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पेगासस खुलासे पर आखिर चुप्पी की चादर क्यों ओढ़ रखी है राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने

कई ऐसे सवाल हैं जिनका एनएसए को जवाब देना चाहिए। लेकिन पेगासस प्रोजेक्ट के खुलासे समेत सुरक्षा से जुड़े तमाम विषयों पर डोभाल खामोश हैं। वैसे तो वे सुरक्षा पर बोलते भी रहे हैं और साइबर सुरक्षा में तो उनकी गहरी रुचि है। लेकिन वे अपने बॉस की ही तरह चुप हैं।

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फोटो : Getty Images Ajay Aggarwal

पेगासस के खुलासे से हंगामा बरपा हुआ है और न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) ने अभूतपूर्व तरीके से चुप्पी की चादर तान रखी है। कैबिनेट पद पर आसीन मौजूदा एनएसए अपने बॉस की तरह भारतीय संसद के प्रति जवाबदेह नहीं। अन्य एनएसए के उलट राष्ट्रीय सुरक्षा के गंभीर मसलों पर इनकी राय के बारे में अंदाजा नहीं। सवाल यह उठता है कि अगर साइबर सुरक्षा के लिए इतना बड़ा खतरा सामने आता, तो क्या उनसे पहले के एनएसए भी ऐसे ही चुप रहते?

पहले दो राष्ट्रीय सुरक्षासलाहकार- बृजेश मिश्रा और जे एन दीक्षित का निधन हो चुका है। दोनों ही भारतीय विदेश सेवा से जुड़े कॅरियर डिप्लोमैट थे। उनके बाद 2005 से 2010 के बीच एनएसए रहे एम के नारायणन। नारायणन आईपीएस अधिकारी थे जो बाद में पश्चिम बंगाल के गवर्नर बने। डोभाल से ठीक पहले शिवशंकर मेनन एनएसए थे जो आईएफएस अधिकारी थे। नारायणन और मेनन- दोनों किताबें लिख रहे हैं और जगह-जगह लेक्चर दे रहे हैं।

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ज्यादा असुरक्षित हुआ देश

ऐसा भी नहीं है कि डोभाल एकदम अदृश्य ही रहते हैं जिन्हें कोई सुन ही नहीं सकता। 2019 में कर्फ्यू लगे श्रीनगर में सड़क पर बिरयानी खाते हुए और 2020 में दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाके में पुलिस वालों के घेरे में घूमते उनकी तस्वीरें हर किसी के जेहन में हैं। लेकिन चीनी आक्रामकता, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, तालिबान (जिससे कथित तौर पर भारत संपर्क में है) के कारण मिल रही चुनौती और न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब बनी साइबर सुरक्षा के मसलों पर वह एकदम मौन हैं। निश्चित तौर पर एनएसए पेगासस के बारे में बात करने वाले सबसे जानकार व्यक्ति होते। खास तौर पर तब जब यह मानने के तमाम कारण हैं कि भारत-इजरायल संबंधों को मजबूत बनाने में उनकी अच्छी-खासी भूमिका रही है। उन्होंने 2016 में इजरायल का दौरा किया था और अगले साल प्रधानमंत्री की यात्रा के लिए उन्होंने जमीन तैयार की थी। यह भी याद रखना चाहिए कि नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल (एनएससी) के बजट में अचानक इजाफा साइबर सुरक्षा से जुड़े अनुसंधान के लिए ही किया गया था।

लेकिन सारे तथ्य इसी ओर इशारा करते हैं कि मौजूदा एनएसए के कार्यकाल में भारत पहले से कहीं ज्यादा असुरक्षित हो गया है। देशद्रोह और यूएपीए के तहत मामलों में खासा उछाल आ चुका है। पूर्वी लद्दाख में भारत ने चीन के हाथों अपनी जमीन खो दी है। ‘ऐतिहासिक’ नगा समझौते पर अमल का कोई संकेत नहीं है और पहली बार भारत के किन्हीं दो राज्यों- असम और मिजोरम की पुलिस ने एक-दूसरे पर फायरिंग की।

