
देश के 12 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में एसआईआर लागू करने की चुनाव आयोग की घोषणा ने खास तौर पर पश्चिम बंगाल में चिंता की लहर पैदा कर दी है। इस देश में दशकों तक नागरिक की हैसियत से रहने के बाद ‘अवैध प्रवासी’ बना दिए जाने के खौफ ने कथित तौर पर कई लोगों को खुदकुशी के लिए मजबूर कर दिया। ऐसे लोगों में मिदनापुर के खितीश मजूमदार (95), कूचबिहार के एक अज्ञात व्यक्ति, मतुआ समुदाय के लोगों की अच्छी-खासी संख्या वाले उत्तरी 24 परगना के खरदाह इलाके के प्रदीप कर (57) और इसी जिले की एक महिला शामिल हैं। बीजेपी की पेशानी पर इसलिए बल पड़ना चाहिए, क्योंकि मौत को गले लगाने वाले लोगों में से ज्यादातर मतुआ समुदाय के हिन्दू हैं जिन्हें अपने पाले में करने के लिए बीजेपी ने बड़ी मेहनत की और इस समुदाय से बड़ी संख्या में लोग उसे वोट भी करते रहे हैं।
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वर्ष 1947 के बाद मतुआ समुदाय के लोग विभिन्न कालखंड में बांग्लादेश से भागकर भारत आते रहे। पासपोर्ट या वीजा न होने के बावजूद, न तो सरकारी तंत्र और न ही राजनीतिक सत्ता ने इन लोगों को ‘अवैध प्रवासी’ के तौर पर रजिस्टर करने की जरूरत समझी। इस तरह भारत आने वालों में हिन्दू और मुसलमान, दोनों थे और दोनों ही ‘शरणार्थी’ थे, जिनके पास न घर थे और न उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। राजनीतिक दलों ने ऐसे लोगों को राशन कार्ड देकर उन्हें अपने पैर जमाने में मदद की और ये लोग धीरे-धीरे समाज में घुलते-मिलते चले गए।
एक महिला, जिसका नाम इस मुश्किल दौर में गोपनीय ही रखा जाना चाहिए, बताती हैं कि कैसे वह, ‘राजीव गांधी के निधन के आसपास’ यानी 1991 के आसपास सीमा पार कर भारत आई थीं। तब वह काफी छोटी थीं। उनके परिवार का पहला दस्तावेज राशन कार्ड था। फिर उन्होंने वोटर के तौर पर रजिस्टर कराया, आधार और पैन कार्ड बनवाए, बैंक खाते खोले और अब ‘लक्ष्मी भंडार’ जैसी योजनाओं का लाभ उठा रही हैं। उनके पास ‘स्वास्थ्य साथी’ स्वास्थ्य कार्ड है, और उनकी बेटी ‘कन्याश्री’ योजना का लाभ उठा रही है, जो लड़कियों की शिक्षा और उन्हें स्कूली पढ़ाई पूरी करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए चलाई जा रही है।
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आज यह शादी-शुदा महिला अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। उनके परिवार में मां और सास भी हैं। एसआईआर (विशेष सघन पुनरीक्षण) को लेकर वह चिंतित हैं और उन्हें नहीं पता कि सीएए के तहत नागरिकता के लिए आवेदन कैसे करें। हालांकि, उन्हें ऐसी जानकारी मिली है कि उत्तरी 24 परगना के बोनगांव, जो मतुआ समुदाय का गढ़ और केन्द्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर का गृहस्थान है, में ‘शिविर लगाए गए हैं जहां लोगों से नागरिकता फॉर्म भराए जा रहे हैं।’ उन्हें अंदाजा नहीं कि फॉर्म भरने से क्या हासिल होगा, लेकिन वह भी मतुआ समुदाय के उन तमाम लोगों में हैं जिन्हें डर है कि फॉर्म भरने का मतलब यह मान लेना होगा कि वे वास्तव में ‘विदेशी’ हैं। वह कहती हैं, ‘मैं बांग्लादेश से आई जरूर थी, लेकिन अब मैं यहां रहती हूं। मेरे पास आधार कार्ड और वोटर कार्ड है। फॉर्म भरने के बाद यही होगा कि मैं कहीं की नहीं रह जाऊंगी।’
ममता बनर्जी अकेली नेता हैं जिन्होंने लगातार वादा किया है कि एसआईआर के जरिये किसी को भी वोट डालने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। ममता का यही स्पष्ट आश्वासन उनके लिए बीजेपी द्वारा चलाए जा रहे राजनीतिक नैरेटिव के खिलाफ मजबूत सुरक्षा घेरा बनाता है।
बीजेपी ने बांग्लादेश से आए मुसलमानों के लिए वहां से आए हिन्दुओं में खौफ का माहौल बनाया है। उसने सीमा पार से आए मुसलमानों को ‘आक्रमणकारी’, ‘घुसपैठिया’, ‘रोजी-रोटी, औरतों और जमीन हड़पने वाला’ , आतंकवादी, राष्ट्रविरोधी और यहां तक कि ‘नमक हराम’ तक कहकर लोगों में ‘मुस्लिम घुसपैठ’ का हौवा खड़ा किया है।
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कई लोग भारत में दशकों तक वैधानिक तरीके से रहने के बाद निकाल बाहर किए जाने के खौफ में वोटिंग करते हैं। वे अपने नागरिकता इतिहास के कारण ऐसा करते हैं- उनमें से कुछ कांग्रेस के शासनकाल (बंटवारे से लेकर 1977 तक), कुछ वामपंथियों के शासनकाल, तो कुछ तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में रहने के दौरान आए। मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए सीएए को हथियार बनाकर बीजेपी का घुसपैठ-विरोधी अभियान चलाना उसके वैचारिक और चुनावी, दोनों उद्देश्यों को पूरा करता है। कानून पारित करना आसान था; हिन्दू और मुस्लिम प्रवासियों के लिए जमीनी स्तर पर अलग-अलग मानक लागू करना कहीं जटिल है।
बीजेपी की रणनीति की खामी यह है कि वह पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और छत्तीसगढ़ के जटिल इतिहास को ध्यान में नहीं रख पाई। असम में, मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का चुनाव प्रचार बांग्लाभाषियों को अवैध प्रवासी के रूप में चित्रित करता है और भारतीय एवं स्थानीय मुसलमानों के प्रति उनका आक्रामक रुख इस क्षेत्र के इतिहास की अनदेखी करता है- जब ब्रिटिश शासन के दौरान अविभाजित बंगाल के मुसलमानों और मुगलों के साथ आए परिवारों को भी असम में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।
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चुनाव आयोग का यह दावा कि असम को एनआरसी प्रक्रिया के चलने के कारण एसआईआर के दूसरे चरण से बाहर रखा गया, संदिग्ध है, खासकर सरमा के राजनीतिक आक्षेप को देखते हुए। एनआरसी और एसआईआर एक दूसरे के पूरक नहीं हैं; न ही एसआईआर के नतीजे को एनआरसी सूची से बदला जा सकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि असम सरकार ने एनआरसी सूची को 2019 में इसलिए खारिज कर दिया था क्योंकि उसमें मुसलमानों से ज्यादा हिन्दुओं को ‘विदेशी’ माना गया था।
इस संदर्भ में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को कोई और ज्यादा भरोसेमंद तर्क देना चाहिए था। जनता और मीडिया की पैनी नजर में होने वाली एसआईआर से असम में चुनाव आयोग का पक्षपात ही उजागर होगा क्योंकि एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स और विपक्षी दलों के मुताबिक, आयोग ने मुस्लिम सघन आबादी वाले इलाकों को तितर-बितर करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण किया है। अंदाजा है कि इसका दीर्घकालिक लक्ष्य मिश्रित निर्वाचन क्षेत्रों में हिन्दू प्रभाव को बढ़ाकर भाजपा को स्थायी लाभ दिलाना है।
कागज पर एसआईआर का उद्देश्य मतदाता सूची को अपडेट करना- मृतकों को हटाना, नए मतदाताओं को जोड़ना, और ‘अयोग्य’ लोगों के नाम हटाना है। लेकिन जब ‘अवैध प्रवासियों’ की पहचान करना प्राथमिकता बन जाए, तो यही नियमित प्रक्रिया राजनीतिक हथियार बन जाती है।
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