबर, 2018 को राय ने वीआरएस मांगी। सेवा से मुक्त करने के बजाय उन्हें “अनधिकृत रूप से सीआईएटी का प्रभार सौंपने” के लिए निलंबित कर दिया गया। राय ने बाद में आईआईएम, अहमदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में ज्वाइन किया, लेकिन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राय को नियुक्त करने के लिए आईआईएम को कारण बताओ नोटिस जारी किया।

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हाईकोर्ट के यथास्थिति बनाए रखने के आदेश के बाद ही केंद्र और राज्य सरकारें पीछे हटीं। हाईकोर्ट में राय के वकील उनके बैचमेट पूर्व आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा हैं। शर्मा 2002 के दंगों के दौरान भावनगर के पुलिस प्रमुख थे और दंगाइयों को उनकी मर्जी का करने से रोकने के लिए उन्हें अहमदाबाद के पुलिस नियंत्रण कक्ष में भेज दिया गया था। मोबाइल कॉल डेटा के उनके विश्लेषण ने दंगाइयों और राज्य सरकार के अधिकारियों के बीच साठगांठ का खुलासा किया था। एक अन्य बर्खास्त आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट और पूर्व आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा भी गुजरात कैडर के हैं और वे भी सरकार के निशाने पर है।

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