जाहिर है, कई ऐसे सवाल हैं जिनका एनएसए को जवाब देना चाहिए। लेकिन पेगासस प्रोजेक्ट के खुलासे समेत सुरक्षा से जुड़े तमाम विषयों पर बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ही मोर्चा थामे दिखते हैं। अपने बॉस की ही तरह डोभाल भी बातें करना जानते हैं। वह एक अच्छे वक्ता भी हैं और सुरक्षा पर बोलते भी रहे हैं। यहां तक कि ऋषिकेश में धार्मिक श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए भी वह सुरक्षा की बात करते हैं। लेकिन जब वाकई उनसे सुनने की अपेक्षा है, तो वह चुप हैं।

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क्या हुआ था 2017 में

एनएसए ने मार्च, 2017 में इजरायल का दौरा किया और वहां के तत्कालीन एनएसए जैकब नागेल और प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से मुलाकात की। जैसा कि अब पता चला है कि पेगासस स्पायवेयर केवल सरकारों को बेचा जाता है और वह भी इजरायली रक्षा मंत्रालय की मंजूरी के बाद। ऐसा अनुमान है कि इसी यात्रा के दौरान भारत सरकार ने पेगासस के सौदे पर मुहर लगाई थी। अंदरूनी सूत्रों ने दावा किया है कि राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा समन्वयक डॉ गुलशन राय भी मई, 2017 में इजरायल गए थे। यहां तक कि इजरायल के प्रधानमंत्री ने भी जून, 2017 में तेल अवीव विश्वविद्यालय में आयोजित साइबर तकनीक सम्मेलन को संबोधित करते हुए स्वीकार किया था कि भारतीय प्रधानमंत्री के साथ होने वाली चर्चाओं के दौरान साइबर सुरक्षा एक महत्वपूर्ण विषय है।

अटकलों का बाजार

जब पीएम मोदी के इजरायल दौरे की तैयारियां चल रही थीं, 2017-18 के बजट अनुमान में भारतीय एनएसए की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय का बजट 10 गुना बढ़ा दिया गया था। इसमें साइबर सुरक्षा, अनुसंधान और विकास (सीएसआरडी) पर 300 करोड़ रुपये का खर्च शामिल था। जनवरी, 2018 में प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने भारत की यात्रा की। इत्तेफाक से इसी के आसपास एनएससीएस के बजट में एक और तेज उछाल हुआ। वर्ष 2018-19 के लिए पूंजीगत व्यय बजट में इसके लिए 700 करोड़ रुपये थे। उल्लेखनीय है कि इस अचानक ‘उत्पादक’ अवधि से पहले एनएससी का बजट 25-40 करोड़ रुपये के बीच होता था। इसका काम मुख्य रूप से एजेंसियों के बीच समन्वय और उच्चतम स्तर पर निगरानी करना था। एनएससी कब और कैसे एक ऑपरेशनल विंग बन गई? क्या इसने राजनीतिक निगरानी में कोई भूमिका निभाई?

इन ‘अटकलों’ के पीछे एनएससी में कर्मचारियों की संख्या में उछाल भी है। प्रधानमंत्री मोदी की इजरायल यात्रा से पहले सचिवालय में 202 कर्मचारी काम कर रहे थे, हालांकि स्वीकृत संख्या 299 थी। 2021 में स्वीकृत संख्या 562 बताई जाती है। एनएससी के कामकाज की जानकारी रखने वाले अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि कर्मचारियों की संख्या अब भी स्वीकृत संख्या से काफी कम है। आखिर इस संख्या को बढ़ाने की जरूरत क्या थी?

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एनएससीएस के सलाहकारों की जानकारी क्यों गुप्त है

एक संभावित वजह यह है कि नियमों के तहत सरकार स्वीकृत पदों पर अस्थायी और अनुबंध के आधार पर सलाहकारों को नियुक्त कर सकती है। इसलिए, बेशक कर्मचारियों की वास्तविक संख्या उतनी अधिक न भी हो, एनएससी अपनी इच्छा से सलाहकारों को रख और निकाल सकती है। इस मामले में दो प्रश्न अनुत्तरित हैं कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने विदेशी सलाहकारों को नियुक्त किया; और यदि हां, तो कितने और कब। बहरहाल, इसने इन अटकलों को जन्म दे दिया है कि स्पायवेयर का इस्तेमाल 2019 के आम चुनाव में गड़बड़ी के लिए किया गया था। देखने वाली बात यह है कि यही वह समय है जब, पेगासस प्रोजेक्ट संबंधी खुलासे के मुताबिक, सैकड़ों भारतीय एक्टिविस्ट, पत्रकारों और नेताओं पर स्पायवेयर के जरिये जासूसी की गई। इस संबंध में आम चुनाव से ऐन पहले काम पर रखे गए और चुनाव खत्म होते ही निकाल दिए गए सलाहकारों की जानकारी मिलने से कुछ अंदाजा हो सकता है लेकिन यह जानकारी सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं।

