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22 सितंबर 1992 की घटना; तैंतीस वर्षों से न्याय का इंतजार जोहती भंवरी देवी

भंवरी देवी के लिए इंसाफ अभी भी हकीकत से दूर है, लेकिन उन्हीं की वजह से लाखों भारतीय महिलाओं को उनके दफ्तरों में यौन उत्पीड़न से कानूनी संरक्षण मिला हुआ है। भंवरी कीलड़ाई में हमेशा उनका साथ देने वाले पति मोहन ने 2021 में अंतिम सांस ली।

तैंतीस वर्षों से न्याय का इंतजार जोहती भंवरी देवी
तैंतीस वर्षों से न्याय का इंतजार जोहती भंवरी देवी 

यह कहानी उस महिला की है, जो बाल विवाह जैसी कुरीति खत्म करने निकली थी। नौ माह की मासूम का जीवन बचाने के लिए बेहद ताकतवर दबंगों से भिड़ गई। बदले में उसे इनाम नहीं बल्कि बहिष्कार, बदनामी और दरिंदगी का दर्द मिला। वह डरी नहीं। इंसाफ के लिए अदालत पहुंची, पर न्याय नहीं, निराशा मिली। इसके बावजूद उसने महिलाओं को इंसाफ दिलाने का बीड़ा उठाया और कामयाब भी हुई।

यह 33 साल से अपने लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ रही राजस्थान की भंवरी देवी की कहानी है, जिनके साथ हुए भयावह गैंगरेप के 21 साल बाद सरकार ने कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून बनाया।

राजस्थान के दौसा जिले के भटेरी गांव की थी भंवरी देवी। उम्र होगी करीब 31 साल। पति और चार बच्चे साथ रहते थे। जाति से कुम्हार भंवरी कभी मटके बनाती, तो कभी गाय का दूध बेचकर घर का खर्च चलाती। 1985 में राजस्थान सरकार के महिला विकास कार्यक्रम में 'साथिनी' बनकर जुड़ी। भंवरी का काम था घर-घर जाकर सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए लोगों को जागरूक करना।

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राजस्थान में उस समय भ्रूण हत्या, दहेज और बाल विवाह जैसी कुरीतियां बहुत फैली हुई थीं। बच्चों को कम उम्र में ही ब्याह दिया जाता था। कुछ लड़कियों को तो जन्म के कुछ महीने बाद ही ब्याह दिया जाता।  भवंरी की अपनी शादी भी बहुत कम उम्र में हुई थी। शादी के वक्त वह मुश्किल से पांच या छह साल की रही होगी और उनके पति आठ या नौ साल के होंगे।

भटेरी जयपुर से मात्र 45 किलोमीटर ही दूर था। मगर यहां जातिवाद और भेदभाव बहुत ज्यादा था। गांव में मुश्किल से 1200 परिवार रहते होंगे। सबसे ज्यादा लोग दलित समुदाय के बैरवा जाति के थे। मगर गांव में गुर्जर और मीना समुदाय के लोग भी रहते थे, इनका काफी दबदबा भी चलता था। गांव के बड़े परिवारों को  पसंद नहीं था कि भंवरी उनके घर आकर महिलाओं को जानकारी दे या उनके परिवार के मामले में दखल दे। एक दिन कुछ ऐसा हुआ जो गांव को लोगों को बिलकुल नागवार हुआ। भंवरी को महिला विकास कार्यक्रम के सीनियर्स ने एक लिस्ट थमा दी, जिसमें 5 मई 1992 को अखा तीज के दिन गांव में बाल विवाह कराने वाले परिवारों के नाम लिखे थे। इनमें एक नाम उस गुर्जर परिवार का भी शामिल था जो अपनी 9 महीने की बच्ची का बाल विवाह कराने पर तुला था। भंवरी को मालूम था कि गुर्ज्जरों के मामलों में उलझने का उलटा नतीजा हो सकता है। मगर भंवरी उस घर पहुंची और लोगों को समझाने की कोशिश की। मगर उसकी एक नहीं सुनी गई क्योंकि यह लिस्ट डीएम कार्यालय भी भेजी गई थी। इसलिए मौके पर लोकल पुलिस भी पहुंची। हालांकि, पुलिस ने भी ज्यादा सख्ती नहीं दिखाई। भंवरी इस बाल विवाह का विरोध करती रही। बवाल के बीच गुर्जर परिवार ने तय दिन पर शादी तो नहीं कराई मगर मौका मिलते ही अगले दिन रात 2 बजे उस नन्ही सी बच्ची का विवाह कर दिया। इतनी हिम्मत दिखाने के बाद भी भंवरी उस 9 माह की बच्ची का जीवन बर्बाद होने से नहीं रोक पाई।

