विचार

हिंदी पत्रकारिता दिवस: डिजिटल माध्यमों पर हिंदी की पकड़ के विश्वास ने बचा रखी है लाज

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। भले ही हिंदी अखबारों की खबरों पर पकड़ और पाठक तक पहुंच में कमीबेशी आई हो, लेकिन डिजिटल माध्यमों से हिंदी पत्रकारिता अपना काम बखूबी निभा रही है। 2016 के बाद इंटरनेट की आसान उपलब्धता ने इसे और सुगम बनाया। यह लेख 2020 में लिखा गया था, लेकिन यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। हिंदी पत्रकारिता की अलग जलाए रखने का काम अब डिजिटल माध्यमों से अधिक हो रहा है
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। हिंदी पत्रकारिता की अलग जलाए रखने का काम अब डिजिटल माध्यमों से अधिक हो रहा है 

आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। एक तरफ बड़े बड़े हिंदी अखबारों, चैनलों में भारी छंटाई की खबरें हैं, दूसरी तरफ ग्लोबल मीडिया के बड़े खिलाड़ियों की आंखों में डिजिटल माध्यमों पर हिंदी की भारी पकड़ का विश्वास। यानी एक तरफ घर की मुर्गी दाल बराबर है, तो दूसरी तरफ उसकी बांग को नई सुबह की आगाज़ माना जा रहा है। समझ नहीं आता कि समझदार लोग इस पर सर धुनें की सर ऊंचा करें? जो हो, एक बात तीन महीने की तालाबंदी ने साफ उजागर कर दी है वह यह, कि कोविड के बुखार के बाद भी मुख्यधारा के भाषाई, खासकर हिंदी मीडिया का आगामी लोकप्रिय रूप, डिजिटल जगत में ही तैयार होना और बंटना है। कागज़ पर छपने वाले अखबारों के कारखानों में नहीं जिनको जिलाये रखने वाले विज्ञापन अब डिजिटल और टी वी के मनोरंजन चैनलों की तरफ मुड़ चले हैं।

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आगे से इंटरनेट अल्गोरिद्म की मदद से खबरों के बुनने और उनके फटाफट वितरण का दोहरा रास्ता होगा, न कि छोटे बड़े शहरों के डीलर वेंडर! वजह यह, कि कल तक अमीरों या किशोर नर्ड्स तक सीमित नेट तक पहले सरकार द्वारा वितरित लैपटॉप ने फिर 2016 के बाद सस्ती कनेक्टिविटी से जुड़े स्मार्ट फोन ने तालाबंदी काल में गांव से छोटे शहर तक की सहज पहुंच तय करा दी है। पांच से दस रुपये तक की कीमत वाले दैनिक की अपेक्षा यह माध्यम खबरें पाने का सस्ता टिकाऊ और लगभग फ्री माध्यम है। जीडीपी चाहे रसातल को जा रहा हो, पर आज भारत का हर दूसरा भारतीय स्मार्ट फोन रखता है और कुल मोबाइल फोन रखने वाले तो 90 फीसदी से ऊपर हैं ।

जिनको नेट और ब्रॉडबैंड मयस्सर नहीं, उनके जीवन में भी फेसबुक, गूगल तथा ट्विटर सरीके भाषाई बहुलता से भरे सोशल मीडिया एप्स ने एक नई क्रांति ला दी है। बंद तालों की परवाह किये बिना यह नये डिजिटल बीजाक्षर सीधे घरों, झोपड़ियों, महलों और स्लम बस्तियों तक खबरों को जनता की अपनी भाषा में पहुंचा रहे हैं।

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एक पेंच है, आज का नया हिंदी पाठक युवा, महत्वाकांक्षी, तकनीकी तौर से दक्ष लेकिन खबरों के नाम पर बहुत छोटी खबरों और मनोरंजन तथा आत्मप्रचार की मिली जुली चाट का आदी बन गया है। जानीमानी संस्था बार्क(BARC) शोध के अनुसार आज भारत का नया खबरी पाठक मिश्रित (दर्शक,श्रोता) है । वह औसतन चार घंटे नेट यूज़ करता है जिसका 18 फीसदी चैटिंग,15 फीसदी सोशल नेटवर्किंग, 15 फीसदी विडियो स्ट्रीमिंग और 11फीसदी गेमिंग की शरण को जाता है ।

