हालात

आम लोगों के लिए आने वाला समय और मुश्किल, अमीरों की भर रही तिजोरी, गरीबों की सुध किसी को नहीं

भारत मेें कम-से-कम 75 करोड़ ऐसे लोग हैे जिनके पास निजी वाहन के नाम पर कुछ भी नहीं, साइकिल भी नहीं। पीने के लिए बोतलबंद पानी का उत्पादन करने वाले लोगों की तिजोरी भर रही है जबकि आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए पीने का पानी खरीदना किसी लग्जरी से कम नहीं।

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Getty Images Hindustan Times

जुलाई शुरू हो चुका है और भारतीय अर्थव्यवस्था अब भी कितनी कमजोर है! महामारी के कारण लगे लॉकडाउन को दो साल से ऊपर हो रहे हैं, फिर भी अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। उसके पटरी पर लौटने की रफ्तार बेहद धीमी और असमान है। हालांकि सरकार समर्थक अर्थशास्त्री और आर्थिक सलाहकार बड़ी मजबूती के साथ डटे हुए हैं और सबकुछ दुरुस्त बता रहे हैं। वे एक साल से अधिक समय से अर्थव्यवस्था में ‘सकारात्मक’ संकेत देख रहे हैं, लेकिन 90% आबादी के लिए स्थिति गंभीर बनी हुई है।

कुछ बातों पर गौर करना बेहतर होगाः

  1. पिछले कुछ वर्षों में घरेलू खपत में सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की कमी आई है।

  2. घरेलू बचत में तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक की गिरावट आई है। यह दिखाता है कि परिवार कम आय, ज्यादा अनिश्चितताओं और अधिक खर्चों से जूझ रहे हैं।

  3. जबकि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में मजदूरी में कमी आई है, जीडीपी के अनुपात में लाभ बढ़ा है। यह दिखाता है कि मजदूरी तो कम हुई लेकिन लॉकडाउन, खराब क्षमता उपयोग और मांग-आपूर्ति की चेन में आई दिक्कतों के बावजूद कॉर्पोरेट लाभ 10 साल के उच्च स्तर पर पहुंच गया है।

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भारतीय अर्थव्यवस्था की असमान प्रकृति को इस बात से भी समझा जा सकता है कि भारत में 20 शीर्ष कंपनियां कुल 70% लाभ ले जा रही हैं। मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स के विश्लेषकों के ब्लॉग में कहा गया है कि तीस साल पहले इन कंपनियों की मुनाफे में हिस्सेदारी सिर्फ 14% थी। ब्लॉग में दावा किया गया है कि बाजार को मोनोपोली प्रवृत्ति ने जकड़ रखा है। हर क्षेत्र में एक या दो कंपनियां बाजार पर हावी हैं और वे छोटी कंपनियों और असंगठित क्षेत्र की कीमत पर अपना यह मुकाम बनाए रखती हैं। ब्लॉग में कहा गया है कि ‘भारत पहले से ही एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें कई प्रमुख क्षेत्रों में लाभ जबरदस्त तरीके से चंद कंपनियों को ही जाता है। उदाहरण के लिए, पेंट (एशियन पेंट्स, बर्जर पेंट्स), प्रीमियम कुकिंग ऑयल (मैरिको, अडानी), बिस्कुट (ब्रिटानिया, पार्ले), हेयर ऑयल (मैरिको, बजाज कॉर्प), नवजात के लिए दूध पाउडर (नेस्ले), सिगरेट (आईटीसी), एडहेसिव्स (पिडिलाइट), वॉटरप्रूफिगं (पिडिलाइट), ट्रक (टाटा मोटर्स, अशोक लीलैंड), छोटी कारें (मारुति, हुंडई)। इस तरह हर क्षेत्र की एक या दो कंपनियां हैं जिनकी पूरे क्षेत्र के मुनाफे में 80 प्रतिशत से ज्यादा की हिस्सेदारी है।’

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दूसरी ओर, आम लोगों की जरूरतों की चीजें पूरी नहीं हो पातीं। कंपनियां थोक में उनके उत्पादन के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे सामान की कीमतें कम हो सकती थीं लेकिन कंपनियों का ध्यान इस ओर नहीं। भारत में कम-से-कम 75 करोड़ ऐसे लोग हैं जिनके पास निजी वाहन के नाम पर कुछ भी नहीं, साइकिल भी नहीं। सिर्फ एक चौथाई आबादी के पास एयर कंडीशनर या एयर कूलर हैं। पीने के लिए बोतलबंद पानी का उत्पादन करने वाले लोगों की तिजोरी भर रही है जबकि आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए खरीदकर शुद्ध पानी पीना किसी लग्जरी से कम नहीं। रसोई से लेकर अस्पताल तक, ऐसे तमाम उत्पाद हैं जिनकी भारतीयों को जरूरत है लेकिन उन तक पहुंच केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को है।