बाल विवाह तो नहीं रुका मगर गुर्जर परिवार ने भंवरी का जीना दुश्वार कर दिया। भंवरी के घर का दाना-पानी बंद कर उसे गांव से बाहर निकालने का पूरे इंतजाम किया जाने लगा। गांव के लोगों से कहा कि कोई उसके बनाए हुए मिट्टी के घड़े नहीं खरीदेगा और न ही उससे दूध लेगा। भंवरी को बहुत आर्थिक परेशानी झेलनी पड़ी। चार बच्चों को पालना उनके लिए मुश्किल था। 

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शादी रुकवाने की इस घटना को दबंगों ने अपनी नाक का सवाल बना लिया और भंवरी को सबक सिखाने के लिए अलग तरीका खोजा। भंवरी के शब्दों में पढ़ें उस काले दिन का सच... साल 1992 को 22 सितंबर का दिन था। भंवरी पति मोहन लाल प्रजापत के साथ चारा काटने गई थी। इतने में गुर्जर समाज के ही पांच हट्टे-कट्टे लोग पहुंचे। पहले मोहन लाल की डंडे से बेरहमी से पिटाई की। भंवरी कहती है "मैं पति के पास मदद के लिए दौड़ी। उन लोगों से रहम की मिन्नतें की, लेकिन उनमें से दो लोगों ने मेरे पति को बांध कर गिरा दिया। बाकी तीनों बलात्कार करने के लिए मेरी तरफ मुड़ गए।" पति के सामने भंवरी का सामूहिक बलात्कार किया गया। गुर्जर समाज के इन दबंगों ने गांव के लोगों को सबक देने के लिए भंवरी को जीवनभर का दर्द दिया था।

इतना सब होने के बाद भी भंवरी ने हिम्मत नहीं हारी, पति के साथ पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराने पहुंची। लेकिन शिकायत लिखने को कोई तैयार ही नहीं हुआ। पुलिस ने उसका मजाक उड़ाया। शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया और तफ्तीश में लीपा-पोती कर दी। 

आमतौर पर रेप की घटना के 24 घंटे के अंदर रेप पीड़िता की मेडिकल जांच कराई जाती है। मगर भंवरी की मेडिकल जांच भी 52 घंटे बाद की गई। बस्सी के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पहुंची, तो वहां कोई महिला चिकित्सक न होने की बात कहकर उसे लौटा दिया गया। जयपुर के अस्पताल में रेफर किया, तो वहां चिकित्सक ने मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना जांच करने से इंकार कर दिया। अगले दिन मजिस्ट्रेट के यहां पहुंची तो काम के घंटे पूरे होने की बात कहकर आदेश देने से इंकार कर दिया। जांच में शरीर की खरोंचों का कोई जिक्र नहीं किया गया। शारीरिक परेशानी को शिकायतों को नजरअंदाज कर रिपोर्ट बनाई गई। परिणाम यह निकला कि भंवरी को उसी के गांव के लोग ही झूठी बोलने लगे।

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स्थानीय अखबारों ने भंवरी देवी की घटना को लिखना शुरू किया। उसे इंसाफ दिलाने के लिए राजस्थान में कई महिला कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किए। बाद में मामला केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंपा गया। 1993 - सीबीआई ने मामले की जांच कर सितंबर में चार्जशीट फाइल की। दिसंबर में पांचों अपराधियों की जमानत अर्जी खारिज करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा, "मैं मानता हूं कि अभियुक्त रामकर्ण की नाबालिग बेटी की शादी को रोकने की कोशिश के कारण भंवरी देवी का गैंग रेप बदले की नियत से किया गया था"

