विचार

22 दिसंबर, 1949 की वह रात, ...जब जन्म बीज डाला गया था राम जन्मभूमि का

तीन दशक पहले, 23 दिसंबर 1949 की सुबह बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने के बाद अयोध्या पुलिस ने एफआईआर में अभिराम दास को मुख्य आरोपी बताया था। उन पर मुकदमा भी चला लेकिन मामला किसी फैसले तक नहीं पहुंचा। कालांतर में उन्हें राम जन्मभूमि उद्धारक कहा जाने लगा।

(बाएं) कृष्णा झा और धीरेन्द्र के झा की किताब का आवरण और (दाएं) अयोध्या स्थित हनुमानगढ़ी
(बाएं) कृष्णा झा और धीरेन्द्र के झा की किताब का आवरण और (दाएं) अयोध्या स्थित हनुमानगढ़ी 

रात लगभग खत्म हो चुकी थी। अयोध्या अब भी नींद के मौन में थी। तभी सन्नाटा चीरते हुए, पसीने से लथपथ एक युवा साधु, पांच सौ से ज्यादा साधुओं के आश्रय वाले हनुमान गढ़ी से भागता हुआ आया। उसे उसके गुरु अभिराम दास जो उस वक्त अंतिम सांस ले रहे थे, के पास तत्काल सत्येंद्र दास को बुलाने के लिए भेजा गया था। यह 3 दिसंबर, 1981 के शुरुआती कुछ घंटे थे जब इतिहास के कुछ भूले-बिसरे पन्नों पर से पर्दा हटने वाला था।

यह संदेश उनके अन्य शिष्य धर्म दास का था जो चाहते थे कि वह (सत्येंद्र दास) अंतिम क्षणों में अपने गुरु के पास हों जो स्वयं गुरु अभिराम दास के साथ एक अलग कमरे (आसन) में हनुमानगढ़ी में ही रहते थे। यह खबर अप्रत्याशित नहीं थी। सत्येन्द्र दास लगभग उस क्षण का इंतजार ही कर रहे थे क्योंकि उन्हें लंबे समय से भान था कि उनके गुरु अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव के करीब थे। वह पूरे दिन बिस्तर पर ही थे और संकेत उत्साहजनक नहीं थे।

घंटों असाध्य रूप से अस्वस्थ गुरु की देखभाल के बाद कुछ लम्हों के लिए उनका आसन छोड़ने वाले सत्येंद्र दास को अहसास था कि वह व्यक्ति, उनके गुरु जिन्होंने हिन्दुओं के एक छोटे से समूह के साथ तीन दशक पूर्व के ऐसे ही दिसंबर की किसी रात में चोरी-छुपे बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति रख दी थी, का जीवन अब ज्यादा लंबा नहीं है। न चाहते हुए भी उनके बिस्तर के पास से उठने के बाद, अत्यंत थके सत्येन्द्र दास काफी बेचैन थे और उन्हें नींद नहीं आ रही थी।

सब कुछ जानते हुए भी उस पल से भयभीत थे कि कोई भी किसी भी समय वह अप्रिय खबर लेकर उनके दरवाजे पर दस्तक देगा, और जब ऐसा हुआ तो उन्होंने बिना विलंब किए रजाई लपेटी और उस युवा साधु के साथ बाहर भागे जो उन्हें लेने आया था।

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संन्यासियों की अंतिम यात्रा के अनुष्ठान गैर-तपस्वी हिन्दू गृहस्थों के समान नहीं हैं, खासकर उत्तर भारत में। हिन्दू गृहस्थों के विपरीत, साधुओं का अंतिम संस्कार शायद ही कभी किया जाता है। दो विकल्प हैं: या तो उनके शरीर पर नमक डाल कर ध्यान मुद्रा में बैठाकर दफना दिया जाए या फिर शरीर को पत्थर या रेत से भरी बोरियों से बांधकर किसी पवित्र नदी में बहा दिया जाए। तथ्य यह है कि पूर्ण त्याग की शपथ लेने वाले साधुओं का अंतिम संस्कार नहीं होता जो भौतिक दुनिया से उनके विरक्ति का प्रतीक है। दावा यह है कि साधुओं के लिए दाह संस्कार अनावश्यक है क्योंकि वे पहले ही तपस्या और त्याग का जीवन चुनकर तपस्वी दीक्षा के माध्यम से अपनी आसक्तियों को जला चुके होते हैं।

अयोध्या में, साधु के शरीर का सरयू में विसर्जन सामान्य साधु प्रथा है- नदी को यह नाम भी इसी कारण मिला कि वह शहर के तटों को छूती है। अयोध्या से पहले और बाद में यह घाघरा नाम से जानी जाती है। इस नामकरण के पीछे भी एक विशेष हिन्दू मान्यता है। जैसे पौराणिक कथाओं ने अयोध्या को भगवान राम की जन्मभूमि में बदल दिया, इसके निकट बहने वाली नदी ने भी सरयू का पौराणिक नाम धारण कर लिया है- माना जाता है कि यह धारा भगवान राम के राज्य से होकर बहती थी।

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​​आसन के बाहर, अभिराम दास का शरीर बांस से बने एक मंच पर बैठे  हुआ आसन में रखा गया था, चेहरा मानो आत्म-नियंत्रण में जमा हुआ, आंखें आधी बंद, जैसे ध्यानमग्न हों। भगवान राम का नाम छपा भगवा कपड़े का एक टुकड़ा- एक विशेष प्रकार का सूती या रेशमी कपड़ा जिसे रामनामी कहते हैं- करीने से शरीर के चारों ओर लपेटा गया था। शव रखे गए बांस के मंच पर बांस के टुकड़ों से बने मेहराब को भी तीन तरफ से रामनामी से ढंका गया था। बांस की इस संरचना- जिसे ‘विमान’ कहा जाता है, और जो आत्माओं को स्वर्गीय क्षेत्र में ले जाने वाले पौराणिक वाहक का प्रतीक है- को एक तरफ से खुला रखा गया था ताकि लोग मृतक की अंतिम झलक पा सकें।

धीरे-धीरे, साधुओं के एक समूह ने विमान अपने कंधों पर उठा लिया और हनुमानगढ़ी के केन्द्र में भगवान हनुमान के मंदिर की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर बढ़ चले। परिसर में समूह और विशाल हो गया और जैसे ही विमान हनुमानगढ़ी से बाहर लाया गया, साथ चल रही भीड़ ने नारा लगाया, “राम जन्मभूमि उद्धारक अमर रहें”।

तीन दशक पहले, 23 दिसंबर 1949 की सुबह बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति रखे जाने के बाद अयोध्या पुलिस द्वारा दर्ज की गई पहली सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) में अभिराम दास को मुख्य आरोपी बताया गया था। उस रात उन्होंने और उनके साथियों ने जो अपराध किया था, उसके लिए उन पर मुकदमा भी चला लेकिन मामला किसी फैसले तक नहीं पहुंचा। कालांतर में अयोध्या में अनेक हिन्दू उन्हें राम जन्मभूमि उद्धारक कहने लगे थे।

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जैसे ही विमान बाबरी मस्जिद के प्रवेश द्वार पर पहुंचा जहां उसे सावधानीपूर्वक रखा गया, नारेबाजी तेज हो गई। बाबरी मस्जिद में मूर्ति स्थापित होने के बाद से ही उसके अंदर संचालित हो रहे राम जन्मभूमि मंदिर के पुजारी और आसपास के पुजारियों, जिन्हें निधन की सूचना थी बाहर निकल, शव पर माला चढ़ाकर श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे।

हालांकि, कुल मिलाकर, अयोध्या अभिराम दास की मृत्यु से अनजान रही। जिन भी लोगों ने इस अंतिम संस्कार जुलूस को कौतुक से देखा, ज्यादातर यही मानते रहे कि किसी अन्य वृद्ध साधु का निधन हुआ होगा। 

तीन दशकों के बाद 1949 के घटनाक्रम से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य गुमनामी में जा चुके थे।

अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का प्रचार- कि मूर्ति कभी नहीं लगाई गई थी और भगवान राम अपने जन्म स्थान पर स्वयं प्रकट हुए थे- अब तक धर्मनिष्ठ हिन्दुओं के बीच काफी हद तक मजबूत हो चुका है जिससे मूर्ति रखने वाले अभिराम दास का उस काली रात के अंधेरे वाला अध्याय किसी हद तक खत्म हो चुका था। बीच के दौर में हिन्दू संप्रदायवादियों द्वारा लिखी गई पुस्तिकाएं और पर्चे अयोध्या की दुकानों में भर गए थे और ‘दैवीय क्रिया’ के मिथक को मजबूत करने में काफी हद तक सफल रहे थे।

कानूनी कारणों से, उस गुप्त कार्य में भूमिका निभाने वालों को भी मिथक को बढ़ने देना और लोकप्रिय कल्पना को पीछे छोड़ देना सुविधाजनक लगा। आखिरकार, कानून तो मानवीय षडयंत्रों को ही पकड़ सकता था, एक ‘दैवीय क्रिया’ उसकी पहुंच से परे थी। फिर भी, अयोध्या में हिन्दुओं के एक छोटे समूह के लिए, अभिराम दास अपनी मृत्यु तक राम जन्मभूमि उद्धारक या केवल उद्धारक बाबा बने रहे।

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1981 में अभिराम दास की मृत्यु पर स्थानीय जनता में जो उदासीन प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, वह उस माहौल के बिलकुल विपरीत थी जो शहर ने तीन दशक पहले, आजादी के ठीक बाद के वर्षों के दौरान देखा था। उस समय देश के कई अन्य हिस्सों की तरह, अयोध्या में भी कई लोगों ने चीजों को अलग तरह से देखा था। भारत के विभाजन के साथ उपजे सांप्रदायिक उन्माद के कारण वातावरण अत्यंत क्रूर हो चुका था। इसमें उन संगठनों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं थी जिन्होंने विभाजन के तत्काल बाद स्वतंत्र भारत की धर्मनिरपेक्ष सोच को पटरी से उतारने के एक अवसर के रूप में देखा। इन संगठनों से जुड़े षडयंत्रकारियों और उनके द्वारा रची गई साजिशों के नतीजे के तौर पर पहले ही बड़ी राष्ट्रीय त्रासदियां सामने आ चुकी हैं।

ऐसी ही एक घटना 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की जघन्य हत्या थी। महात्मा गांधी की छाती में गोलियां दागने वाले हाथ तो  नाथूराम गोडसे के थे, लेकिन जैसा कि बाद में साबित हुआ, यह हत्या शीर्ष हिन्दू महासभा द्वारा रची गई और वी.डी. सावरकर के नेतृत्व में अंजाम दी गई साजिश का हिस्सा थी जिनका मुख्य उद्देश्य कांग्रेस से राजनीतिक पहल छीनना और भारत में धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के सारे प्रयासों को ध्वस्त करना था। गांधीजी की हत्या की साजिश ज्यादा समय तक छुपी नहीं रह सकी, हालांकि हत्या के तुरंत बाद चला मुकदमा इसकी परतों का खुलासा करने में विफल रहा था।

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करीब दो साल बाद 22 दिसंबर, 1949 की उस रात बाबरी मस्जिद पर गुप्त कब्जा लगभग उसी समूह के लोगों द्वारा नियोजित एक कृत्य था। यह कई मायनों में, उसी क्रूर माहौल का प्रतिबिंब था जिसमें गांधी की हत्या हुई थी। न तो षडयंत्रकारी अलग थे और न ही उनके अंतर्निहित उद्देश्य। दोनों मामलों में, साजिशकर्ता हिन्दू महासभा नेतृत्व से संबंधित थे- मूर्ति स्थापित करने वाले कुछ प्रमुख लोग गांधी हत्या मामले में मुख्य आरोपी थे- और इस बार भी उनका उद्देश्य भगवान राम के नाम पर बड़े पैमाने पर हिन्दू लामबंदी कराकर राजनीति का केन्द्रीय मंच कांग्रेस से हथियाना था। 

(हार्पर कॉलिन्स से प्रकाशित अयोध्याः द डार्क नाइट से अनूदित अंश साभार)

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