कहना न होगा इन नये मीडिया उपभोक्ताओं का सबसे बड़ा हिस्सा हिंदी पट्टीवालों का है। लेकिन पिछले तीन दशकों से अमीरों खासकर अंग्रेज़ी मीडिया और सरकार का भोंपू पिछलग्गू बनता गया हिंदी मीडिया, आज भी ताज़ा परोसने की बजाय मुफ्त की पंगत में पत्तल पर बासी खाना खाना बुरा नहीं मानता। यह दुखद है। ग्लोबल कंपनियां उसको पुचकार रही हैं सो उसकी खबरों के लिये कम उसकी गांव से छोटे शहरों तक गाहकों तक पहुंचने की सहज क्षमता की वजह से अधिक।

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लॉकडाउन के बाद भी जन जन तक पहुंच और स्कूली शिक्षा के नये माध्यम की तरह उभरे हिंदी मीडिया का बाज़ार भविष्य उजला है। लेकिन जहां तक खबरों के संकलन, पेशेवर ईमानदार संपादन और टीम की अगुवाई का सवाल है उसकी आत्मनिर्भरता संदिग्ध बनी हुई है। पहली वजह हिंदी में लगातार सत्तासीन राजनीतिज्ञों की बढ़ती जकड़ बंदी है जिनको हिंदी पट्टी के 11 राज्यों के हर चुनाव में प्रचार के लिये इसका इस्तेमाल करना है। इसने हिंदी के लगभग हर मीडिया मंच पर उसके मालिकान को विज्ञापनी और सरकारी मदद से उपकृत करने के बाद वहां ‘अपने’ लोगों को स्थापित किया है। अच्छे ईमानदार लोगों से काम तो लिया जाता है, पर शीर्ष पदों से उनको लगातार पीछे हटा कर भाडे के टट्टुओं को आगे धुकाया जा रहा है जो पत्रकारिता की गुणवत्ता के लिये घातक साबित हुआ है और होगा।

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सवाल है कि सभी बड़े डिजिटल मीडिया मंच और खबरों के संग्राहक (गूगल या फेसबुक) मालिकाना दृष्टि से विदेशी हैं। इसलिये भारतीय स्वायत्त खबरिया पोर्टलों की बजाय लगभग तीन चौथाई विज्ञापन वे सोख लेते हैं। बाकी बचे बासी भात में टीवी का भी साझा होगा। इससे फिलहाल हिंदी मीडिया अपनी भारी ग्राहक संख्या के बाद भी बड़े पैमाने पर विदेशी मिल्कियत वाले प्लेटफॉर्म्स में चल रहे अन्नकूट का याचक किरायेदार बना रहेगा ऐसा लगता है।

जियो ने एक विशाल नया प्लेटफॉर्म बनाया है जिसमें तुरत बड़ी फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट सरीखी तथा निवेशक विदेशी कंपनियों ने शेयर खरीदने चालू कर दिये हैं। हम हिंदीवाले हैं, कि उसपर ध्यान देने और अपनी शक्ति का अहसास गहरा करते हुए उसमें अपना जायज़ हिस्सा लेने की बजाय बेपनाह छंटनियों, संस्करणों के लिये सस्ते में स्ट्रिंगर नियुक्तियों, राजनीतिक बदला चुकाई या कॉर्पोरेट हिरस के घरेलू झगडों में फंसे हैं। जो समय बचता है उसमें राजनेताओं के लिखे सरकार की अपनी पीठ थपथपाई के बन्ने सोहर छाप देते हैं कि कृपा की बल्ली लगी रहे। ऐसा कैसे चलेगा ?

(यह लेख 2020 में हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर पहली बार इसी वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था)

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