सेंटर फॉर मॉनीटरिगं इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि लाखों भारतीयों ने नौकरी की तलाश बंद कर दी है। आज 43 करोड़ भारतीय कमा रहे हैं। इनमें से केवल 20 प्रतिशत के पास सैलरी वाली नौकरी है, 50% अपना काम–धधां कर रहे हैं और शेष 30% दिहाड़ी मजदूर हैं। एक परिवार की औसत मासिक आय मात्र 15,000 रुपये है। गुरुग्राम स्थित इंस्टीट्यूट फॉर कॉम्पिटिटिवनेस की असमानता पर रिपोर्ट कहती है कि 25,000 रुपये प्रति माह कमाने वाला व्यक्ति देश के शीर्ष 10 प्रतिशत वेतनभोगियों में आता है।

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मनी कंट्रोल वेबसाइट पर प्रकाशित एक कॉलम में फिनसेव इंडिया के संस्थापक मृन अग्रवाल ने अपनी फर्म द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से डेटा साझा किया है। सर्वेक्षण में शामिल 5,769 वेतनभोगी कर्मचारियों में से केवल 27% के पास इमरजेंसी फंड और बीमा की सुविधा थी। उनमें से लगभग आधे- 45% को यह नहीं पता था कि नौकरी खोने की स्थिति में उनका खर्च कैसे चलेगा। लगभग 56% ने कहा कि उन्हें जितना वेतन मिलता है, उसमें अपने खर्च को पूरा करते हुए वित्तीय लक्ष्य निर्धारित करना मुश्किल था। सर्वेक्षण में शामिल ज्यादातर लोग चिकित्सा व्यय और क्रेडिट कार्ड कर्ज चुकाने को लेकर चितिंत थे।

बचत के बारे में भारत के पूर्व मुख्य सांख्ययिकीविद् प्रणव सेन कहते हैं, ‘यह मध्यम वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग के भारतीयों के लिए है जबकि गरीबों के लिए तो सबसे जरूरी यह है कि जरूरत भर पैसे मिल जाएं। ऐसे में आप उन्हें उचित रिटर्न के लिए निवेश के लिए भला कैसे प्रोत्साहित कर सकते हैं? एक दैनिक मजदूर जिसके पास दो दिन कोई काम नहीं है, उसे वे दिन बिताने के लिए पैसे चाहिए। सरकार को इस तरह से सोचना चाहिए।’

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भारतीय अब भी अपनी बचत स्थानीय साहूकारों के पास जमा करते हैं और उम्मीद करते हैं कि जब उन्हें जरूरत होगी तब उनसे ले लेंगे। सेन कहते हैं, ‘लेकिन हमें नहीं पता कि उन्हें किस तरह का रिटर्न मिल रहा है। कोई हमें वह डेटा नहीं दे रहा है। और नंबर दो, हम नहीं जानते कि वे किस स्तर का जोखिम उठा रहे हैं क्योंकि वे अनिवार्य रूप से रिश्तों पर निर्भर हैं और उन लेन-देन में कोई औपचारिक सुरक्षा नहीं है।’

बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस का कहना है कि नीति निर्माताओं ने अर्थव्यवस्था को बचत के नजरिये से कभी नहीं देखा। वह कहते हैं, ‘अगर आप मौद्रिक नीति के प्रति हमारे नजरिये को देखें, तो पाएंगे कि आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति की बैठकों के विषय में शायद ही कभी बचत का उल्लेख होता है। जाहिर तौर पर उनका ध्यान हमेशा विकास, उद्योग और निवेश पर रहा है।’ यही कारण है कि आरबीआई ब्याज दरों को कम करने से नहीं हिचकता। सबनवीस कहते हैं, ‘हम उद्योगपतियों की रक्षा करना चाहते हैं; हम सरकार की रक्षा करना चाहते हैं और हम ब्याज दरों को कम रखना चाहते हैं। इसलिए, इसका स्वाभाविक परिणाम है कि जब ब्याज दरों को कम रखेंगे तो लोगों के लिए बचत करना असंभव ही होगा।’

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पुणे स्थित अर्थशास्त्री प्रोफेसर अजीत अभ्यंकर मानते हैं कि भारत में बचत दर का स्तर 28 प्रतिशत सही है। हालांकि यह 2008 में 35 प्रतिशत से कम हो गई है। इसमें अगर और गिरावट आती है तो यह एक बुरा संकेत ही होगा। जब बचत ही नहीं होगी तो निवेश क्या होगा और इससे मांग में भी गिरावट आएगी। पूंजीगत व्यय कम हो रहा है, पूंजी निर्माण की दर भी नीचे जा रही है। इसका साफ मतलब है कि आने वाला समय मुश्किलों भरा रहने वाला है।

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