1994 - अक्तूबर में पांचों अपराधियों को शोषण करने, हमला करने, साजिश रचने और गैंग रेप की धाराओं में केस दर्ज कर गिरफ्तार किया गया। उस समय तक यह उम्मीद थी कि भंवरी को जल्द ही इंसाफ मिलेगा। मगर यहीं से चीजें बिगड़ती चली गईं और केस की सुनवाई के दौरान ही बिना किसी कारण के पांच बार जज बदले गए। 1995 - नवंबर में इसी मामले में जयपुर ट्रायल कोर्ट ने ऑर्डर जारी कर पांचों अपराधियों को बरी कर दिया। उन्हें मामूली अपराधों में दोषी करार देते हुए महज 9 महीने की सजा मिली। वह जेल से छूट गए।

कोर्ट ने जो दलील दी, वह किसी महिला को इंसाफ दिलाने के नाम पर एक भद्दा मजाक था। निचली अदालत ने तर्क दिए कि गांव का प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता, अलग-अलग जाति के पुरुष गैंग रेप में शामिल नहीं हो सकते, अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला से रेप नहीं कर सकता क्योंकि वह अशुद्ध होती है, 60-70 साल के बुजुर्ग बलात्कार नहीं कर सकते, एक पुरुष रिश्तेदार (चाचा-भतीजा) के सामने रेप नहीं कर सकता और भंवरी के पति चुपचाप खामोशी से पत्नी का रेप होते नहीं देख सकते थे।

भंवरी ने इसके खिलाफ राजस्थान हाईकोर्ट में अपील की। राज्य सरकार ने भंवरी देवी की मदद करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि हमला उनके खेत में हुआ था और वे एक नियोक्ता के तौर पर इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं।

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ट्रायल कोर्ट के फैसले का देशभर के कई महिला संगठन ने विरोध किया। चार महिला संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में रिट दायर की। इसमें राजस्थान की विशाखा और महिला पुनर्वास समूह और दिल्ली के जगोरी और काली संस्था शामिल थे। इसे विशाखा नाम दिया गया। संस्था ने मांग उठाई की कोर्ट को ऐसी गाइडलाइन जारी करनी चाहिए जिससे वर्कप्लेस पर महिलाओं के साथ हो रहे यौन शोषण को रोका जा सके।

1997 में भंवरी देवी की घटना के पांच साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला लिया। देशभर में महिलाओं की कार्यस्थल पर सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए विशाखा गाइडलाइंस जारी की गई। कोर्ट ने लिखा कि वर्कप्लेस पर यौन शोषण की शिकार होने पर महिला के मौलिक अधिकार आर्टिकल 14, 15, 19 और 21 के तहत 'राइट टू लाइफ' और 'राइट टू इक्वैलिटी' पर सवाल खड़ा हुआ है। ऐसे शोषण के कारण महिलाओं को काम करने में परेशानी आती है और अक्सर काम छोड़ना पड़ता है। 

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पहली बार सेक्शुअल हैरेसमेंट की परिभाषा लिखी गई विशाखा गाइडलाइन में सरकारी हो या प्राइवेट सभी कंपनियों और संस्थाओं के लिए एक सेट ऑफ रूल तैयार किए गए। कंपनियों से कहा कि वह अपने कर्मचारियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए काम करेंगी। 1997 में ही पहली बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट की डेफिनेशन को स्पष्ट किया गया।

21 साल बाद बना महिला सुरक्षा का कानून इन्हीं विशाखा गाइडलाइंस को देखते हुए संसद ने इसे कानून में बदला। साल 2013 में सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस (प्रीवेंशन, प्रोहिबिशन और रिड्रेसल) एक्स 2013 को लागू किया गया। 

भंवरी देवी के लिए इंसाफ अभी भी हकीकत से दूर है लेकिन उन्हीं की वजह से लाखों भारतीय महिलाओं को उनके दफ्तरों में यौन उत्पीड़न से कानूनी संरक्षण मिला हुआ है।

घटना के 33 साल बाद भी भंवरी इंसाफ मिलने का इंतजार कर रही हैं। इस लड़ाई में हमेशा उनका साथ देने वाले पति मोहन ने 2021 में अंतिम सांस ली। यही नहीं, जघन्य अपराध करने वाले पांच में से चार लोगों की भी मौत हो चुकी है।

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