विचार

कोरोना को खत्म करने के साथ ही इंसानों को बांटनेवाले वायरस को भी उखाड़ फेंकना जरूरी  

इस महामारी का खौफ इतना ज्यादा है कि पूरी दुनिया के धर्मस्थल इसकी वजह से बंद हो गए हैं। ईसाइयों के चर्च, हिंदुओं के मंदिर, मुसलमानों की मस्जिदें और सिखों के गुरुद्वारे आदि सभी बंद कर दिए गए हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

कोरोना वायरस यानी कोविड-19 की महामारी का कहर दुनिया भर में जारी है। दुनिया का हर देश, चाहे वह शक्तिशाली हो या कमजोर, धार्मिक हो या उदार, इस वायरस से खौफजदा और सहमा हुआ है। यह वायरस और इसका इलाज-दोनों ही से पूरी दुनिया डरी- सहमी हुई है। किसी को भी नहीं पता कि उसे कब और कहां यह वायरस अपने चंगुल में ले लेगा, इसलिए हर कोई अपने लोगों से ही दूरी बनाने के लिए मजबूर है। इसका इलाज खुद को दुनिया भर से अलग-थलग करना बताया जा रहा है। वैसे तो हम पहले भी एक साथ कहां थे, हम तो एक दूसरे के साथ रहने में विश्वास ही नहीं रखते। बस सरसरी तौर पर देखने में यह जरूर लगता है कि इंसान एक दूसरे के साथ पूरे मेलजोल के साथ रहता है लेकिन गहराई में जाने पर कई तरह की दरारें दिखाई पड़ जाती हैं। हम तो खुद डेढ़ ईंट की अपनी मस्जिद अलग बनाने में यकीन रखते है। यह भी सत्य है कि अन्य वायरसों की तरह यह वायरस भी एक दिन आखिर मर ही जाएगा और लोगों का डर भी दूर हो जाएगा लेकिन इसने हमें घरों के अंदर रहने और उस वायरस को मारने का मौका दिया है जो पहले से ही हमारे समाज में मौजूद है।

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इस महामारी का खौफ इतना ज्यादा है कि पूरी दुनिया के धर्मस्थल इसकी वजह से बंद हो गए हैं। ईसाइयों के चर्च, हिंदुओं के मंदिर, मुसलमानों की मस्जिदें और सिखों के गुरुद्वारे आदि सभी बंद कर दिए गए हैं। आज लोग अपनी-अपनी इबादत या पूजा-पाठ घर पर करने के लिए मजबूर हैं। आज यरूशलम की मस्जिद-ए-अक्सा को आजाद कराने के लिए कोई सड़क पर मौजूद नहीं है क्योंकि ऐसा करने से अपने ही वजूद को खतरा है। कई सालों से बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद चला आ रहा था और दोनों पक्ष अपने अधिकार को सही ठहराने के लिए हर मोर्चे पर लड़ रहे थे और इस लडाई में कई कीमती जानें भी गईं, लेकिन आज सभी घरों में बंद हैं और घर पर ही पूजा करने पर मजबूर हैं यानी यह लड़ाई भी आज किसी के काम नहीं आ रही है।

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दुनिया में सदियों से नस्लीय भेदभाव चलता आ रहा है, जहां गोरे यानी श्वेत लोग खुद को हर मामले में बेहतर मानते रहे हैं और दुनिया भर में दूसरे रंगों के लोगों, खासकर अश्वेत लोगों को नीची नजरों से देखा जाता रहा है। आज कोरोना नामक महामारी रंगों को लेकर कोई भेदभाव नहीं कर रही है और उन श्वेतों की जान लेने में भी संकोच नहीं कर रही जो खुद को सब से श्रेष्ठ मानते हैं।

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जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पदभार संभाला था तो उन्होंने ‘अमेरिकन फर्स्ट’ का नारा दिया और देश में श्वेत और अश्वेत अमेरिकियों के बीच भेदभाव करना शुरू कर दिया। लेकिन अब उनके कार्यकाल के आखिरी साल में ऐसी महामारी सामने आई है जिसे यह बात मालूम ही नहीं है कि कौन अमेरिकी है और कौन अमेरिका का नहीं है।

आज हम मजबूरी में अपना ही सामाजिक बहिष्कार करके इस बीमारी से खुद को बचाने पर मजबूर हैं, लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि हम समाज में पहले से मौजूद बीमारियों से भी खुद को बचाएं और ये वे बीमारियां हैं जिन को हम अच्छी तरह से पहचानते भी हैं और इनके बारे में जानते भी हैं! धर्म के बारे में यह बार-बार कहा गया है कि यह हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। लेकिन हर व्यक्ति जिस धर्म के मानने वालों के घर में पैदा हो जाता है उसी धर्म को मानने लगता है। यह भी एक हकीकत है के उस घर में पैदा होने में उसकी कोई मर्जी और भूमिका नहीं है और इस सचाई को जानते हुए भी वह पूरी दुनिया को यह समझाने की कोशिश करता है कि उसका धर्म ही एक सच्चा धर्म है और जो उसका धर्म कहता वही सच है। लेकिन आज वह कोरोना वायरस की वजह से घर पर ही पूजा करने पर मजबूर है और इसका सीधा संदेश यही है कि धर्म आपका व्यक्तिगत मामला है और हर धर्म का मकसद समाज को बेहतर बनाना है और यही कुदरत की भी मर्जी है। कुदरत यह कभी नहीं चाहेगी कि कोई भी उसके बगीचे को तबाह करे, उसके लिए लड़े या सिर्फ एक ही तरह के फूल के पौधे लगाए।

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इस बीमारी ने धार्मिक चरमपंथियों और जातिवादियों को साफ पैगाम दिया है कि रंग और नस्लीय भेदभाव रूढ़िवादी बातें हैं। समाज में जिस तरह इस महामारी के वायरस के लिए सभी बराबर हैं वैसे ही समाज में हर रंग और नस्ल का व्यक्ति समान है। इस वायरस के प्रकोप से भी अगर हम यह बात समझने के लिए तैयार नहीं हैं तो फिर इस वायरस की तरह वो वायरस भी हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा।

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सरहदों से बने देशों के नेताओं को भी यह समझना चाहिए कि उन्हें जो सत्‍ता मिली है उसकी ताकत को वे आपसी बंटवारे के लिए इस्तेमाल न करें बल्कि इस ताकत को इस्तेमाल दूरियों को कम करने में करें, वर्ना सभी अपने-अपने घरों में कैद हो जाएंगे और जिंदा रहते हुए मर जाएंगे, जैसे आज इटली या स्पेन में देखने को मिल रहा है। अलग थलग रहने का दुख उनसे पूछें जो आज सारी दुनिया से कटकर अपने कमरे में कैद हैं और उनसे भी पूछें जो अपने प्यारों के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हो पाए। आज जरूरत इस बात की है कि दुनिया इस वायरस के खात्मे के साथ-साथ भेदभाव की भावना का भी त्याग करके प्रेम और सद्भाव की दुनिया बसाए ताकि किसी रंग का फूल किसी दूसरे से खुद को बेहतर या कमतर न समझे। धर्म, जाति और राष्ट्रीयता का वायरस हमें कोरोना वायरस की तरह एक दूसरे से अलग रहने के लिए मजबूर करता है, हमें कोरोना वायरस के साथ इस वायरस को भी हमेशा के लिए मिटाना होगा। हमारे देश में तो कम से कम इसका अंत होना ही चाहिए। डॉक्टर बशीर बद्र का वो शेर याद आ रहा है जिसमें उन्होंने नफरतों को संदूक में बंद करके दफन करने को कहा है :

सात संदूकों में भर कर दफन कर दो नफरतें, आज इंसान को मोहब्बत की जरूरत है।

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