वक्फ संशोधन अधिनियम पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस के दौरान अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरण रिजीजू और गृहमंत्री अमित शाह ने बार बार कहा कि इसका इस्तेमाल रिट्रास्पेक्टिव यानी पिछली तारीखों से नहीं होगा। यानी इसके जरिये पहले हो चुके फैसलों और स्थितियों को पलटा नहीं जा सकेगा। कानून बनने के बाद के जो मामले हैं, वही इसके दायरे में आएंगे। राष्ट्रपति द्वारा इस बिल पर दस्तखत किए जाने के बाद 9 अप्रैल को इस बाबत जारी हुआ गजट नोटीफिकेशन भी यही कहता है।
हालांकि इस कानून का अध्ययन करने वाले कानूनविदों का कहना है कि बात इतनी सरल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के वकील एबाद उर रहमान का कहना है कि 'इसमें कुछ बारीकियां ऐसी हैं जिनके चलते कईं पुराने मामलों पर भी इसे लागू किया जा सकेगा। खासकर उनमें जहां कई बहुत पुरानी संपत्तियों के वक्फ होने के दस्तावेज मौजूद नहीं हैं।'
इसका अर्थ हुआ कि यह नया कानून सुप्रीम कोर्ट के अर्सा पहले स्थापित उस सिद्धांत से टकराता खड़ा दिखाई देता है जो कहता है- 'वंस ए वक्फ, ऑलवेज ए वक्फ', यानी जो एक बार के लिए वक्फ है, वह हमेशा के लिए वक्फ रहेगा। यह सिद्धांत बताता है कि वक्फ संपत्ति की प्रकृति को बदला नहीं जा सकता। अदालत ने यह बात रतिलाल पंचांद गांधी बनाम स्टेट ऑफ बांबे के मामले में 1954 में दिए गए फैसले में कहीं थी।
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अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के तहत एक विभाग है वक्फ एसेट्स मैनेजमेंट सिस्टम ऑफ इंडिया। यह देश भर की वक्फ संपत्तियों का केंद्रीय डेटाबैंक है जिसका संचालन भारत सरकार करती है। विडंबना यह है कि इस समय जो सिद्धांत दांव पर लगा है वही इस विभाग का सूत्रवाक्य है- 'वंस ए वक्फ, ऑलवेज ए वक्फ'।
इस समय सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर हैं जहां वक्फ संशोधन विधेयक 2025 को चुनौती देने के लिए कई याचिकाएं डाली गई हैं। तकरीबन 15 ऐसी याचिकाएं अदालत में दाखिल की गई हैं जो इस नए कानून की वैधानिकता पर सवाल खड़े करती हैं। याचिका दायर करने वालों में राजनेता , धार्मिक संगठन और नागरिक अधिकार संगठन भी हैं। यह बताता है कि कानून के विरोध का आधार कितना व्यापक है।
कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने के अलावा याचिका दायर करने वालों की पहली प्राथमिकता इस कानून के लागू होने पर स्थगन आदेश लेने की है। इन याचिकादाताओं में बिहार के किशनगंज से सांसद मोहम्मद जावेद भी हैं। अदालत में उनकी पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील अनस तनवीर ने नवजीवन को बताया, 'हम पहली सुनवाई में ही स्थगन आदेश हासिल करने की कोशिश करेंगे।' लेकिन वह यह भी मानते हैं कि यह इतना आसान नहीं होगा क्योंकि कानूनी धारणा यह है कि संसद में पास हुआ कानून संवैधानिक है।
तनवीर यह भी जोड़ते हैं कि सरकार ने कानूनी सावधानी बरतते हुए कैविएट या प्रतिवाद याचिका डाली है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं वादी स्थगन आदेश लेने में कामयाब ही न हो जाएं। वह कहते हैं, 'ऐसा अपवाद स्वरूप ही होता है कि सरकार मामले की शुरुआत में ही कैवियेट दायर कर दे।'
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आमतौर पर सर्वोच्च अदालत अर्से से स्थापित इस सिद्धांत पर चलती है कि संसद द्वारा पास किया गया कोई भी कानून संवैधानिक है, जब तक कि संवैधानिक पीठ उसे असंवैधानिक न घोषित कर दे। सफल चुनौती के लिए याचिकादाता को यह साबित करना होगा कि संवैधानिक प्रावधान का या मौलिक अधिकार का साफ उल्लंघन हुआ है। यह वह मानक है जिसे अदालत ने कई महत्वपूर्ण मामलों में स्थापित कर दिया है।
अतीत में सुप्रीम कोर्ट में कई कानूनों और प्रावधानों को संवैधानिक आधार पर चुनौती दी जा चुकी है। संविधान का अनुच्छेद 13 इसकी इजाजत देता है। यह कहता है कि जो कानून मौलिक अधिकार का हनन करता है, वह असंवैधानिक है।
इसका एक प्रमुख उदाहरण नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए है जिसे 2019 में देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के बीच पास किया गया था। इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने के लिए बहुत सारी याचिकाएं अदालत में दायर की गईं। मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार ने इसकी गजट अधिसूचना कानून पास होने के पांच साल बाद 2024 में जारी की।
