रुहिमा तीन बच्चों की सौतेली मां है। ये बच्चे उम्र में उससे बड़े हैं। वह बंगाल से दिल्ली आई है। उसने पहले कभी फ्रिज या दरवाजों पर फैन्सी लॉक नहीं देखे थे। गुड़गांव आने के दूसरे दिन से उसने कामकाज शुरू कर दिया। वह अपने बूढ़े पति की देखभाल भी करती है। उसने पति के लिए चाय की एक दुकान बनवा दी। जब पति को दिल का दौरा पड़ा, तो उसने उसकी देखभाल भी की। उसकी बस्ती दो बार उजाड़ी गई। इसे भी झेला। तिरपाल में कई रातें बिताईं और इसी हालत में अगले दिन काम पर गई, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।
Published: undefined
रुहिमा और घरों में काम करने वाली दूसरी बाइयां जरूरी सेवाएं तो देती हैं, लेकिन वे समाज से अदृश्य ही दिखती हैं। उन्हें कामगार के तौर पर मान्यता नहीं दी जाती, उनके पास कोई जॉब कार्ड नहीं है और उनका कहीं कोई निबंधन भी नहीं होता। सोसाइटियों में काम करने जाने पर उन्हें पुलिस वेरिफिकेशन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है क्योंकि मान लिया जाता है कि वे आपराधिक प्रवृत्ति की हैं। कोई भी व्यक्ति उन लोगों की साख और पृष्ठभूमि की जांच नहीं करता जिनके यहां ये काम करती हैं।
Published: undefined
हमारे पास दिल्ली और हरियाणा में घरों का कामकाज कर रही 2,328 महिलाओं के आंकड़े हैं। न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से कम-से-कम 400 रुपये रोजाना मिलने चाहिए। लेकिन ये महिलाएं रोजाना 150 रुपये तक कमा पाती हैं। इस वक्त इनमें से सिर्फ 16 फीसदी ही काम में लगी हुई हैं। 78 प्रतिशत तक को उन लोगों ने ही घर जाने को कह दिया है जिनके यहां ये काम करती हैं। 45 प्रतिशत की स्थायी तौर पर छुट्टी कर दी गई है। शेष से कहा गया है कि महामारी का कहर खत्म होने पर उन्हें काम पर बुला लिया जाएगा। महज 16 प्रतिशत को लॉकडाउन के दौरान अपने घरों पर रहने पर भी पैसे मिले। 32 प्रतिशत को तो कुछ भी नहीं मिला।
Published: undefined
घर का कामकाज करने वाली जिन 2,328 बाइयों के बीच सर्वेक्षण किया गया, उनमें से 92 प्रतिशत का कोई वैक्सिनेशन नहीं हुआ है। जिनके यहां ये काम करती हैं, उन लोगों की मदद से सिर्फ 6 प्रतिशत को पहले डोज के लिए रजिस्ट्रेशन में मदद मिली। लगभग 60 प्रतिशत के पास जनधन एकाउंट नहीं हैं, इसलिए सरकार की ओर से दी जाने वाली राशि भी उन्हें नहीं मिली। सरकारी राशन भी उन्हें नहीं मिले क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए राशन कार्ड की ई-रजिस्ट्रेशन की तकनीकी उलझनें वे नहीं सुलझा सकीं। राशन हासिल करने के लिए आधार कार्ड से ई-कूपन भी प्राप्त करने होते हैं। यह सब उनके लिए जटिल प्रक्रिया है।
Published: undefined
सोसाइटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया (पीआरआईए) और मार्था फैरेल फाउंडेशन (एमएफएफ) दिल्ली और हरियाणा में इन महिलाओं के बीच काम कर रही है। उनका ध्यान कामकाज की जगहों पर उनके साथ होने वाले सेक्सुअल दुर्व्यवहार पर भी रहता है। फाउंडेशन ने बताया कि महामारी के बीच हमने राहत कार्य चलाने का फैसला किया, लेकिन हमें लगा कि हमारे पास रिलीफ के काम का खाका तैयार करने लायक आंकड़ा भी नहीं है। तब, हमने सर्वेक्षण, रिलीफ के काम और फंड जमा करने के काम शुरू किए। घरों में कामकाज करने वाली ये महिलाएं ही अपनी-अपनी बस्तियों में आंकड़ा इकट्ठा कर रही हैं और वे ही रिलीफ के काम का खाका बनाने के काम में भी लगी हैं।
Published: undefined
एमएफएफ के राहत कार्य में जो लोग शामिल होना चाहते हैं, वे हर माह 1,500 रुपये की कीमत वाले रिलीफ किट की मदद कर सकते हैं। दूसरा, वे चाहें, तो हमें अपना डाटाबेस तैयार करने में योगदान कर सकते हैं। तीसरा, पढ़ने-पढ़ाने के काम में लगे लोग, कलाकार और सिविल सोसाइटी के अन्य लोग ऑनलाइन वर्कशॉप या संगीत कार्यक्रम या स्टैंड अप कॉमेडी कर खुद फंड इकट्ठा कर सकते हैं और इसे एमएमएफ को रिलीफ के कामों में दे सकते हैं।
(संयुक्ता बसु से बातचीत पर आधारित)
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined