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'क्या दलितों, किसानों के लिए खड़ा होना 'राष्ट्र-विरोधी' माना जाएगा', मेधा पाटकर का बीजेपी सरकार पर हमला

पाटकर ने कहा, ‘‘राष्ट्र-विरोधी होने का आरोप क्यों? हम दलितों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के साथ काम कर रहे हैं... क्या यह कोई राष्ट्र-विरोधी चीज है? कानून और संविधान के तहत उनके अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा करना, जो संवैधानिक अधिकारों से ऊपर हैं।’’

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने बीजेपी के उन सांसदों की बुधवार को आलोचना की, जो एक दिन पहले एक संसदीय समिति की उस बैठक को छोड़कर चले गए थे, जिसमें उन्हें (पाटकर को) भी आमंत्रित किया गया था। पाटकर ने पूछा कि क्या दलितों, आदिवासियों, किसानों और मजदूरों के लिए खड़ा होना अब ‘राष्ट्र-विरोधी’ माना जाएगा।

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भूमि अधिग्रहण अधिनियम के क्रियान्वयन पर चर्चा के लिए ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति की बैठक मंगलवार को उस समय अचानक समाप्त करनी पड़ी, जब बीजेपी सांसदों ने पाटकर को आमंत्रित करने के समिति के फैसले का विरोध किया। पाटकर ने 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' के बैनर तले गुजरात में सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के खिलाफ प्रदर्शन का नेतृत्व किया था।

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कांग्रेस सांसद सप्तगिरि शंकर उलाका की अध्यक्षता वाली समिति ने पाटकर को 2013 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के सत्ता में रहने के दौरान संसद में पारित भूमि अधिग्रहण कानून के कार्यान्वयन और प्रभावशीलता पर उनके विचार जानने के लिए बुलाया था।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी सांसद पुरुषोत्तम रूपाला सहित कुछ अन्य पार्टी सांसद बैठक को बीच में छोड़कर चले गए। इनमें से कुछ ने पाटकर को ‘राष्ट्र विरोधी’ तक करार दिया। एक बीेजपी सांसद ने तो यहां तक ​​कहा कि उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि पाकिस्तान के नेताओं को भी ऐसी बैठक में बुलाया जा सकता है।

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पाटकर ने कहा, ‘‘राष्ट्र-विरोधी होने का आरोप क्यों? हम दलितों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के साथ काम कर रहे हैं... क्या यह कोई राष्ट्र-विरोधी चीज है? कानून और संविधान के तहत उनके अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा करना, जो संवैधानिक अधिकारों से ऊपर हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘और अगर हम जो कुछ भी कह रहे हैं, वह गलत है, तो वे उसका विरोध कर सकते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे हमें राष्ट्र-विरोधी या 'अर्बन नक्सली' कहें। इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में संसद की स्थायी समिति की कार्यवाही भी शामिल है।’’

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पाटकर ने कहा कि उन्होंने पहले भी संसदीय समिति की चर्चाओं में हिस्सा लिया है और वह 2013 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम को तैयार करने के लिए सरकार की ओर से किए गए परामर्श का हिस्सा भी रह चुकी हैं।

उन्होंने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और बीजेपी नेता का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘यहां तक ​​कि जब सुमित्रा महाजन अध्यक्ष थीं, तब भी हमारी बात को अच्छी तरह सुना जाता था।’’

पाटकर ने कहा कि उन्हें समिति के समक्ष अपने विचार जाहिर करने के लिए आमंत्रित किया गया, उन्होंने अपनी बात रखी और सभी उचित प्रक्रियाओं का पालन किया गया।

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सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि उन्हें बताया गया कि लोकसभा महासचिव की ओर से (समिति के) अध्यक्ष-कांग्रेस सांसद उलाका को कोरम की कमी के कारण बैठक रद्द करने के लिए एक पत्र भेजा गया था। पाटकर ने कहा कि उन्हें अधिकारियों ने बताया कि बैठक के लिए 17 सांसद आए थे, ऐसे में कोरम की कमी कैसे थी?

उन्होंने कहा, ‘‘महासचिव ने बैठक रद्द करने के लिए अध्यक्ष को जो पत्र भेजा था, उसमें केवल एक कारण दिया गया था कि बैठक में कोरम की कमी है। मुझे बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया है, इसे कारण के रूप में नहीं दर्ज किया गया था।’’

नर्मदा बचाओ आंदोलन के बारे में बात करते हुए पाटकर ने कहा कि वे केवल वही मांग रहे हैं, जिसकी नर्मदा न्यायाधिकरण ने मंजूरी दी है। गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान के बीच नर्मदा नदी से जुड़े जल-बंटवारा विवाद को सुलझाने के लिए 1969 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (एनडब्ल्यूडीटी) की स्थापना की गई थी।

पाटकर ने कहा, ‘‘वे नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत अपनाए गए रुख का हवाला दे रहे हैं। हमारा रुख यह रहा है कि नर्मदा न्यायाधिकरण के फैसले को लागू किया जाना चाहिए।’’

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उन्होंने कहा, ‘‘यहां तक ​​कि विश्व बैंक ने भी इस परियोजना (सरदार सरोवर बांध) के लिए धन देना बंद कर दिया है, यह कहते हुए कि यह खराब तरीके से तैयार की गई परियोजना है। जिन आंकड़ों के आधार पर यह निर्णय लिया गया है, वे त्रुटिपूर्ण हैं। विश्व बैंक ने कहा है कि उन्होंने कानून का पालन नहीं किया है।’’

विश्व बैंक ने 1985 में बांध की ऊंचाई बढ़ाने संबंधी परियोजना को वित्तपोषित करने पर सहमति जताई थी। हालांकि, पाटकर के नेतृत्व में एनबीए के विरोध के बाद उसने पर्यावरणीय लागत और मानव विस्थापन जैसे कारकों पर विचार करने के लिए मोर्स आयोग का गठन किया।

चूंकि, विश्व बैंक ने इस परियोजना से हाथ खींचने का फैसला किया, इसलिए सरकार ने 31 मार्च 1993 को विश्व बैंक की ओर से स्वीकृत ऋण रद्द कर दिया। पाटकर ने इस बात पर जोर दिया कि विस्थापित होने वाले परिवारों का पुनर्वास अहम है।

उन्होंने कहा, ‘‘इस क्षेत्र में हजारों परिवार रहते हैं। उन्हें उचित और पूर्ण पुनर्वास से कैसे वंचित किया जा सकता है? सवाल बस यही था। अब लगभग 50,000 परिवारों को पुनर्वास मिल चुका है। जो बचे हैं, मध्य प्रदेश में कुछ हजार, महाराष्ट्र में सैकड़ों, गुजरात में सैकड़ों, उनके लिए बातचीत जारी है।’’

पाटकर ने कहा, ‘‘हम चाहते हैं कि सरकार तत्काल कदम उठाए और उचित निर्णय ले, लेकिन वे इसे युद्ध स्तर पर नहीं कर रहे हैं।’’

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