यह 2018 के आसपास था जब सांख्यिकी मंत्रालय और प्रशासनिक सुधार विभाग को एनएससी के लिए नई दिल्ली में सरदार पटेल भवन खाली करने के लिए कहा गया था। अब इस भवन के दो फ्लोर एनएससी के पास हैं। लेकिन अन्य दो विभागों ने अभी तक अपनी मंजिलें खाली नहीं की हैं जिससे यह माना जा रहा है कि एनएससी द्वारा नियुक्त अन्य कर्मचारी कहीं और से काम कर रहे हैं।

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साइबर लैब और ऑपरेशन रूम पर खुफिया रवैया

सऊदी अरब द्वारा वाशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार जमाल खशोगी की हत्या या भारतीय तटरक्षक बल द्वारा शेखा लतीफा के अपहरण में स्पायवेयर के इस्तेमाल के खुलासे से भी इस आशंका की पुष्टि होती है कि इसका इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए भी हो सकता है। 2019 में मीडिया में इस तरह की रिपोर्ट आई थी कि सरकार दो गुप्त परियोजनाओं पर काम कर रही है- (1) देश में हर पुलिस रेंज में साइबर लैब और ऑपरेशन रूम की स्थापना और (2) राष्ट्रीय स्तर पर साइबर निगरानी, विश्लेषण और ऑपरेशन के लिए एक केंद्र का गठन। लेकिन ऐसा लगता है कि संसद को इस बात की ज्यादा जानकारी नहीं है कि क्या हो रहा है और क्यों। सरकार इस बात की पुष्टि या खंडन करने के लिए भी तैयार नहीं है कि विदेशों से खरीदे गए स्पायवेयर का उपयोग करके एकत्र की गई खुफिया जानकारी भारत या किसी और देश के सर्वर में संग्रहीत है।

एक संयुक्त संसदीय समिति संभवतः एनएसए सहित अन्य अधिकारियों को बुलाने और उनसे सवाल पूछने की स्थिति में है। लेकिन जेपीसी की तो बात ही छोड़ दीजिए, सरकार किसी भी जांच की अनुमति देने के मूड में नहीं है। डोभाल की साइबर जासूसी में गहरी व्यक्तिगत रुचि कोई राज की बात नहीं। लेकिन जब उन्होंने इसके बारे में बार-बार बात की है, तो संशय तो होता है कि उन्होंने इसके लिए क्या किया होगा।

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डोभाल की खामोशी से उठते सवाल

डोभाल के बारे में जानने वाले बताते हैं कि कैसे उन्होंने जासूसी मामले में फंस गए एक आरोपी के पुनर्वास में मदद की थी। एनएससी में काम करने वाले एक आरोपी को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया था और 2010 में उसे जमानत मिल गई थी। उस पर जासूसी करने और नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास की एक महिला अधिकारी को सूचना देने का आरोप लगा था। वह महिला अब वाशिंगटन में गाइड के रूप में काम करती है लेकिन उनका सोशल मीडिया हैंडल बताता है कि वह सीआईए की पूर्व कर्मचारी हैं।

जासूसी का यह मामला अब भी लंबित है लेकिन कहा जाता है कि इसे रोक दिया गया था। उस आरोपी के बारे में बताते हैं कि नोएडा स्थित एक फर्म से साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ के रूप में जुड़े इस शख्स ने जीटीवी को प्रमोट करने वाले एस्सेल ग्रुप के साथ काम किया और 2013 में उसने वीआईएफ (डोभाल द्वारा स्थापित विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन) की पत्रिका में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को हैक करने पर लेख लिखा। इस जासूसी कांड को लेकर सवाल तो तमाम हैं लेकिन सरकार इस पर खुलकर बात नहीं कर रही है।

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