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इसके विपरीत दूसरा मामला है तीन कृषि कानूनों का जिन्हें 2020 में संसद में पेश किया गया था। संसद की सहमति और राष्ट्रपति के दस्तखत हो जाने के बाद देश भर में किसानों और सामाजिक संगठनों ने इसे लेकर कई आंदोलन किए। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने सीधा दखल दिया और सरकार को निर्देश दिया कि जब तक कि कानूनों की कानूनी समीक्षा नहीं हो जाती, उन्हें लागू करने पर विराम लगा दिया जाए।
वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 मामले में याचिकाकर्ताओं ने कई संवैधानिक मुद्दे उठाए हैं। उनका तर्क है कि यह कानून कई मौलिक अधिकारों, जैसे समता के अधिकार और आस्था की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। इस कानून को भेदभावपूर्ण बताया गया है और कहा गया है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 26, 29, 30 और 300-ए का उल्लंघन करता है।
याचिकाकर्ताओं के हिसाब से यह कानून मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता पर आघात करता है। वक्फ संपत्ति और धार्मिक संस्थाओं को चलाने के उनके अधिकार की अवहेलना करता है। उनका कहना है कि यह कानून धार्मिक आधार पर भेदभाव करता है। उनके तर्क अनुच्छेद 14 और 15 के आधार पर हैं जो कानून के सामने समता और धार्मिक आधार पर भेदभाव को रोकते हैं।
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याचिकाकर्ताओं ने नए कानून के जरिये वक्फ संपत्तियों में सरकार के बेहद हस्तक्षेप की आंशका को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है। वे मानते हैं कि यह हस्तक्षेप मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वायत्तता को कमतर कर देगा। उनका तर्क है कि इसके कारण वक्फ संपत्तियों को ऐतिहासिक तौर पर मिला वैधानिक संरक्षण कमजोर पड़ जाएगा। इस बात को लेकर खास चिंता व्यक्त की गई है कि हर संपत्ति का विस्तृत ब्योरा अपलोड करना होगा। इसका नुकसान उन ऐतिहासिक वक्फ संपत्तियों पर पड़ सकता है जिनके दस्तावेज नहीं हैं।
अगर हम याचिकादाताओं की सूची देखें, तो वहां हमें राजनेताओं, धार्मिक संगठनों और नागरिक समाज के संगठनों का एका दिखाई देगा। इनमें प्रमुख हैं-
- मुहम्मद जावेद, किशनगंज से कांग्रेस सांसद। वह वक्फ बिल पर बनी संयुक्त संसदीय समिति के सदस्य भी थे।
- असद्दुदीन ओवैसी- एआईएमआईएम के प्रमुख और हैदराबाद से सांसद।
- अमानतुल्लाह खान, ओखला दिल्ली से आम आदमी पार्टी के विधायक।
- एसोसिएशन फाॅर प्रोटैक्शन ऑफ सिविल राइट्स, नागरिक अधिकार संगठन।
- मौलाना अरशद मदनी, जमायते उलेमा ए हिन्द के अध्यक्ष।
- समस्त केरला जमइयतुल उलेमा, केरल का एक सुन्नी संगठन।
- द्रविड़ मुन्नेत्र कषघम की ओर से पार्टी के उपमहासचिव और सांसद ए राजा।
- इमरान प्रतापगढ़ी, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद।
- ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड, प्रमुख मुस्लिम संगठन।
- मनोज झा, राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद।
- फयाज अहमद, राष्ट्रीय जनता दल के नेता।
- अंजुम कादरी, सामाजिक कार्यकर्ता।
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इसके अलावा भी कुछ अन्य लोगों और संगठनों ने भी इस कानून को चुनौती देने वाली याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की हैं जिनके नाम उपलब्ध नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट में इन याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 16 अप्रैल का दिन तय किया गया है। यह तारीख मुख्य न्यायधीश जस्टिस संजीव खन्ना के 7 अप्रैल के इस वादे के बाद तय की गई जब उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर जल्द सुनवाई करेगी। अदालत का फैसला यह तय करने में महत्वपूर्ण होगा कि यह कानून संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और इसलिए इसे गिरा दिया जाना चाहिए या फिर यह संसदीय अधिकार क्षेत्र के दायरे में है और इसे इजाजत दी जानी चाहिए।
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