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लखनऊ: सिर्फ खाने-खिलाने की नहीं, मिलने-बैठने और आपसी सौहार्द्र की भी रातें होती हैं रमज़ान की

रमज़ान की रातें मिलने-बैठने, आपसी सौहार्द्र का भी बहाना होती हैं। यहां खान-पान, रवायत और तहज़ीब तक के जो रंग अब तक मिलते रहे हैं उन्हें बचाकर रखने की जरूरत है। 

फोटो : नागेन्द्र
फोटो : नागेन्द्र 

विक्टोरिया स्ट्रीट से गुजरते हुए इस बार अहसास कुछ अलग है। अब तक के हर रमजान से अलहदा। जाने क्यों न जायके की वो लज्जत दिखाई दे रही है, न रिश्तों की पहले सी गरमाहट। एक भीड़ सी है जो किसी खाओ गली में तब्दील हो गई है। नहीं, यह लखनऊ की विक्टोरिया स्ट्रीट की रात नहीं लग रही। अकबरी गेट, पाटानाला चौकी वाली इदरीस की बिरयानी से लेकर पुराना इमामबाड़ा और घंटाघर के आसपास की रौनक में भी एक नई बयार है। ख़ुशबू नई है, पुरानी रंगत पर भारी पड़ती हुई। पुराना इमामबाड़ा और घंटाघर के आसपास तो माहौल बिलकुल ही बदला हुआ है।

किसी को किसी से बतियाने की तो छोड़िए, किसी की तरफ देखने की भी फुरसत नहीं है। सब खाने-खिलाने, हिसाब जोड़ने में मशगूल हैं। इतने कि किसी का किसी आइटम का हिसाब ही छूट जा रहा है। याद आने पर गुस्सा दिखता है, तो कहीं मुस्कुरा के टाल देने की वाली पुरानी अदा भी दिख जाती है… “अमां जाने दो” वाले अंदाज में। वैसे सच यही है कि अमां जाने दो वाला वो खांटी लखनवी अंदाज अब बिरले ही देखने को मिलता है। ये तो बीच वाली पीढ़ी के अशरफ़ मियां हैं जो “अमां जाने दो… बच्चे हैं… भूल गए होंगे…” कहकर रमज़ान की पाक रातों का हवाला देकर अपने स्टाफ़ को समझा रहे हैं जो खाकर आधा पैसा देने वालों के पीछे भागा लेकिन भीड़ में गुम हो गए चेहरों के कारण निराश हो कुछ बेजा सा भुनभुना रहा है, जो अशरफ़ को गंवारा नहीं।

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छोटे इमामबाड़े के सामने की छोटी होने के बावजूद सड़क तक फैल गयी यह बड़ी दुकान मोमो, कीमा बर्गर, शोरमा के साथ ट्रेडिशनल मुग़लई आइटम के कारण युवाओं को खूब आकर्षित कर रही है। सड़क की दोनों पटरियों पर पसरी इस खाओ गली में सिर्फ खाने के दौर हैं, चाय, लस्सी, शेक और रूह अफ़जा के साथ। कश्मीरी चाय भी है, गुलाबी वाली। आकर्षण ऐसा कि न चाहते हुए भी हम आधा कीमा बर्गर खा ही गए। यहां सेल्फी लेने की होड़ है, और हो भी क्यों न जब थोड़ा सा टेढ़ा-मेढ़ा होने से रमज़ान की रंगत में डूबी गली और पीछे घंटाघर, रूमी दरवाज़ा, छोटा इमामबाड़ा या सतखंडा जैसी इमारत भी फोटो में फ्रेम की जा सकती हों। ऐसा यहीं हो सकता है। विक्टोरिया स्ट्रीट या अकबरी गेट पर यह संभव नहीं। वहां का आनंद लेने के लिए आपको थोड़ा लखनवी होना पड़ता है, लेकिन…।     

यूट्यूब या फेसबुक पर अपनी दुकान की तारीफ देख मुस्कुरा उठने वाले कुल्चे-निहारी के लिए फेमस ‘रहीम’, ‘मुबीन’ हों या बिरयानी वाले ‘इदरीस’ और ‘लल्ला’ या गलावटी कबाब वाले ‘टुंडे’... इनमें से कोई भी अब मोबाइल कैमरों या पारम्परिक कैमरों को देख पहले की तरह खुश नहीं होता।

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दरअसल ब्लॉगर्स के सवाल, खासतौर से ऐसी भीड़ में अब इन्हें परेशान करने लगे हैं। यहां तक कि महज़ फोटो खींचने के वास्ते उठा हमारा मोबाइल कैमरा भी अब उन्हें पहले की तरह मुस्कुराने की वजह नहीं दे रहा। ये तो भला हो रहीम और मुबीन के ऊपरी तल्ले पर फेमिली और निचले तल्ले पर खालिस मर्दों की मौजूदगी सुनिश्चित करने में लगे इन दो शक्स का, जो हमारे हाथ में मोबाइल का कैमरा एक्टिव देख यह कहने से रोक नहीं पाते…अरे साहब, हमको भी फेमस कर दो…!

