
एक और 6 दिसंबर गुज़रा, फिर भी आधुनिक भारत के इस सबसे अहम मोड़ और आंदोलन के बारे में लिखना ज़रूरी लगता है, क्योंकि इसने हमारी राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।
चालीस साल पहले 1984 में, बीजेपी 7 फीसदी वोट और सिर्फ़ दो लोकसभा सीटें जीतकर एक जगह पर रुकी हुई थी। जब 1986 में लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी की कमान संभाली, तो उससे पहले वे कभी चुनावी राजनीति में शामिल नहीं हुए थे। राजनीति में उनके आने का रास्ता आरएसएस की पत्रिका में पत्रकार के तौर पर कुछ समय बिताने के बाद बना। पत्रिका में वे फिल्म समीक्षा लिखा करते थे।
एक राजनीतिज्ञ के तौर पर, आडवाणी हमेशा एक नामित सदस्य रहे, चाहे वह दिल्ली काउंसिल में हो या राज्यसभा में। उन्हें जनता वाली राजनीति और लोगों को जनांदोलन खड़ा करने का कोई अनुभव नहीं था। और उनकी आत्मकथा (2008 में ‘माई कंट्री, माई लाइफ’ के नाम से प्रकाशित) को देखकर भी ऐसा नहीं लगता कि उन्हें पता था कि जन-राजनीति या जनांदोलन की राजनीति कैसे काम करती है। अयोध्या का मुद्दा असल में आरएसएस के भीतर एक गैर-राजनीतिक गुट ने शुरू किया था, जिसका अगुवा विश्व हिंदू परिषद था।
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फरवरी 1989 में इलाहाबाद में कुंभ मेले में विश्व हिंदू परिषद ने कहा कि वह नवंबर में अयोध्या मंदिर का शिलान्यास करेगा यानी नींव रखेगा। इसके लिए देश भर में शिलाएं (ईंटें) बनाई जाएंगी जिन पर राम का नाम लिखा होगा और उन्हें नवंबर में शहरों और गांवों से जुलूस के रूप में अयोध्या ले जाया जाएगा। आडवाणी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उस समय तक अयोध्या देश की मुख्यधारा की राजनीति में कोई मुद्दा नहीं था। जून 1989 में हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आडवाणी ने पार्टी को इस मुद्दे पर जोर देने के लिए उकसाया। बीजेपी के राजनीतिक प्रस्ताव में मांग की गई कि यह जगह ‘हिंदुओं को सौंप दी जाए’ और ‘मस्जिद किसी दूसरी सही जगह पर बनाई जाए’।
कुछ महीने बाद, नवंबर 1989 में चुनाव हुए। बीजेपी के घोषणापत्र में पहली बार अयोध्या का ज़िक्र हुआ। कहा गया, ‘भारत सरकार द्वारा 1948 में बनाए गए सोमनाथ मंदिर की तरह, अयोध्या में राम जन्म मंदिर को फिर से बनाने की इजाज़त न देकर, तनाव को बढ़ने दिया गया है, और इससे सामाजिक सद्भाव को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचा है।’ ऐसा करना बीजेपी के अपने ही संविधान का उल्लंघन था, जिसके पहले पेज और शुरुआती लेख में वादा किया गया था कि वह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखेगी।
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मतदान से कुछ दिन पहले, विश्व हिंदू परिषद पूरे भारत से अपने सभी जुलूस अयोध्या ले आई और मस्जिद के बगल में नींव का पत्थर रख दिया। अपनी विभाजनकारी, मुस्लिम-विरोधी मांग के दम पर, आडवाणी की बीजेपी इन चुनावों में 85 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब हुई, जो पिछले चुनाव में अकेले लड़े गए जनसंघ से चार गुना ज़्यादा थीं और 1984 में वाजपेयी नेतृत्व में जीती हुई सीटों से चालीस गुना ज़्यादा थीं। आडवाणी इस तरह आरएसएस के सबसे सफल राजनीतिक नेता के तौर पर स्थापित हो गए और उन्हें चुनावी सफलता का नुस्खा मिल गया।
उन्होंने इसी मुद्दे पर और ज्यादा फोकस करना शुरू कर दिया जिसका फायदा भी बीजोपी को मिला। कांग्रेस बहुमत से पिछड़ गई और विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में आडवाणी की बीजेपी के समर्थन से सत्ता में एक नया गठबंधन आ गया। हालांकि यह सरकार बहुत अधिक नहीं चली। चुनाव के तीन महीने बाद ही, फरवरी 1990 में, विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ लामबंदी फिर से शुरू कर दी और ऐलान किया कि अयोध्या में कारसेवा की प्रक्रिया जारी रखी जाएगी।
