पिछले तीन महीने में ही पंजाब सरकार की लैंड पूलिंग पाॅलिसी ऐसा अफसाना बन गई थी जिसे किसी अंजाम तक पहुंचाना मुमकिन नहीं लग रहा था। हर तरफ इतना ज्यादा विरोध शुरू हो गया था कि राज्य सरकार को समझ आ गया कि यह नीति राजनीतिक रूप से उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो सकती है। इसलिए जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इस पर स्थगन आदेश जारी कर दिया, तो सरकार को यह नीति वापस लेने का मौका मिल गया।
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तीन महीने पहले इसे बड़े दावों के साथ उस समय लांच किया गया था, जब लुधियाना पश्चिम के उपचुनाव चल रहे थे। योजना यह थी कि नई आवासीय योजनाओं के वादों से शहरी वोटरों को लुभाया जाएगा। जो किसान इसके लिए अपनी जमीन देंगे, उनके लिए तो खैर लंबे-चौड़े वादे थे ही। इस योजना के तहत सबसे ज्यादा जमीन भी लुधियाना में ही ली जानी थी।
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आप सरकार को किसान संगठनों की ओर से सबसे बड़े विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने धरने दिए और ट्रैक्टर मार्च निकाले। गावों के बाहर ये तख्तियां टंग गईं कि गांव में आप नेताओं का प्रवेश मना है। कई आप नेताओं तक ने इन्हीं वजहों से नीति का विरोध करना शुरू कर दिया। उन्हें समझ आ रहा था कि जब विधानसभा चुनाव डेढ़ साल दूर है, यह नीति उनके लिए परेशानियां खड़ी कर सकती है।
ऐसी ही एक योजना 2008 में अकाली दल की सरकार ने भी शुरू की थी। किसानों के उसके अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे। बहुत से किसानों की जमीन तो ले ली गई, लेकिन उन्हें विकसित जमीन अभी तक नहीं मिली। हालांकि यह बहुत छोटी योजना थी। आप सरकार की योजना में कुल 65,533 एकड़ जमीन ली जानी थी, जबकि अकाली सरकार की योजना में सिर्फ दो हजार एकड़ जमीन लेने की ही थी।
नीति के बारे में यह कहा गया कि इसके लिए किसान स्वेच्छा से अपनी जमीन देने के लिए स्वतंत्र हैं। सरकार इस जमीन की कीमत किसानों को देने के बजाय, उसे विकसित करेगी और विकसित जमीन का एक हिस्सा किसान को दे देगी। कोई किसान एक एकड़ जमीन सरकार को सौंपता है, तो उसके बदले में सरकार उसे एक हजार वर्ग गज रिहाईशी जमीन और 200 वर्ग गज व्यवसायिक जमीन देगी। अगर किसान ज्यादा जमीन देता है, तो उसे ज्यादा विकसित जमीन वापस मिलेगी। जब तक विकसित जमीन वापस नहीं मिलती, हर किसान को 30 हजार रुपये से एक लाख रुपये तक का सालाना गुजारा भत्ता मिलेगा।
यह नीति आते ही इसका विरोध शुरू हो गया। कांग्रेस, अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी सभी इसके खिलाफ खड़े हो गए। कांग्रेस ने कई बड़े प्रदर्शन किए। पूर्व मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी ने इसे केन्द्र द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानूनों से भी ज्यादा घातक बताया।
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इस नीति में कई दिक्कतें शुरू से ही स्पष्ट थीं। एक तो इसके लिए केन्द्र के भूमि अधिग्रहण कानून को नजरंदाज किया जा रहा था। दूसरे इसके पर्यावरणीय या सामाजिक प्रभाव का कोई अध्ययन नहीं किया गया था। फिर इसमें शिकायतों के निपटारे का कोई प्रावधान नहीं था। इन्हीं आधार पर अदालत ने इसके खिलाफ स्थगन आदेश दिया था।
पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और सांसद अमरिंदर सिंह वड़िंग ने पाॅलिसी वापस लिए जाने को इसके खिलाफ चल रहे आंदोलन की जीत बताया है। विपक्ष को लग रहा है कि इससे जो राजनीतिक नैरेटिव शुरू हुआ है, वह विधानसभा चुनाव में काफी काम आने वाला है। सबसे दिलचस्प टिप्पणी सोशल मीडिया पर दिखाई दी- 'पंजाब की सड़कों पर उतने मोड़ नहीं हैं जितने यू-टर्न भगवंत मान की सरकार अब तक ले चुकी है।'
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शिरोमणि अकाली दल फिर एक बार दो-फाड़ हो गया है। इस विभाजन की नींव कुछ महीने पहले तभी रख दी गई थी, जब दल में बगावत के सुर अचानक ही बहुत तेज हो गए थे और अकाल तख्त ने दल के पुनर्गठन के लिए एक सात सदस्यीय कमेटी बनाई थी। कहा गया था कि यह कमेटी नए सदस्य भर्ती करेगी और नीचे से ऊपर तक चुनाव कराएगी। इसका पहला काम नए सदस्यों की भर्ती था, इसलिए इसे 'भर्ती कमेटी' भी कहा गया।