और हम मुस्कुरा कर तस्वीर उतारते हैं तो बदले में हमे साथ आए बेटे के साथ बैठने का बढ़िया जुगाड़ मिल जाता है। इनके कुल्चा-निहारी और पाए का स्वाद आज भी नहीं बदला है। बिठाते आज भी ये पहले जैसे प्यार से ही हैं। चेहरा अगर हिन्दू हुआ, ऊपर से थोड़ा ज्यादा उम्र वाला भी तो यहां काम करने वालों को ट्रेनिंग ऐसी कि किसी पुराने चेहरे से टेबल खाली कराकर भी बिठाने में कोताही नहीं करेंगे।

अब इनकी टेबल पर यूज एंड थ्रो वाले कागज के मेजपोश भी सजने लगे हैं, जो बैठने वाले का सुकून बढ़ा देते हैं। दरअसल जायके और मेहमान नवाज़ी की यही खासियत है कि बड़े से बड़े नफासत पसंद भी यहां बैठकर खाने में तरदुद्द या ना नुकुर नहीं करते।

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टुंडे की पारम्परिक दुकान भी यहीं अकबरी गेट पर है, लेकिन स्वाद के शौक़ीन अब अमीनाबाद या कपूरथला वाले टुंडे के यहां जाना ही पसंद करते हैं। हालांकि जायके की तारीफ़ में अब उनके सामने भी कई नए नाम पैदा हो चुके हैं। 

लेकिन यह क्या…! हम तो खाने में ही डूब गए, तो क्या लखनऊ की रमज़ान की ये रातें बस इसी के लिए याद की जाएंगी अब। इन गलियों में घूमते हुए अपनी क़िस्सागोई से देश-विदेश में मशहूर हिमांशु वाजपेयी टकरा गये। पुराने लखनऊ के बाशिंदे हिमांशु कुछ साल पहले तक की उस रवायत को याद कर दुखी हैं। कहते हैं… “क्या पुराने लखनऊ की ये रातें महज़ इसीलिए याद की जाएंगी”।

दरअसल रमजान की ये रातें कभी उन दोस्तों, पारिवारिक लोगों से मिलने-बैठने का ज़रिया होती थीं जो रोजे से होने के कारण दिन में संभव नहीं होता था। तो वो जो कल्चर था मिलने बैठने का कम हो रहा है। बाजार की रौनक़ जरूर बढ़ी है, लेकिन वह बैठकी, अड्डेबाजी जिसमें देर तक सिर्फ चाय लड़ती थी और हालात पर बातें होती थीं, बगल में हुक्के होते थे, पानदान भी, अब वह सब ग़ायब है।

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दुनिया-जहान की बातें करने, मतभेदों पर भी मुस्कुरा कर बात आगे बढ़ा देने वाले बुजुर्गों के अड्डे तो अब शायद घरों में सिमट गए हैं। अब अड्डे नहीं रहे तो नौजवानों में भी सुनने की वह जरूरत नहीं रही जैसी पहले देखने में आती थी। फ़िरंगी महल और शिया पीजी कालेज के आसपास खटिया पर अकेले बैठे बुजुर्ग से जब हमने उस रवायत का चर्चा किया तो मासूमियत से बोले: “सब हालात का असर है। दिलों में ऐसा सन्नाटा तो तब भी नहीं आया था जब हम वाक़ई बेहद दुखी थे।” शायद मोहम्मद बाकर नाम बताया था उन्होंने।   

वैसे बताते चलें कि रौनक के इस बजार में खाने के अलावा भी जरूरत की हर चीज़ कपड़े से लेकर जूते-चप्पल और पर्दे से लेकर पांवपोश, क्रॉकरी से लेकर सजावटी सामान तक सब कुछ रात भर मिलता है। खजूर, मेवे, सिवइयां और बेकरी के ज़रूरी आइटम तो पूरे बजार में कहीं भी आपकी राह तकते मिल जायेंगे।     

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बचपन से जवानी तक का लम्बा वकफ़ा इसी इलाके में गुजारने वाले हम अपने बेटे के साथ वापस लौट चुके हैं, रमज़ान की रातों में आए इस फर्क के बहाने समाज में बढ़ते फर्क पर सोचते हुए। बेटा पूछ रहा है: “पिछली बार और इस बार में ही बहुत फर्क नहीं आ गया है?” याद आयी हिमांशु की वह बात: “असर तो होली के दिन निकलने वाले उस जुलूस में भी आ गया है जिसमें न सिर्फ गंगा-जमुनी तहज़ीब अपने उरूज के साथ दिखती थी, हमारे पहनावे और पारम्परिक साजों का भी नजारा मिलता था।” क्यों, इसके जवाब में इस साल होली के जुलूस में शामिल रहे प्रभात कहते हैं: उत्सव जब शौर्य प्रदर्शन में तब्दील होने लगें तब मान लेना चाहिए कि वक्त बदल गया है।

अब तो इस चौक में नागर जी की हवेली (मशहूर साहित्यकार अमृत लाल नागर का घर) का रास्ता बताने वाला भी आसानी से नहीं मिलता। शायद इन रवायतों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में हम सब से भी कहीं चूक हुई है। हमने वह सब बनाया ही नहीं। बदलती हुई पीढ़ियां आखिर यूं ही तो एक दूसरे से संदेश ग्रहण नहीं किया करतीं हैं!

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