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आडवाणी के मुताबिक राजनीतिक तनाव अचानक पैदा हुआ। वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जून में उन्हें लंदन जाना था, और उसके ठीक पहले आरएसएस के मुखपत्र पंचजन्य ने उनका इंटरव्यू लिया और पूछा कि अगर सरकार अयोध्या मामले को सुलझाने में नाकाम रही तो क्या होगा। आडवाणी का जवाब था कि बीजेपी 30 अक्टूबर को कारसेवा शुरू करने के फैसले का समर्थन करती है, और अगर इसे रोका गया तो बीजेपी की अगुवाई में एक बड़ा जनांदोलन होगा।
आडवाणी लिखते हैं कि ‘सच कहूं तो, मैं इस इंटरव्यू के बारे में भूल गया था, लेकिन जब मेरी पत्नी ने फ़ोन करके पूछा, ‘आपने क्या कहा? यहां के अख़बारों ने इसे ज़ोरदार हेडलाइन के साथ छापा है कि “अयोध्या पर, आडवाणी ने आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे बड़े जनांदोलन की धमकी दी है।” आडवाणी आगे कहते हैं: ‘पासा पलट चुका था।’ इसके आगे आडवाणी कहते हैं कि उन्होंने मुसलमानों के सामने एक पेशकश रखी थी।
पेशकश थी कि, अगर वे बाबरी मस्जिद हिंदुओं को सौंप देते, तो वह विश्व हिंदू परिषद से निजी आग्रह करेंगे कि मथुरा और वाराणसी में दो दूसरी मस्जिदों के खिलाफ आंदोलन न किया जाए। आडवाणी लिखते हैं कि उन्हें इस बात से ‘बहुत निराशा’ हुई और ‘गुस्सा’ आया था कि मुसलमानों ने इसे ठीक नहीं माना। इसके बाद उन्होंने ऐलान किया कि वह मस्जिद के खिलाफ अपना अभियान दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिन, 25 सितंबर को गुजरात से रथयात्रा के तौर पर शुरू करेंगे, और 30 अक्टूबर 1990 को ‘रथ’ (असल में एक ट्रक) पर सवार होकर अयोध्या जाएंगे।
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आडवाणी लिखते हैं कि उनकी इस रथयात्रा को जबरदस्त समर्थन मिला जिससे वे खुद हैरान थे। उन्होंने कहा, ‘मुझे कभी एहसास नहीं हुआ था कि भारतीय लोगों की ज़िंदगी में धार्मिकता इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी है।’ उन्होंने आगे लिखा है कि ‘ऐसा पहली बार हुआ था जब उन्हें स्वामी विवेकानंद की इस बात की सच्चाई समझ आई कि “धर्म भारत की आत्मा है और अगर आप भारतीयों को कोई भी विषय पढ़ाना चाहते हैं, तो वे उसे धर्म की भाषा में बेहतर समझते हैं।”
हर पड़ाव पर आडवाणी धर्म की बातें और कहावतों का इस्तेमाल करते हुए यह बताते हैं कि बाबरी मस्जिद क्यों गिरानी पड़ी। वे कहते हैं कि उनके भाषण पांच मिनट से ज़्यादा लंबे नहीं होते थे। भाषणों में कितना कम समय लगा, इसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है; लेकिन उनके असर और नतीजे का आभास तो पहले से था। सांप्रदायिक मुद्दे को राजनीतिक रंग देने और उस पर लोगों को इकट्ठा करने के आडवाणी के फैसले से फैली हिंसा का स्तर, मरने वालों की संख्या और तमाम इलाकों में फैला तनाव अकल्पनीय था।
एक अनुमान के मुताबिक आडवाणी के बाबरी मस्जिद विरोधी अभियान से शुरू हुई हिंसा में 3,400 से ज़्यादा भारतीय मारे गए, लेकिन इसने बीजेपी को सत्ता के दरवाज़े तक पहुंचा दिया। 1991 के मध्य में हुए आम चुनावों में, बीजेपी को 20 फीसदी वोट और 120 सीटें मिली थीं। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद हुए पहले चुनाव में, 1996 में, बीजेपी ने 161 सीटें हासिल कीं। 2002 के बाद बीजेपी ने स्थापित कर दिया कि वह देश की अकेली ऐसी पार्टी है जो विभाजनकारी राजनीति करने को तैयार और उत्साहित है, और उसे इसका नतीजा भी मिला।
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