तब यह लग रहा था कि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की पार्टी पर पकड़ कमजोर हो रही है। इस बीच उन्हें अकाल तख्त के सामने भी पेश होना पड़ा और तख्त द्वारा दी गई सजा को भी स्वीकार करना पड़ा। सुखबीर बादल एक बार जब इस झटके से उबर गए, तो उन्होंने फिर से राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू की। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर उन्होंने अपना दबदबा बना लिया। इस बीच 'भर्ती कमेटी' के दो सदस्यों ने भी इस्तीफा भी दे दिया।
दो दिसंबर को बनी इस कमेटी ने पार्टी के लिए नए सदस्य भर्ती किए। निचले स्तर पर चुनाव करवाए और अब जब पार्टी के नए अध्यक्ष को चुनने का समय आया, तो उसने आम सभा के लिए तेजा सिंह समुद्री हाल दिए जाने की अर्जी एसजीपीसी को दी। अकाली दल की आम सभा आमतौर पर स्वर्ण मंदिर परिसर के बाहर बने इसी हाल में होती रही है। एसजीपीसी ने घुमा-फिराकर हाॅल देने से इनकार कर दिया।
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यह आम सभा अमृतसर के ही गुरुद्वारा बुर्ज अकाली फूला सिंह में की गई। वहां जैसे ही ज्ञानी हरप्रीत सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा की गई, अकाली दल का यह विभाजन पूर्ण हो गया। कभी सुखबीर के नजदीकी माने जाने वाले ज्ञानी हरप्रीत सिंह फरवरी तक तख्त दमदमा साहिब, तलवंडी साबो के जत्थेदार थे। उन्हें व्यक्तिगत व्यवहार की कुछ शिकायतों के कारण एसजीपीसी ने पद से हटा दिया था।
नया दल अब दावा कर रहा है कि वही असली अकाली दल है, जल्द ही वह पार्टी मुख्यालय और उसके चुनाव चिन्ह पर अपना दावा पेश करेगा। जाहिर है कि अकाली दल के इन दो धड़ों की लड़ाई आने वाले कुछ समय तक चुनाव आयोग और विभिन्न अदालतों में चलेगी।
देश का यह दूसरा सबसे पुराना राजनीतिक दल इस समय अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। अकाली दल में इसके पहले भी कई विभाजन हुए हैं। पर तब यह पंजाब की बड़ी ताकत हुआ करता था। 2022 के विधानसभा चुनाव में वह तीसरे नंबर का राजनीतिक दल बन गया। इसके बाद 2024 के आम चुनाव के नतीजों के बाद वह चौथे नंबर का दल बन चुका था। कुछ इलाकों में तो वारिस पंजाब जैसे नए-नवेले संगठन भी उससे ज्यादा मजबूत दिखाई दिए।
अब एक और विभाजन के बाद उसकी ताकत कितनी बचेगी, इसका अंदाजा तो 2027 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव से ही लगेगा।
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पंजाब में बारिश खूब होती है, लेकिन इतनी नहीं कि वहां बरसने वाले बादल प्रदेश के लिए बड़ी समस्या बन जाएं। इसके बावजूद पंजाब के काफी बड़े हिस्से में हर साल बाढ़ आती है।
इसका एक कारण तो हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों से उतर कर आने वाले नदी नाले और जल धाराएं हैं। यह पानी सिंचाई के लिए बनाई नहरों के जरिये उन बहुत से गांवों में भी बाढ़ का कारण बनता है जो नदियों से बहुत दूर हैं। दूसरा बड़ा कारण है मानसून से लबालब हो गए रणजीत सागर, भाखड़ा, पौंग और दर्जन भर छोटे बांधों से छोड़ा जाने वाला पानी जो अचानक ही बहुत से गांवों-कस्बों को डुबो देता है।
इस समय पंजाब के तकरीबन हर जिले में ही बहुत से गांव बाढ़ में डूबे हुए हैं। द ट्रिब्यून की एक खबर के अनुसार, मुक्तसर का एक गांव उडेकरन तो पिछले एक महीने से पूरी तरह बाढ़ में ही डूबा हुआ है। यही हाल कई और गांवों का है। सभी जगहों पर धान की फसल पूरी तरह बरबाद हो चुकी है, जनजीवन तो अस्तव्यस्त है ही।
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यह सब तकरीबन हर साल ही होता है। लेकिन पानी के प्रबंधन की कोई पक्की व्यवस्था अभी तक नहीं बन सकी। विशेषज्ञ एक रास्ता यह बताते हैं कि सभी मुख्य नदियों के बेसिन को व्यवस्थित किया जाए। एक सुझाव यह भी है कि नदियों को गहरा और चौड़ा किया जाए ताकि पानी बाहर कम निकले। लेकिन हरियाणा ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध करता रहा है। उसका तर्क है कि बाढ़ तो सिर्फ दो महीनों की बात है, उसके बाद नदियों का ज्यादा पानी पंजाब के पास रहेगा और उसके पल्ले बहुत कम पड़ेगा। पंजाब में पड़ोसी राज्यों को पानी कम देने या न देने की जो राजनीति साल भर चलती है, इन दो महीनों में उसका खामियाजा खुद पंजाब को ही भुगतना पड़ता है।
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